संजय बारू
हाल ही में 303 भारतीयों को लेकर निकारागुआ जा रहे विमान को जब फ्रांस से वापस लौटाया गया, तो पता चला कि इन्हें निकारागुआ से अवैध रूप से अमरीकी सीमा में प्रवेश करना था। इस घटना पर नजर रख रहे एक पत्रकार से बात करते हुए, इनमें से एक यात्री, जो मेहसाणा (गुजरात) का रहने वाला था, उसने काफी दुख के साथ कहा कि अपने यहां तो यही लगता है कि सरकारी नौकरियां केवल उन्हें मिलती हैं जिनके पास घूस देने के लिए काफी पैसा है, या जबर्दस्त जुगाड़ है।
“अच्छे वेतन वाली निजी नौकरियां भी नहीं हैं। इसलिए भारत में रहकर जिंदगी भर एड़ियां रगड़ने से बेहतर है कि अमेरिका या कनाडा में रहते हुए कोई छोटा-मोटा काम करके भी अच्छी कमाई की जाए।”
‘नरेंद्रमोदीडॉटइन’ नाम की वेबसाइट पर 2014 का एक लेख है, जिसका शीर्षक है ‘द गुजरात मॉडल’। इसमें दावा किया गया है कि “गुजरात की विकास यात्रा को भारत और दुनिया भर में जबरदस्त प्रशंसा मिली है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात अपने विकासोन्मुखी शासन के लिए जाना जाता था, जहां लोगों को विकास यात्रा में सक्रिय भागीदार और हिस्सेदार बनाया गया।” लेकिन, जाहिर है कि पिछले दशक में कुछ तो गलत हुआ है।
आज जहां एक तरफ हताश भारतीय अच्छी आजीविका की तलाश में विदेश जाने के लिए अवैध रास्ते अपना रहे हैं और मुश्किलों का सामना कर रहे हैं, तो वहीं देश के अमीर धन्नासेठ (तथाकथित “हाई नेट वर्थ इंडिविजुअल्स” यानि एचएनआई) विदेशों में बसने के लिए गोल्डन वीजा खरीद रहे हैं।
लंदन स्थित वैश्विक नागरिकता और निवास सलाहकार फर्म, ‘हेनले एंड पार्टनर्स’ ने 2022 में बताया कि 7,500 धन्नासेठों ने विदेश में बसने और वहां की नागरिकता लेने के लिए भारत छोड़ दिया। वैश्विक निवेश बैंक, ‘मॉर्गन स्टेनली’ ने अनुमान लगाया है कि 2014 से 2018 के बीच 23,000 भारतीय करोड़पतियों ने अपने मुख्य बसेरा भारत से बाहर स्थानांतरित कर लिया है।
पिछले एक दशक में देश से गरीबों, पेशेवरों और अमीरों के पलायन में तेजी से वृद्धि हुई है। जहां गरीब लोग दलालों और बिचौलियों के शिकार बन जाते हैं, वहीं पेशेवर लोग वर्किंग वीजा हासिल करने के लिए अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करते हैं, जबकि अमीरों को अपनी विदेशी नागरिकता महज खरीद लेनी होती है। काफी देश अमीर भारतीयों को अपने यहां की नागरिकता बेच रहे हैं।
एक समय था जब भारतीयों को जबरन दूसरे देशों में ले जाया जाता था। उपन्यासकारों और इतिहासकारों ने उन “गिरमिटिया मजदूरों” के दुर्भाग्य और संघर्षों के बारे में काफी विस्तार से लिखा है, जिन्हें बेहतर जीवन के झूठे वादे के साथ उनके गांवों से बहला-फुसलाकर लाया गया और फिर गुलामी और हाड़तोड़ मेहनत के कामों में धकेल दिया गया। यह ब्रिटिश भारत था।
फिर 1970 और 1980 के दशक आए, जब भारतीय श्रमिकों को एक बार फिर रोजगार और उच्च आय के वादे के प्रलोभन दिये गये। इस दौर ने भी ढेर सारे लोगों को पश्चिम एशिया की गैर-लोकतांत्रिक, सामंती राजशाहियों में अमानवीय परिस्थितियों में रहने को मजबूर कर दिया।हलांकि दिलचस्प बात यह है कि न तो औपनिवेशिक युग के गिरमिटिया मजदूरों ने, और न ही खाड़ी क्षेत्र के मजदूर वर्ग ने घर लौटने का विकल्प चुना। 1947 के बाद, गिरमिटिया मजदूरों को तो भारतीय नागरिकता लेने का विकल्प दिया गया था, लेकिन अधिकांश ने विदेशों में ही रहना तय किया। मॉरीशस से लेकर जमैका तक, विविध देशों में रहते हए उनकी स्थिति में सुधार हुआ है।
इनमें से अधिकांश लोग पूर्वी भारत के गांवों में रह रहे अपने रिश्तेदारों की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं। पश्चिम एशिया में भी, मजदूर वर्ग ने बेहतर जीवन स्थितियों के लिए संघर्ष किया, लेकिन शायद ही कभी घर लौटने का विकल्प चुना। बल्कि वे दोहरी नागरिकता और मतदान के अधिकार की मांग करते रहे हैं।
हर साल 20 लाख से अधिक भारतीयों के विदेश पलायन के चलते, विविध क्षेत्रों और पेशों में प्रवासी भारतवंशियों (इंडियन डायस्पोरा) की संख्या अब लगभग 3 करोड़ हो चुकी है और अनिवासी भारतीयों (एनआरआई) की संख्या अब अनिवासी चीनियों से अधिक हो चुकी है।
21 जुलाई, 2023 को संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए, भारत के विदेश मंत्री, एस जयशंकर ने कहा कि 2022 में कुल 2,25,260 भारतीयों ने अपनी भारतीय नागरिकता त्याग दी। 2020 में यह संख्या 85,256 थी। कुल मिलाकर 2011 से 2022 की अवधि में कुल 16,63,440 भारतीयों ने अपनी नागरिकता त्याग दी है। 2023 के पहले छह महीनों में ही यह आंकड़ा 87,026 हो चुका था।
विदेश मंत्री ने आगे कहा, कि “पिछले दो दशकों में अपने रोजगार की तलाश दूसरे देशों में करने वाले भारतीय नागरिकों की संख्या बहुत बड़ी रही है। उनमें से काफी लोगों ने व्यक्तिगत सुविधा के कारणों से विदेशी नागरिकता लेने का विकल्प चुना है।”
सरकार में काफी लोगों का मानना है कि प्रवासी भारतीय एक संपदा हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया है कि ये लोग भारत के लिए ‘‘ब्रेन बैंक’’ हैं। यह सच है कि भारत में प्रवासी भारतीयों द्वारा भेजी गयी विदेशी मुद्रा पिछले वर्ष 125 अरब अमेरिकी डॉलर के, अब तक के सर्वकालिक उच्च स्तर पर पहुंच गयी है। लेकिन प्रवासी भारतीयों का कोई ऐसा ‘‘मेधा प्रवाह’’ नहीं दिख रहा, जो इस ‘‘धनप्रवाह’’ से कहीं से भी मेल खाता हो, और जो उन्हें ‘‘ब्रेन बैंक’’ साबित करे।
विदेश मंत्री ने दावा किया, कि “सफल, समृद्ध और प्रभावशाली प्रवासी भारत के लिए फायदेमंद हैं।” उन्होंने कहा कि सरकार के प्रयासों का उद्देश्य “विशेष रूप से ज्ञान और विशेषज्ञता के आदान-प्रदान को इस तरह से प्रोत्साहित करना है जो भारत के राष्ट्रीय विकास में योगदान देगा।” हलांकि धन का प्रवाह तो दिखाई दे रहा है, लेकिन ज्ञान-प्रवाह के कोई प्रमाण नहीं दिख रहे हैं।
अगर देश के भीतर प्रतिकूल परिस्थितियां गरीब और मध्यम वर्ग के भारतीयों को पलायन करने के लिए मजबूर कर रही हैं, तो सरकारी एजेंसियों द्वारा उत्पीड़न का डर अमीर भारतीयों को विदेश जाने के लिए प्रेरित कर रहा है। मध्यम वर्ग में जिस तरह से ऐसी स्कूली शिक्षा की मांग लगातार बढ़ रही है, जो उनके बच्चों को विदेशों में प्रवेश दिलाने में सक्षम बनाती हो, यह मध्यवर्ग में भारत छोड़ने की व्यग्रता का एक संकेत मात्र है।
अब तक नीति निर्माताओं और विश्लेषकों द्वारा इस घटना को हल्के में लिया गया है। आखिरकार, खुद उनके अधिकांश बच्चे तो पहले ही पलायन कर चुके हैं। हलांकि, भारतीयों के पलायन का पैमाना वर्तमान में चौंकाने वाले स्तर पर पहुंच चुका है। इसका आंशिक कारण यह भी है कि दुनिया भर में काम करने वाले लोगों की संख्या में गिरावट आयी है, जिसके चलते भारतीय मजदूरों और पेशेवरों की मांग पैदा हुई है।लेकिन इसके साथ ही, बड़ी संख्या में लोगों के भीतर मोदी के इस “नये भारत” से बहुत दूर, एक बेहतर, सुरक्षित जीवन जीने की इच्छा के चलते भी देश से पलायन करने और भारतीय नागरिकता छोड़ने की यह प्रवृत्ति बढ़ी है।
एक तरफ सरकार प्रवासी भारतीयों के बीच हर तरह के धार्मिक चरमपंथियों की बढ़ती सक्रियता को देखते हुए अब यह मानने लगी है कि प्रवासी भारतीय एक संपदा होने के साथ-साथ एक दायित्व भी बन चुके हैं। वहीं दूसरी तरफ, जिन परिवारों के बच्चे विदेशों में हैं, वे उनकी अनुपस्थिति का बोझ ढोने को मजबूर हो रहे हैं, और वृद्धाश्रमों में निवेश करने लगे हैं।
इस सब में, यह अमीर वर्ग है, जिसकी पौ बारह है। यह दुबई, सिंगापुर, लंदन, लिस्बन, केमैन द्वीप से लेकर दुनिया के किसी देश की नागरिकता खरीद कर वहां मौज कर सकता है।
(‘इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार। संजय बारू 1999 से 2001 तक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य और 2004 से 2008 तक भारत के प्रधानमंत्री के सलाहकार रह चुके हैं। अनुवाद : शैलेश)