बिलकीस बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने एक बार फिर बताया कि न्याय की लड़ाई लंबी है और सामूहिक सहयोग के बिना सफलता मुश्किल है. सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला, जिसमें उन्होंने बलात्कार एवं 14 लोगों की हत्या के 11 आरोपियों की सजा माफी के आदेश को रद्द कर, उन्हें वापस जेल में भेजने का आदेश दिया, वो एक 20 साल लंबी लड़ाई का परिणाम है. इस फैसले में, बिलकीस बानो के साथ प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा, सुभाषिनी अली, अधिवक्ता शोभा गुप्ता, पत्रकार रेवती लाल, पूर्व आईपीएस अधिकारी मीरा चड्ढा बोरवणकर और महुआ मोइत्रा की भूमिका की सराहना हो रही है, और होनी भी चाहिए. लेकिन, न्याय की लड़ाई में दो महिला अधिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका की चर्चा आज जरूरी है.
अगर साल 2002 में घटना के एक-दो दिन बाद बिलकीस को गुजरात की दो अधिकारियों का ईमानदार साथ नहीं मिला होता, तो शायद यह वीभत्स घटना किसी के सामने नहीं आती. पहली हैं, गोधरा जिला की तत्कालीन जिलाधिकारी (डीएम/कलेक्टर) जयंती रवि; और दूसरी, गोधरा सिविल हॉस्पिटल की डॉक्टर रोहिणी कुट्टी.
इन दोनों की भूमिका की बात इस समय कोई नहीं कर रहा. उस दौर में जब गुजरात शासन-प्रशासन शीर्ष से लेकर नीचे तक दंगे में और सबूतों को मिटाने की साजिश में शामिल था, तब इन दोनों ने जिस ईमानदारी से अपनी अपनी अधिकारिक भूमिका निभाई है और बाद में ट्रायल कोर्ट में अपने बयान भी पूरी ईमानदारी से दिए, वो वाकई एक मिसाल है.
यह पूरी कहानी इस प्रकार है.
3 मार्च 2002 को मानवता और धर्म की सभी मान्यताओं को शर्मसार करने वाले इस हादसे को अंजाम दिया गया. अपनी 3 साल की बच्ची, मां, दो भाई, दो बहन, दो चाची, चाचा, बहन की नवजात जन्मी बच्ची सहित 14 लोगों की हत्या देखने वाली सामूहिक बलात्कार पीड़िता बिलकीस बानो को मारा समझकर नग्न अवस्था में छोड़ दिया गया. बिलकीस को होश आया, तो जैसे वो किसी तरह वहां पड़ा एक पेटीकोट पहनकर बचते-बचाते 4 मार्च 2002 को लिमखेड़ा पुलिस स्टेशन पहुंची. वहां पुलिस ने उनकी जो एफआईआर दर्ज की उसमें न तो बलात्कार की बात दर्ज की और न ही किसी भी आरोपियों का नाम दर्ज किए.
इसी तरह, 4 मार्च को लिमखेड़ा पीएचसी में हुए उसके मेडिकल में वहां के डॉक्टर ने न तो बलात्कार की बात दर्ज की, न घटना की कोई रिकॉर्ड ही दर्ज किया.
5 मार्च को बिलकीस को गोधरा रिलीफ कैंप में भेज दिया गया. वहां, 6 मार्च को जब गोधरा की डीएम जयंती रवि पहुंचीं, तो उनकी मुलाकात बिलकीस से हुई, तब इस घटना की सही रिकॉर्डिंग शुरू हुई. बिलकीस की कहानी सुन उन्हें समझ आया कि यह कोई विशेष मामला है. तब तक उन्हें नहीं मालूम था कि लिमखेड़ा कि एफआईआर किस तरह से दर्ज हुई है, लेकिन शायद उन्हें उस समय गुजरात के प्रशासनिक हालात का अंदाजा था. इसलिए, उन्होंने अपने साथ आए तहसीलदार (कार्यपालक मजिस्ट्रेट, गोविंद पटेल) को बिलकीस के पूरी बयान दर्ज करने को कहा.
इसके बाद, उन्होंने 7 मार्च को बिलकीस को मेडिकल के लिए गोधरा सिविल हॉस्पिटल भी भेजा; उन्हें अंदाजा होगा कि मेडिकल भी सही नहीं हुआ होगा. वहां, बिलकीस को एक और कर्तव्य के प्रति ईमानदार महिला- डॉक्टर रोहिणी कुट्टी मिलीं. उन्होंने, पूरी ईमानदारी से बिलकीस की घटना के संबंध में बताई गई सारी बातें दर्ज कीं और उनका मेडिकल परीक्षण किया.
गोधरा की डीएम जयंती रवि यहीं नहीं रुकीं, उन्होंने 7/03/02 को ही दाहोद एसपी, जिनके जिले में यह घटना हुई थी, को इस मामले में आगे की कार्यवाही के लिए पहला पत्र लिखा. साथ ही, बिलकीस के जो बयान दर्ज करवाए थे, वो भी भेजें. फिर, 11/03/02 को रिमाइंडर लिख प्रगति रिपोर्ट मांगी. इसके बाद, 18/03/02 को दाहोद के डिप्टी एसपी को पत्र लिखकर मामले में प्रगति रिपोर्ट मांगी. फिर, 03/05/02 को दाहोद एसपी को पत्र लिखकर पूछा कि अभी तक इस मामले में कोई गिरफ्तारी क्यों नहीं हुई है. जब डिप्टी एसपी ने कोई रिपोर्ट नहीं भेजी, तो एक पत्र लिखकर सवाल किया कि अभी तक कोई भी प्रगति रिपोर्ट नहीं क्यों नहीं भेजी. फिर हारकर, 8 जुलाई 2002 को अतरिक्त मुख्य सचिव, गृह विभाग, गुजरात सरकार को इस मामले में कार्यवाही हेतु पत्र लिखा. इन पत्रों को गुजरात शासन और प्रशासन ने कचरों के डब्बे में डाल दिया, मगर यह कोर्ट में एक प्रमुख सबूत बने.
फरवरी 2003 में गुजरात पुलिस ने कोर्ट में क्लोज़र रिपोर्ट पेश कर दी. इसके बाद, जैसा कि हम सब जानते है, कुछ एनजीओ के लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका के बाद और कोर्ट के आदेश पर दिसंबर 2003 में इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने घटना में शामिल 12 लोगों सहित जांच में शामिल लिमखेड़ा पुलिस स्टेशन के 5 पुलिसकर्मियों सहित डीएसपी और मेडिकल करने वाले लिमखेड़ा पीएचसी के दोनों डॉक्टर को भी आरोपी बनाया. ट्रायल कोर्ट के सजा के आदेश के बाद जब अपील में मामला हाईकोर्ट पहुंचा.
हाईकोर्ट में बचाव पक्ष ने यह मामला उठाया कि पीड़िता बिलकीस ने लिमखेड़ा पुलिस स्टेशन में दर्ज अपनी शुरुआती एफआईआर और बयान में किसी भी आरोपी का नाम नहीं बताया और न ही मेडिकल में बलात्कार की बात आई. लेकिन, फैसला करने वाली जस्टिस वीके ताहिलरमानी और जस्टिस मृदुला भटकर ने अपने फैसले (क्रिमिनल अपील क्रमांक 1020/2009 दिनांक 04/05/17) में इन बातों की काट के रूप में गोधरा की डीएम जयंती रवि के द्वारा दिनांक 6/03/2002 को दर्ज कराए गए बयान एवं 7 मार्च 02 को गोधरा सिविल हॉस्पिटल की डॉक्टर रोहिणी कुट्टी के मेडिकल और उस दौरान जो सारी कहानी बिलकीस ने सुनाई उसे प्रमुख सबूत में से एक माना.
इन दोनों अधिकारियों ने इस मामले में ट्रायल कोर्ट में भी अपने बयान पूरी ईमानदारी से दिए. डॉक्टर रोहिणी कुट्टी ने गवाह क्रमांक 17 के तौर पर और डीएम जयंती रवि ने गवाह क्रमांक 18 के तौर पर अपनी गवाही दर्ज कराई.
मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से कह सकता हूं कि अपराधिक मामले में शुरुआती दौर की पुलिस जांच में जिस तरह से लीपापोती की जाती है, वो केस को अत्यंत कमजोर कर देता हैं. और, इस तरह के केस का ट्रायल कोर्ट में टिकना मुश्किल हो जाता है.
गोधरा की डीएम जयंती रवि और डॉक्टर रोहिणी कुट्टी कि भूमिका दर्शाती है कि जब तक अधिकारी बिना राजनीतिक और अन्य किसी तरह के दखल के, ईमानदारी से अपनी भूमिका नहीं निभाते, तब तक सिर्फ कानून के नाम बदल देने से कुछ बदलने वाला नहीं है.
इंटरनेट पर जयंती रवि के बारे में मौजूद जानकारी के अनुसार, वे आजकल औरोविल फाउंडेशन (Auroville foundation) के सेक्रेटरी पद पर हैं. उनके परिचय में उन्हें शिक्षक, विचारक और वैज्ञानिक भी बताया गया है. उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में पीएचडी की थी और गुजरात कैडर से 1991 बैच की आईएएस अधिकारी हैं. डॉक्टर कुट्टी मध्य प्रदेश की हैं, उनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिल पाई.
(लेखक श्रमिक आदिवासी संगठन एवं समाजवादी जन परिषद के कार्यकर्ता हैं.)