नई दिल्ली: भारत में लोकसभा चुनाव से कुछ ही सप्ताह पहले चुनाव आयुक्त अरुण गोयल ने शनिवार रात निर्वाचन आयोग से इस्तीफा दे दिया. आम तौर पर जो आयोग तीन आयुक्तों की अध्यक्षता में काम करता है, अब उसमें केवल एक सदस्य- मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) राजीव कुमार ही बचे हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक, उनके इस्तीफे की स्वीकृति को रिकॉर्ड पर रखते हुए एक आधिकारिक अधिसूचना जारी की गई है.
गोयल, जिनका कार्यकाल दिसंबर 2027 तक चुनाव आयुक्त के रूप में तय था, ने इस तरह अचानक पद छोड़ने का कोई कारण नहीं बताया है. बीरे 15 फरवरी को तीसरे चुनाव आयुक्त- अनूप पांडेरिटायर हुए थे और अभी तक उनकी जगह नहीं भरी गई है.
निर्वाचन आयोग के कमजोर नेतृत्व का असर आगामी लोकसभा चुनाव पर पड़ना तय है. हालांकि, गोयल के इस्तीफे का समय इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि नरेंद्र मोदी सरकार और चुनाव आयोग खुद चुनावी बॉन्ड से राजनीतिक दलों को मिलने वाली फंडिंग को लेकर सवालों का सामना कर रहे हैं.
चुनावी फंडिंग की अपारदर्शी, गुमनाम प्रणाली को शीर्ष अदालत ने पिछले महीने असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया था, को लेकर कई सवाल बने हुए हैं. सोमवार (11 मार्च) को सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की पीठ भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की याचिका सुनेगा. कोर्ट ने एसबीआई को 6 मार्च तक चुनावी बॉन्ड से जुड़े सभी विवरण सार्वजनिक करने का आदेश दिया गया था. अदालत 11 मार्च को ही एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा बैंक के खिलाफ दायर अवमानना याचिका पर भी सुनवाई करने वाली है.
जिस चुनाव आयोग को महत्वपूर्ण आम चुनाव का जिम्मा उठाना है, उसमें फ़िलहाल सिर्फ एक चुनाव आयुक्त है. अनूप पांडे का पद खाली होने के लगभग एक महीने बाद भी सरकार उनके स्थान पर किसी को नियुक्त करने में असमर्थ रही है और इसके लिए तीन सदस्यीय चयन समिति की बैठक भी नहीं बुलाई है.
देश के सभी 543 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान सुनिश्चित करने के अलावा तीन चुनाव आयुक्तों को यह सुनिश्चित करने का भी काम सौंपा गया है कि सभी राजनीतिक दल और नेता चुनाव कानून, विशेष रूप से आदर्श आचार संहिता, जो सत्तारूढ़ दलों द्वारा सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग और साथ ही वोट पाने के लिए धर्म और घृणास्पद भाषण के इस्तेमाल को निषेध करता है, का पालन करें.
गोयल का इस्तीफा- इसकी अस्पष्ट प्रकृति और समय दोनों के चलते भारत की प्रमुख चुनावी संस्था की अखंडता और इसके स्वायत्त कामकाज के लिए प्रक्रियाओं के बारे में चिंताएं बढ़ाएगा. भारत में ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव’ का दावा आयोग की स्वतंत्रता पर ही निर्भर करता है.
विवादित नियुक्ति
आज जब गोयल के जाने पर सवाल खड़े हुए हैं, तो याद करना जरूरी है कि जिस तरह से उन्हें साल 2022 में इस महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया गया, वह भी सवालों के घेरे में रहा था.
17 नवंबर, 2022 को, सुप्रीम कोर्ट ने अपनी पसंद के चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करने के सरकार के अधिकार को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई शुरू की और तर्क दिया कि यह प्रक्रिया संवैधानिक आवश्यकता का उल्लंघन करती है कि निर्वाचन आयोग कार्यपालिका से स्वतंत्र हो. यहां तक कि जब शीर्ष अदालत ने इस मामले को अपने संज्ञान में लिया, तब भी मोदी सरकार ने गोयल की नियुक्ति में जल्दबाजी की.
गोयल उस समय एक सेवारत नौकरशाह थे, जिन्होंने 18 नवंबर, 2022 को भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा दे दिया और अगले ही दिन उन्हें चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिया गया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने अंततः गोयल की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी थी, लेकिन जल्दबाजी में की गई उनकी नियुक्ति पर तीखी टिप्पणियां की थीं.
गोयल की नियुक्ति को लेकर कोर्ट ने कहा था कि इसमें ‘बहुत तेज़ी’ दिखाई गई और उनकी फाइल 24 घंटे भी विभागों के पास नहीं रही.
इसके बाद 2 मार्च, 2023 को सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने कहा कि सीईसी और उनके दो सहयोगियों सहित चुनाव आयुक्तों को भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष या विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश वाली समिति की सलाह पर ही नियुक्त किया जाना चाहिए.
लेकिन मोदी सरकार ने इस फैसले की अवहेलना की और इसके बजाय एक कानून पारित किया जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और एक तीसरे सदस्य, जो ‘प्रधानमंत्री द्वारा नामित एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री’ होगा, को शामिल करते हुए एक समिति का गठन किया गया. यह कार्यपालिका की चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की वही शक्ति है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कम करने की मांग की थी.
पहले भी हुए हैं इस्तीफे
निर्वाचन आयोग के इतिहास में गोयल का जाना किसी चुनाव आयुक्त की दूसरी असामान्य विदाई है और संयोगवश ये दोनों ही विदाई मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान हुई हैं.
अगस्त 2020 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने इस्तीफा दिया था और मनीला में एडीबी में शामिल हो गए. चुनाव आयुक्तों के बीच वरिष्ठता को देखते हुए उनका सीईसी बनना तय था.
उल्लेखनीय है कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान, वे एकमात्र चुनाव आयुक्त थे, जिन्होंने चुनावी प्रक्रिया के उल्लंघन के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को क्लीन चिट देने से इनकार कर दिया था. चुनाव के कुछ महीनों बाद उनकी पत्नी को आयकर नोटिस भेजा गया और प्रेस में उनके परिवार द्वारा एक फ्लैट की खरीद पर सवाल उठाने वाली ख़बरें छपने लगीं.
बाद में लवासा का निजी मोबाइल नंबर उस सूची में भी मिला, जिन्हें संभावित तौर से पेगासस स्पायवेयर के जरिये निशाना बनाया गया था. पेगासस प्रोजेक्ट के तहत सामने आए रिकॉर्ड बताते हैं कि लवासा को संभावित सर्विलांस पर तब डाला गया था जब उन्होंने एक बार नहीं बल्कि तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आदर्श आचार संहिता के कथित उल्लंघन के पांच अलग-अलग मामलों में असहमति जताई थी. पांच मामलों में से चार मोदी द्वारा कथित उल्लंघनों की शिकायतों से संबंधित थे. The Wire