सत्येंद्र रंजन
यह उन दिनों की बात है, जब राहुल गांधी मंदिर-दर-मंदिर की यात्रा कर रहे थे और उनकी एक पार्टी की प्रवक्ता ने प्रेस कांफ्रेंस में उन्हें “जनेऊधारी ब्राह्मण” बताया था। तब खुद को पार्टी के रणनीतिकारों में से एक बताने वाले शख्स ने इस स्तंभकार की जिज्ञासा पर कहा था कि राहुल गांधी एक सुविचारित रणनीति के तहत ये यात्राएं कर रहे हैं। इस रणनीति के बारे में जानकर इस स्तंभकार ने खुद विस्मित महसूस किया था। वह कथित रणनीति यह बताई गई कि राहुल गांधी इसके जरिए भाजपा/आरएसएस की हिंदू धर्म की “ठेकेदारी” खत्म कर देंगे। उन्होंने ध्यान दिलाया था कि राहुल गांधी खास कर शिव मंदिरों का दौरा करते हैं। बताया गया कि इसके पीछे भी एक सोच है।
सोच यह है कि हिंदू धर्म के लंबे इतिहास में शैव (शिव भक्त) और वैष्णव (विष्णु भक्त) की दो धाराएं रही हैं। कई मौकों पर इन दोनों पंथों के अनुयायी एक दूसरे के खिलाफ खड़े नज़र आए हैं। तो अब रणनीति यह है कि इस विभेद पर नए सिरे से जोर डाला जाए। चूंकि भाजपा/आरएसएस ने वैष्णव धारा को आधार बनाते हुए (भगवान राम विष्णु के अवतार माने जाते हैं) हिंदू धर्म को अपनी सियासी ताकत बना लिया है, तो कांग्रेस शैव धारा की विरासत को अपनाते हुए उसकी यह ताकत खत्म कर देगी। यह स्तंभकार इस बात से उत्पन्न विस्मय-बोध से आज तक निकल नहीं पाया है।
उसके बाद से राहुल गांधी ने लंबी राजनीतिक यात्रा तय की है। विदेशी विश्वविद्यालयों में संवाद से उन्होंने अपनी बौद्धिक छवि बनाई, मोनोपॉली कॉरपोरेट घरानों को निशाने पर लेते हुए अपने को आम जन (plebian) के नेता के रूप स्थापित करने की कोशिश की, भारत जोड़ो यात्रा से सांप्रदायिक सौहार्द के संदेशवाहक एवं ‘मोहब्बत के दुकानदार’ के रूप में सामने आए, तो फिर बहुजन (मंडल+दलित) राजनीति की विरासत पर दावा ठोका। इस पूरे दौर में उनकी जो एक विशेषता कायम रही, वह है ‘डरो मत’ के नारे पर अपने जीवन में अमल। नरेंद्र मोदी-अमित शाह के युग में किसी नेता का विरोधी या विपक्षी भूमिका में आक्रामक तेवर के साथ टिके रहना कोई कम श्रेय की बात नहीं है।
इसी साहस ने राहुल गांधी को वह छवि प्रदान की है, जिससे आज वे विपक्ष के सर्व-स्वीकार्य नेता के रूप में उभरे हैं। ना सिर्फ संसदीय विपक्षी दलों के बीच उनकी यह स्वीकार्यता है, बल्कि सार्वजनिक जीवन में वर्तमान सरकार के तौर-तरीकों और उसकी विचारधारा से असहमत तमाम लोगों में भी यह स्वीकार्यता लगातार बढ़ती गई है। ऐसा उनमें मुद्दों पर निरंतरता अभाव के बावजूद हुआ है।
बहरहाल, भले राहुल गांधी में विचार, राजनीतिक दिशा एवं मुद्दों की निरंतरता ना रही हो, लेकिन उनके समर्थक उनमें एक तरह का विकास-क्रम देखते हैं। उनकी राय में यह विकासक्रम “जनेऊधारी ब्राह्मण” से “सामाजिक न्याय” के नए प्रवक्ता की दिशा में आगे बढ़ा है।
यह विकासक्रम है या नहीं, इस पर मतभेद की गुंजाइशें हैं। लेकिन इस दौर में राहुल गांधी संसदीय विपक्ष का चेहरा बने हैं, यह निर्विवाद है। इसीलिए सोमवार को लोकसभा में उनके डेढ़ घंटे से भी ज्यादा लंबा चले भाषण को सुनते वक्त अक्सर ये सवाल मन में उठता रहा कि क्या उन्होंने (और उनकी कांग्रेस पार्टी ने) फिर से शिव का साया लेकर भाजपा की जय श्रीराम की राजनीति का जवाब तैयार करने की रणनीति अपना ली है? राहुल गांधी का भगवान शिव की तस्वीर लेकर सदन में आना, भाषण के दौरान उस तस्वीर को बार-बार दिखाना, और यहां तक कि शिव की अभयमुद्रा को कांग्रेस के चुनाव निशान से संबंधित बता देना ना सिर्फ कौतुहल पैदा करता रहा, बल्कि एक तरह की व्यग्रता का स्रोत भी बना।
प्रश्न है कि अगर यह कांग्रेस की केंद्रीय रणनीति है, तो इसके जरिए वह कहां पहुंचेगी? क्या सचमुच कांग्रेस के रणनीतिकार यह समझते हैं कि बेहतर हिंदू होने का दावा कर कांग्रेस नेता भाजपा/आरएसएस समर्थन आधार को खत्म कर सकते हैं?
अगर यह समझ हो, तो बेशक यह कहा जाएगा कि 2024 के जनादेश के स्वरूप को समझने में कांग्रेस के रणनीतिकारों ने भारी गलती की है। ठीक उसी तरह जैसे भाजपा नेतृत्व जानबूझ कर या अनजाने में जनादेश के स्वरूप और संदेश को स्वीकार करने से इनकार कर रहा है।
यह जनादेश किसी भावानात्मक मुद्दे से निर्मित नहीं हुआ। बल्कि भावनात्मक मुद्दों के बने रहने के बावजूद हुआ। चुनाव पूर्व और चुनाव उपरांत सर्वेक्षणों से स्पष्ट है कि जिन दो शब्दों ने भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया, वे महंगाई और बेरोजगारी हैं। नरेंद्र मोदी सरकार की प्राथमिकताओं और आर्थिक नीतियों ने देश की बहुसंख्यक आबादी के लिए रोजमर्रा की कठिनाइयों एवं अवसरहीनता की स्थिति में लगातार वृद्धि की है। उसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। खुद राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेता यह मानते हैं कि मोदी शासनकाल में संविधान के लिए पैदा हुए कथित खतरे से आशंकित मतदाताओं ने भाजपा के पर कुतरे। हालांकि संविधान को कथित खतरा या उसकी रक्षा भी एक तरह का भावनात्मक और भावात्मक प्रश्न ही है, इसके बावजूद यह संभव है कि समाज के कुछ तबकों में चुनाव के दौरान यह एक प्रभावी मुद्दा बना हो।
तो क्या सही रणनीति इन प्रश्नों को चर्चा के केंद्र में बनाए रखना नहीं होगी? राहुल गांधी एवं अन्य विपक्षी नेताओं के लिए बिना मांगे, लेकिन एक उचित सलाह यह होगी कि अपने भाषणों को वे दोबारा ध्यान से सुनें। उनमें वे यह ढूंढने का प्रयास करें कि क्या महंगाई, बेरोजगारी और संविधान की रक्षा को उन्होंने अपने भाषण के केंद्र में रखा?
या जानबूझ कर विपक्षी नेता भी बुनियादी सवालों पर चर्चा से बचना चाहते हैं? महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन की उपलब्धता आदि से संबंधित सवाल ठोस और व्यावहारिक जवाब की मांग करते हैं। विपक्षी दलों ने चुनाव के दौरान अपनी सुविधा के मुताबिक इस सवालों को उठाया जरूर, लेकिन इन पर कोई जवाब प्रस्तुत नहीं किया। ठीक उसी तरह जैसे जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे, तब वे किसी सवाल या मुद्दे से आंख नहीं चुराते थे। जबकि अब वे कभी भूल से भी आम जिंदगी से जुड़े बुनियादी सवालों पर बात नहीं करते।
सत्ता पक्ष या विपक्ष- इस सवालों को पृष्ठभूमि में धकेल कर भावनात्मक मुद्दों को चर्चा के केंद्र में ले आना सहूलियत की राजनीति है। लेकिन यह राजनीति टिकाऊ नहीं है। दुनिया भर में मौजूदा अनुभव यह है कि चुनावी लोकतंत्र वाले देशों में लोग सुविधा की राजनीति को सिरे से ठुकरा रहे हैं। राजनीति में ध्रुवीकरण के फॉल्टलाइन (विभाजन रेखाएं) अब उदार और कट्टर उसूल नहीं हैं। बल्कि गोलबंदी रोजी-रोजी के सवालों पर आधारित राजनीति बनाम इन सवालों से ध्यान भटकाने वाली नफरती या जज्बाती सियासत के बीच हो रही है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के लिए यह आत्म-निरीक्षण का विषय है कि गोलबंदी की इस वैश्विक एवं सामयिक परिघटना में वे किसकी नुमाइंदगी कर रहे हैं।
संकेत साफ हैः बीच का रास्ता टिकाऊ नहीं रह गया है। भविष्य सिर्फ उन्हीं सियासी ताकतों का है, जो उपरोक्त गोलबंदियों में किसी एक की नुमाइंदा हैं। वैसे दीर्घकालिक भविष्य तो सिर्फ रोजी-रोटी के प्रश्नों का जवाब ढूंढ सकने में सक्षम और उन पर अपनी राजनीति को केंद्रित करने वाली ताकतों का ही होगा। राहुल गांधी, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल अपना कैसा भविष्य करना चाहते हैं, यह खुद उनको ही तय करना है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)