जे.पी.सिंह
अनुच्छेद 370 की संवैधानिक वैधता पर बुधवार को छठे दिन भी सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया कि क्या संसद राष्ट्रपति शासन के दौरान जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र-शासित प्रदेशों में विभाजित करने के लिए कानून बना सकती है? वहीं, मामले में एक याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया कि सत्ता के दुरुपयोग का इससे अच्छा उदाहरण कुछ और नहीं हो सकता।
उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को सवाल किया कि क्या संसद 2018-2019 में राष्ट्रपति शासन के दौरान जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम लागू कर सकती थी। इस अधिनियम के जरिये राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया गया था। जम्मू- कश्मीर पुनर्गठन विधेयक पांच अगस्त, 2019 को राज्यसभा में पेश किया गया और पारित किया गया था और अगले दिन लोकसभा में पेश किया गया और पारित किया गया था।
इसे 9 अगस्त, 2019 को राष्ट्रपति की मंजूरी मिली थी। जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस की ओर से पेश वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने को चुनौती देने के अलावा, राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का भी विरोध किया है।
चीफ जस्टिस ने धवन से पूछा कि क्या संसद अनुच्छेद 356 की उद्घोषणा के लागू रहने की अवधि के दौरान अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए कोई कानून (जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम) बना सकती है।
धवन ने जवाब दिया कि संसद संविधान के अनुच्छेद 3 और 4 में वर्णित सभी सीमाओं के अधीन एक कानून पारित कर सकती है। धवन ने पीठ को बताया कि संविधान के अनुच्छेद 3 और 4 के तहत एक अनिवार्य शर्त है। इसके तहत मामले को राष्ट्रपति को राज्य विधायिका के पास भेजना पड़ता है। ऐसे में जब राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू था, तो राज्य का पुनर्गठन नहीं किया जा सकता था। उन्होंने कहा कि संसद राज्य विधानमंडल की जगह या राष्ट्रपति-राज्यपाल की जगह नहीं ले सकते।
उन्होंने कहा कि 2019 के जम्मू और कश्मीर के पुनर्गठन से संबंधित अधिसूचना ने अनुच्छेद 3 के अनिवार्य प्रावधान (राज्य विधानमंडल के लिए राष्ट्रपति द्वारा एक संदर्भ) को निलंबित करके अनुच्छेद 3 में एक संवैधानिक संशोधन किया गया। उन्होंने कहा कि यदि अनिवार्य प्रावधान का यह निलंबन कानून की नजर में विफल रहता है, तो राष्ट्रपति शासन विफल हो जाएगा और जुलाई, 2019 में इसका विस्तार भी विफल हो जाएगा। उन्होंने जोर देकर कहा कि केंद्र ने वस्तुतः संविधान में संशोधन किया है और संपूर्ण जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 3 और 4 से निकला है।
इस पर चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने धवन से पूछा कि हम संविधान की धारा 356 (1) (सी) से कैसे निपटते हैं? क्या राष्ट्रपति के पास अनुच्छेद 356 के तहत लागू व्यवस्थाओं के दौरान संविधान के कुछ प्रावधानों को निलंबित करने की शक्ति है?
इस पर धवन ने जवाब दिया कि हां राष्ट्रपति संविधान के एक प्रावधान को निलंबित कर सकते हैं लेकिन उन्हें उद्घोषणा को पूरा करना होगा, लेकिन इस मामले में अनुच्छेद 3 के तहत एक अनिवार्य प्रावधान वास्तव में हटा दिया गया है। सीजेआई चंद्रचूड़ ने धवन से कहा कि यदि राष्ट्रपति किसी उद्घोषणा में संविधान के किसी प्रावधान के क्रियान्वयन को निलंबित कर देते हैं, तो क्या यह इस आधार पर अदालत में निर्णय के लिए उत्तरदायी है कि यह आकस्मिक या पूरक नहीं है।
धवन ने उत्तर दिया कि मैंने कभी ऐसा प्रावधान नहीं देखा जो वास्तव में एक अनिवार्य प्रावधान को हटा देता है। यह असाधारण है। यदि आप अनुच्छेद 356(1)(सी) के दायरे का विस्तार करते हैं, तो आप कहेंगे कि राष्ट्रपति के पास एक कार्ड है, कि वो संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करें। अनुच्छेद 356 एक अपवाद है जो संघवाद पर हावी है और यह एक राज्य में लोकतंत्र को खत्म कर देता है।
करीब चार घंटे तक बहस करने वाले जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस की ओर से पेश वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने कहा कि विलय समझौते के विकल्प के रूप में संविधान का अनुच्छेद 370 संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है, लिहाजा इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता। धवन ने कहा कि राष्ट्रपति शासन के तहत शक्तियों का इस्तेमाल संविधान में संशोधन के लिए नहीं किया जा सकता है।
उन्होंने कहा कि स्वायत्तता संविधान का मौलिक हिस्सा है और राज्यों को दी गई स्वायत्तता को रेखांकित करने वाले प्रावधानों के बिना, भारत ध्वस्त हो गया होता। उन्होंने कहा कि एकरूपता की तलाश संविधान के मूल में नहीं है। धवन ने यह भी तर्क दिया कि अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) के तहत शक्तियों का बार-बार दुरुपयोग किया गया है और यह संविधान में संशोधन करने के लिए दी गई शक्ति नहीं है। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर कोई मरा हुआ घोड़ा नहीं है जिसे कोड़े मारे जाएं। भारतीय संघवाद में स्वायत्तता को समझना बहुत महत्वपूर्ण है।
धवन ने पीठ को बताया कि संविधान के अनुच्छेद 3 और 4 के तहत नए राज्यों के गठन और मौजूदा राज्य के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में बदलाव से संबंधित एक अनिवार्य शर्त है, जहां राष्ट्रपति को मामले को राज्य विधायिका के पास भेजना होता है।
अनुच्छेद 370 को निरस्त करने संबंधी केंद्र के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के छठे दिन धवन ने कहा कि जब राज्य अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन लगाने) की घोषणा के अधीन था, तो राज्य का पुनर्गठन नहीं किया जा सकता था। उन्होंने कहा कि संसद राज्य विधानमंडल की जगह नहीं ले सकती।
धवन ने कहा कि जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन, 2019 से संबंधित अधिसूचना ने अनुच्छेद 3 के अनिवार्य प्रावधान (राष्ट्रपति द्वारा राज्य विधानमंडल को भेजे जाने) को निलंबित करके अनुच्छेद 3 में एक संवैधानिक संशोधन किया। उन्होंने कहा कि केंद्र ने वस्तुत: संविधान में संशोधन किया है और संपूर्ण जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 3 और 4 से सामने आया है।
चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने धवन से पूछा कि हम संविधान की धारा 356 (1) (सी) से कैसे निपटते हैं? क्या राष्ट्रपति के पास अनुच्छेद 356 के तहत उद्घोषणा लागू रहने के दौरान संविधान के कुछ प्रावधानों को निलंबित करने की शक्ति है। धवन ने कहा कि हां, राष्ट्रपति संविधान के किसी प्रावधान को निलंबित कर सकते हैं लेकिन यह उद्घोषणा की अनुपूरक होनी चाहिए। इस मामले में यह पूरक होने से परे है और अनुच्छेद 3 के तहत अनिवार्य प्रावधान को वास्तव में हटाया गया।
चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने धवन से कहा कि यदि राष्ट्रपति किसी उद्घोषणा में संविधान के किसी प्रावधान के क्रियान्वयन को निलंबित कर देते हैं, तो क्या यह इस आधार पर अदालत में निर्णय के योग्य है कि यह आकस्मिक या पूरक नहीं है।
धवन ने उत्तर दिया कि मैंने कभी ऐसा प्रावधान नहीं देखा जो वास्तव में एक अनिवार्य प्रावधान को हटा देता हो। यह असाधारण है। यदि आप अनुच्छेद 356(1)(सी) के दायरे का विस्तार करते हैं, तो आप कहेंगे कि राष्ट्रपति के पास संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने का अधिकार है। अनुच्छेद 356(1)(सी) को एक अनिवार्य प्रावधान के साथ पढ़ा जाना चाहिए जिसे वह कमतर नहीं कर सकता। लगभग चार घंटे तक दलील देने वाले धवन ने कहा कि राष्ट्रपति शासन के दौरान अनुच्छेद 3 और 4 और अनुच्छेद 370 को लागू नहीं किया जा सकता है।
संविधान पीठ के समक्ष एक याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील दवे ने कहा, जम्मू-कश्मीर में एक स्थानीय पार्टी के साथ मिलकर सरकार चल रही थी। वह अच्छा काम कर रही थी। अचानक उस सरकार से समर्थन वापस ले लिया जाता है। फिर केंद्र राष्ट्रपति को अनुच्छेद-356 आदेश जारी करने के लिए राजी करता है। फिर राष्ट्रपति को विधानसभा का प्रस्ताव जारी करने के लिए राजी किया जाता है। संसद कार्यकारी और विधायी कार्यों पर नियंत्रण रखती है। फिर अनुच्छेद-370 के तहत आदेश पारित किया जाता है। सत्ता के दुरुपयोग का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा?
दवे ने कहा, केंद्र सरकार ने उल्लेख किया है कि 370 का निरस्तीकरण ‘राष्ट्रीय हित’ में किया गया था लेकिन जवाबी हलफनामे में यह उल्लेख नहीं है कि यह राष्ट्रीय हित क्या है।
दवे ने कहा कि इस विवाद को इस अदालत द्वारा एक नाजुक दृष्टिकोण से हल करने की आवश्यकता है। आज हम यह मान लें कि यह निर्णय राष्ट्रहित में है। कल सत्ता में बहुमत के साथ कोई अन्य राजनीतिक दल ऐसा निर्णय लेने का प्रयास कर सकता है जो राष्ट्रीय हित में नहीं हो सकता है। दवे ने कहा, एक बहुसंख्यकवादी सरकार को इस तरह की शक्ति देना कानून के शासन को नष्ट करना होगा।
दवे ने का तर्क दिया, बेशक, विद्रोह है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। उत्तर पूर्व भारत के कई राज्यों में विद्रोह है। हमने पंजाब में लंबे समय तक विद्रोह देख। अगर हम राज्यों को केंद्र शासित प्रदेशों में विघटित करना शुरू कर दें तो कोई भी राज्य नहीं बचेगा। उनका कहना था कि अनुच्छेद 370 को निरस्त करना हमारे संविधान की एक बहुत ही बुनियादी विशेषता (लोकतंत्र और संघवाद) पर प्रहार करता है। सुनवाई बृहस्पतिवार को भी जारी रहेगी।
(जे.पी.सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)