विपक्षी दलों की बहुप्रतीक्षित पटना शिखर बैठक केंद्र से मोदी सरकार को हटाने के साझा संकल्प की घोषणा के साथ सम्पन्न हो गयी। बैठक में कन्याकुमारी से कश्मीर तक-देश की लगभग डेढ़ दर्जन पार्टियों के नेताओं ने भाग लिया और लोकतंत्र व संविधान की रक्षा के लिए मिलकर लड़ने का ऐलान किया। मोर्चे की सारी modalities-कॉमन एजेंडा, संयोजक का नाम, राज्यवार सीटों के तालमेल आदि- के बारे में 10-12 जुलाई के बीच शिमला में मल्लिकार्जुन खड़गे की अध्यक्षता में होने वाली अगली बैठक में फैसला होगा।
इस तरह विनाशकारी मोदी राज के अंत के लिये व्यापकतम सम्भव विपक्षी एकता की वह चिरप्रतीक्षित राजनीतिक प्रक्रिया 23 जून को पटना में शुरू हो गयी, जिसका देश की आम जनता तथा लोकतांत्रिक ताकतें बेसब्री से इंतज़ार कर रही थीं।
यह शुरुआत उसी बिहार से हुई है जो देश में बदलाव के अनेक ऐतिहासिक आंदोलनों का साक्षी रहा है। क्या कल की बैठक ने भी ऐसे ही बदलाव की नींव रख दी है ?
कैसा संयोग था कि लोकतंत्र की रक्षा को समर्पित यह बैठक जिस मार्ग पर स्थित मुख्यमंत्री आवास में हो रही थी, वह उस जवाहर लाल नेहरू को समर्पित है जिनके बनाये धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ढांचे को तहस-नहस करने में मोदी ने 9 साल में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दूसरा बेहद अहम संयोग यह भी रहा कि बैठक की पूर्व संध्या पर वह विदेश की धरती पर भी अपनी सरकार के लोकतंत्र-विरोधी कारनामों को लेकर चौतरफा घिरे रहे। वाल स्ट्रीट जर्नल की अमेरिकी महिला पत्रकार द्वारा भारत में मानवाधिकारों, अल्पसंख्यकों पर दमन को लेकर पूछे गए सवाल पर मोदी को असहज और शर्मसार होना पड़ा, वे ” हमारे DNA में डेमोक्रेसी है ” की लफ्फाजी के अलावा कोई convincing जवाब नहीं दे सके।
कहते हैं, Well begun is half done ! इस कसौटी पर 23 जून की पटना बैठक पूरी तरह सफल रही। सच तो यह है कि आज के चंद महीनों पहले तक ऐसी किसी बैठक की कल्पना भी असम्भव थी, लेकिन असाधारण हालात ने असम्भव को सम्भव कर दिखाया। पटना की सफल बैठक अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है।
दरअसल पटना बैठक से जिस विपक्षी एकता का सूत्रपात हुआ है, वह महज कुछ नेताओं की कोशिशों और चिंता का परिणाम नहीं है, बल्कि चौतरफा लूट, तबाही और दमन के पर्याय मोदी-राज के अंत के लिए व्यापक जनता की एकता और बदलाव की आकांक्षा की अभिव्यक्ति है।
जाहिर है विपक्षी एकता का रथ किसी राजमार्ग पर निष्कंटक दौड़ने वाला नहीं है। अनेक अंदरुनी और वाह्य झंझावातों और तूफानों से टकराते हुए ही इसे आगे बढ़ना है।
आशा की जानी चाहिए कि जनता की लोकप्रिय आकांक्षा के दबाव तथा जनसमर्थन की ताकत के बल पर यह कारवां तमाम विघ्न बाधाओं को पार करते हुए अंततः लक्ष्य-बेध करने और अपनी मंजिल तक पहुंचने में कामयाब होगा।
पटना बैठक देश की राजनीति का निर्णायक क्षण है, जिससे शुरू हुई प्रक्रिया आने वाले दिनों में देश की राजनीति की धुरी बनने वाली है। इस बैठक से विपक्ष की राजनीति तो एक नए चरण में प्रवेश कर ही गयी है, सत्ता पक्ष की राजनीति भी अब इसी के इर्दगिर्द घूमने वाली है। यहां से आकार लेती विपक्षी गठबंधन की राजनीति की काट ही सत्ता पक्ष की भावी रणनीति का भी प्रस्थान बिंदु बनेगी।
दरअसल, व्यापक विपक्षी एकता ने ठोस आकार ग्रहण कर लिया और 400-450 सीटों पर भाजपा को विपक्षी गठबंधन के एक संयुक्त उम्मीदवार से मुक़ाबला करना पड़ गया, तो 2024 में मोदी की पुनर्वापसी असम्भव हो जाएगी।
इसीलिए अनायास नहीं है कि संघ-भाजपा खेमे में पटना बैठक का खौफ पूरी तरह छाया रहा। मोदी तो विदेश में हैं, पर अमित शाह ने बैठक के दौरान ट्वीट कर इसे विपक्षी नेताओं का फोटो सेशन करार दिया। उन्होंने शेखी बघारी, ” मोदी जी को हटाने के लिये विपक्षी बैठक कर रहे हैं, लेकिन उनका गठबंधन असम्भव है, और अगर वे एक हो भी गये तब भी 300 से ऊपर सीट पाने से हमें रोक नहीं पाएंगे।” अतीत के उनके ऐसे अनेक खोखले दावे लोगों को याद होंगे। बहरहाल Brave face maintain करने की यह कोशिश ही दिखा रही है कि घबराहट और डर कितना गहरा है !
ठीक इसी तरह 22 जून को छत्तीसगढ़ की रैली में उनके द्वारा मंच से पूछना कि, ” राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी में 2024 में प्रधानमंत्री कौन बनेगा ?” उनके इसी खौफ को बयान कर रहा है। संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में भी पटना बैठक को लेकर लेख छपे।
केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी, अनुराग ठाकुर, पूर्व मंत्री रविशंकर प्रसाद, उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, केशव प्रसाद मौर्य, सुशील मोदी आदि लगातार विपक्षी बैठक को लेकर हमलावर रहे। सारे विपक्षी नेताओं को एजेंसियों के निशाने पर लेने के बाद, देश का खजाना महाघोटालों में लुटाने वाले भाजपाई कह रहे हैं कि यह ठगों का गठबंधन बन रहा है!
जिस लोकतंत्र की रक्षा के लिए जेपी ने ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी और यातनाएं सही, उस लोकतंत्र को रौंदकर देश में फासीवादी निज़ाम थोपने वाले आज जेपी का वारिस बनने का ढोंग कर रहे हैं और उनके ऊपर चली लाठी और जेल की याद दिला रहे हैं।
भारत की संसदीय प्रणाली में दल चुनाव लड़ते हैं और बहुमत द्वारा प्रधानमंत्री तय होता है, लेकिन यहां अमेरिकी Presidential सिस्टम की तर्ज पर पूछा जा रहा है कि विपक्ष का नेता कौन है ! जबकि अतीत में अनेक बार बिना चेहरा घोषित किये गठबंधन विजयी हुए हैं और सरकार बना चुके हैं। लोकतंत्र में पूरी तरह अस्वीकार्य उनकी फासीवादी विचारधारा और राजनीति को कोई दो मिनट के लिए भूल भी जाय, तब भी 9 साल में मोदी-शाह ने आखिर कौन सी ऐसी योग्यता प्रदर्शित की है, जो विपक्ष के नेताओं के पास नहीं है? जहाँ तक गोदी मीडिया के बल पर जनता का खजाना लुटाकर गढ़े गए मोदी मैजिक की बात है, तो कर्नाटक चुनाव के बाद RSS भी उसकी सीमाबद्धता स्वीकार कर चुका है।
यह पटना बैठक का ही खौफ है कि तुरंत बाद, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा 24 जून को झंझारपुर और अमित शाह 29 जून को मुंगेर में रैली करने पहुंच रहे हैं।
पटना बैठक ने मोदी राज के अंत की वास्तविक संभावना पैदा कर दी है तो विपक्ष के सामने अभूतपूर्व चुनौतियां भी पेश कर दी हैं।
अपने राजनीतिक जीवन के सबसे बड़े संकट में घिरते मोदी-शाह आने वाले दिनों में इससे निपटने के लिए क्या करते हैं, इसकी ओर पूरे देश की निगाह है।
क्या देश-दुनिया में बढ़ते दबाव के चलते वे लोकतान्त्रिक मर्यादा में रहते हुए राजनीतिक लड़ाई लड़ेंगे अथवा विपक्ष के चक्रव्यूह से निकलने के लिए कुछ ‘ आउट ऑफ द बॉक्स ‘ ऐसे असाधारण कदम उठाएंगे जिससे पहले से ही संकटापन्न हमारा लोकतंत्र और समाज किसी और बड़े खतरे के भंवर में फंस जाएगा ?
आने वाले दिनों में विपक्षी एकता के मार्च को बाधित करने के लिए क्या क्या तिकड़म और साजिशें होंगी, तोड़फोड़ की कोशिश होगी, किन किन नेताओं पर कैसे कैसे दबाव बनाया जाएगा, ब्लैकमेल किया जाएगा, जेल में डाला जाएगा, यह सब तो अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन इतना तय है कि आने वाले महीने देश के लिए और विपक्ष के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण होने वाले हैं और यह लड़ाई बेहद तीखी होती जाएगी।
सम्भव है इसमें आज विपक्षी खेमे में दिखते कुछ जयचंदों की भी प्रत्यक्ष/परोक्ष मदद सत्तारूढ़ दल को मिले। केजरीवाल जैसों की पैंतरेबाजियाँ और अध्यादेश या पंजाब-दिल्ली की सीटों को लेकर unreasonable सौदेबाजी गठबंधन के भविष्य के लिए शुभ नहीं है।
बहरहाल चाहे संघ-भाजपा की राजनीतिक और साजिशी चुनौतियाँ हो या अंदरूनी शातिर चालें हों, विपक्ष अपने एकता अभियान को नीतिगत मुद्दों पर राष्ट्रीय पुनर्निर्माण तथा लोककल्याण के लोकप्रिय जनान्दोलन में तब्दील कर ही उनसे पार पा सकता है। जागृत जनगण की विराट एकता, उभार और तूफानी अग्रगति के आगे कोई भी राजसी साजिश टिक नहीं सकती।
पटना ने बड़े बड़े साम्राज्यों का उत्थान और पतन देखा है, वह हमारे राष्ट्रीय जीवन में बदलाव के अनेक ऐतिहासिक क्षणों का साक्षी रहा है। इसी पटना में आधी सदी पहले तानाशाही के ख़िलाफ़ बिगुल बजा था और देखते-देखते तब अपराजेय समझी जाने वाली इंदिराशाही का अंत हो गया था।
क्या इतिहास एक बार फिर अपने को दुहरायेगा और पटना से हुआ शंखनाद अंततः मोदी -शाही का अंत करेगा ?
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।।)