श्रीनिवास
बीते दिनों प्रधानमंत्री ने संसद में खूब गर्जना की। दो जुलाई को लोकसभा और तीन जुलाई को राज्यसभा में। दोनों दिन अपने दस साल के शासन का सबसे लंबा भाषण दिया। दो घंटे से अधिक, पर बोले क्या?
कहा जा रहा है कि मोदीजी लोकसभा में बोलते हुए राहुल फोबिया से ग्रस्त नजर आये। राहुल गांधी के पूरे खानदान का ‘कच्चा चिट्ठा’ खोलना भी प्रसंग से हटकर बात के बतौर देखी जा रही है।
तीन जुलाई को मोदी जी राज्यसभा में बोले। मगर अंदाज लगभग वही। वहां सामने राहुल नहीं थे, तो कांग्रेस को निशाने पर लिया। अंततः मणिपुर पर भी बोले। यह भी विपक्ष के निरंतर दबाव की उपलब्धि है। मगर इसलिए भी बोले कि बंगाल में महिलाओं पर हो रहे कथित अत्याचार का मुद्दा उठाना था। उनके अनुसार मणिपुर में हालात सुधर रहे हैं! मणिपुर में लगभग 13 माह से हिंसाग्रस्त और गृह युद्ध जैसे हालात बने हुए हैं, मगर प्रधानमंत्री बता रहे हैं कि अतीत में इससे भी बुरा हाल था, यानी साहेब संतुष्ट हैं।
लोकसभा में उनके भाषण में चुटकुलेबाजी को हैरानी का विषय समझा जा सकता है। विपक्षी नेताओं के किसी सवाल का ढंग से जवाब न देकर लगभग सारा समय राहुल गांधी पर खर्च कर दिया। नतीजा, सोशल मीडिया पर उनसे अधिक राहुल गांधी चर्चा में रहे।
शायद एक चिंता उनको यह भी सता रही हो कि उनका घटिया तंज अब उनके खिलाफ और राहुल के पक्ष में जाता दिख रहा है। सोशल मीडिया पर नजर रखने वाले बताते हैं कि राहुल गांधी के भाषण को मोदी जी के भाषण की तुलना में दस गुना लोगों ने सुना और देखा। तीन जुलाई पांच बजे शाम तक का डाटा है- मोदी 66 हज़ार, राहुल 6.5 लाख। शायद इसी कारण अब सोशल मीडिया पर लगाम कसने की तैयारी भी हो रही है। दिक्कत यह है कि जिसे कल तक पहचान नहीं रहे थे (कौन राहुल?), वह नेता प्रतिपक्ष बन गया है। कायदे से और परंपरा से वह प्रधानमंत्री के लगभग समकक्ष समझा जाता है।
मौका मिलता तो मैं मोदी जी से कहता- आप सदन में प्रधानमंत्री होने की हैसियत से मिली छूट का लाभ उठा कर राहुल गांधी या किसी का भी जितना भी मजाक उड़ा लें, पर सच यह है कि आप खुद हंसी के पात्र बन चुके हैं। सदन के बाहर, देश और विदेश में भी मजाक उड़ रहा है, और इसमें कोई साजिश नहीं है। राहुल गांधी को ‘पप्पू’ साबित करने के लिए तो आपकी जमात को लंबा और खर्चीला अभियान चलाना पड़ा। एक सीमा के बाद यह बेअसर भी हो गया। मगर आपने ऊटपटांग व हास्यास्पद कथनों से, अपनी हरकतों से खुद ही आलोचकों को मसाला दे दिया है। कार्टूनिस्टों, व्यंग्यकारों, हास्य कवियों के लिए भी आप आदर्श सब्जेक्ट बन गये हैं। समर्थकों को जितनी मिर्ची लगे, आम आदमी का भरपूर मनोरंजन हो रहा है। अब तो आपके अनेक कट्टर समर्थकों को भी आपका बचाव करने में दिक्कत होने लगी है। पता नहीं किस मूड में क्या सोच कर आपने कह दिया कि आप बायोलॉजिकल नहीं हैं, कि आपको ‘परमात्मा’ ने भेजा है! भारतीय समाज का बौद्धिक स्तर जैसा भी है, मगर कितने लोग इसे पचा सके होंगे? इसका तो मजाक उड़ना ही था, आप कुढ़ते रहिये, विपक्ष चुटकी लेता रहेगा।
आपने ‘शोले’ फिल्म का मौसी वाला चुटकुला सुना कर अपनी समझ से विपक्ष को धो दिया। राहुल गांधी के तीन बार ‘फेल’ हो जाने पर भी ‘मोरल विक्ट्री’ वाला चौका मार दिया। गणित के अपने विलक्षण ज्ञान से लोकसभा की सदस्य संख्या के हिसाब से कांग्रेस की सीटें गिना कर राहुल गांधी को ‘फेल’ घोषित कर दिया! आपको जनादेश मिला, टेक्निकली यह सही है, लेकिन कैसा जनादेश? आप तो ‘चार सौ पार’ जप रहे थे, ‘मोदी की गारंटी’ बेच कर ‘एक बार फिर मोदी सरकार’ बनवा रहे थे। मगर चार जून के बाद से आपलोगों ने ‘मोदी सरकार’ बोलना छोड़ दिया! उस दिन से आप ‘एनडीए एनडीए’ और गठबंधन धर्म की बात कर रहे हैं। आपने खुद अपने अनुयायियों (‘भक्तों’) से कह दिया कि अब कोई ‘मोदी का परिवार’ नहीं लिखेगा। ऐसा इसलिए हुआ कि लोकसभा में भाजपा के सांसदों की संख्या पिछली बार के मुकाबले 63 कम होकर 240 रह गयी। बहुमत से 32 कम। तो आप भी ‘पास’ कहां हुए जनाब? यह भी तो याद कर लेते कि आपके आदर्श अटल जी कितनी बार फेल होने के बाद पास हुए थे!
कांग्रेस (या राहुल गांधी) की मोरल विक्ट्री सिर्फ यह नहीं है कि वह 45 से 99 पर पहुंच गयी, यह है कि चार जून के बाद आप ‘एक अकेला, सब पर भारी’ कहने लायक नहीं बचे! दो बैसाखियों के सहारे हैं।
आपमें जमीनी हकीकत को स्वीकार करने की हिम्मत और नैतिकता होती, तो आपको याद रहता कि आप बनारस में महज डेढ़ लाख के अंतर से जीत सके। पिछली बार से जीत का अंतर करीब तीन लाख कम हो गया; उधर राहुल गांधी तीन लाख से अधिक के अंतर से जीते। तब यह हिसाब भी लगा पाते कि आपने कितने संसदीय क्षेत्रों में कितनी रैलियां कीं, कितने रोड शो किये और उनमें से कितनी सीटों पर कमल खिला।
बहरहाल, ऐसा लगता है कि राहुल गांधी के भाषण की एक बात इन लोगों को ज्यादा चुभ गयी। यह कि मोदी, भाजपा और आरएसएस ही हिंदू समाज नहीं है। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि यह हिंदू धर्म और समाज की उनकी ठेकेदारी के दावे पर प्रहार था। वह भी जोरदार लहजे में, भरी महफिल में, कथित ‘हिंदू ह्रदय सम्राट’ को इंगित करते हुए! कोई आश्चर्य नहीं कि इसे संसद के रिकॉर्ड से हटा दिया गया! मगर… यदि राहुल गांधी के भाषण का वह हिस्सा संसद की कार्रवाई पुस्तिका से हटा दिया गया, इसका मतलब यह हुआ कि आधिकारिक रूप से राहुल गांधी ने वैसा नहीं कहा था। तो उसी कथन का हवाला देकर ‘रागा’ के खिलाफ अभियान क्यों चल रहा है? उसी आधार पर अहमदाबाद में कांग्रेस के दफ्तर पर तोड़फोड़ करने भी आम हिंदू नहीं, भाजपा/ बजरंग दल के लोग ही गये थे। इस तरह महज 24 घंटे में राहुल की बात सच साबित हो गयी- आम हिंदू हिंसा नहीं करता है, बीजेपी वाले करते हैं!
राहुल गांधी को ‘सजायाफ्ता’ कहना तो सरासर गलत था। विपक्ष और राहुल गांधी को इसे चुनौती देनी चाहिए। इसके लिए सदन में प्रमाण देने की मांग करनी चाहिए। जिस मामले में किसी को अदालत से राहत या क्लीन चिट मिल गयी हो, उसका हवाला देकर आरोप लगाना यदि गलत नहीं है तो फर्जी मुठभेड़ के मामलों में आरोपी और तड़ीपार रहे अमित शाह को हत्यारा कहना भी गलत कैसे हो सकता है?
करन थापर ने एक साक्षात्कार में (जिसे मोदी बीच में छोड़ कर चले गये थे) जब गुजरात सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के जजों की टिप्पणियों का उल्लेख किया था, तब इन्होंने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतिम फैसले में यदि ऐसा कुछ कहा है, तो दिखाइये। यानी सुप्रीम कोर्ट के जज की मौखिक टिप्पणी का कोई महत्व नहीं है! लेकिन हाईकोर्ट के जिस फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया, उसके आधार पर आप किसी को दोषी कहते फिरेंगे! आरोप तो इन पर भी था और है- मुख्यमंत्री रहते हुए दंगों में पक्षपाती भूमिका का। कथित क्लीन चिट के बावजूद वह आरोप इन पर चिपका हुआ है, चिपका रहेगा। हालांकि उससे इनको फर्क नहीं पड़ता, उल्टे लाभ मिलता है! उसी कारण तो इनकी ‘हिंदू हृदय सम्राट’ की छवि बनी है, जो इनकी ‘लोकप्रियता’ की मूल वजह है। तभी तो ये भरे मंच से देश की करीब 15 फीसदी आबादी को ‘घुसपैठिया’ और ‘बाहरी’ कह देते हैं!
मगर याद रहे, आगे जब भी 18वीं लोकसभा की कार्यवाही का लेखा-जोखा होगा, राहुल गांधी के भाषण को नेता विपक्ष के रूप में सरकार को कटघरे में खड़ा करने के सटीक उदाहरण के रूप में याद किया जायेगा। साथ ही महुआ मोइत्रा के भाषण को एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में। मोदी जी का भाषण भी याद जरूर किया जायेगा, पर एक निम्न स्तरीय भाषण के रूप में!
अंत में प्रधानमंत्री से निवेदन और अपेक्षा- राजनीतिक विमर्श के स्तर को इस हद तक नीचे मत ले जाइये कि पक्ष- विपक्ष के बीच जरूरी संवाद का माहौल ही नहीं बचे! जैसे भी हो, आप जीते हैं, इसलिए इसका अधिक दायित्व भी आप पर है।