जवाहरलाल नेहरू ने आज़ादी के समय तमिलनाडु के अधीनम (शैव मठ) के पुराहितों के द्वारा सेंगोल को तो ले लिया, लेकिन उसके पीछे के विचार से असहमति के कारण उसको संग्रहालय में रखवा दिया, ताकि भविष्य में अध्येता यह समझ सकें कि भारतीय जनतंत्र का जन्म अनेक परस्पर विरोधी विचारों के बीच हुआ है.
अपूर्वानंद/ The Wire
जवाहरलाल नेहरू को इस बात से बड़ी निराशा होती कि उनकी मृत्यु के 60 साल गुजर जाने के बाद भी वे अपने देश में रोज़ाना किसी न किसी बहाने से चर्चा में लौट आते हैं.
कभी किसी के फूहड़पन को उजागर करने के लिए उनके परिष्कृत स्वभाव के उदाहरण दिए जाते हैं, कभी किसी के बड़बोलेपन की तुलना उनकी मितभाषिता से की जाती है, कभी किसी के आडंबर के आगे उनकी सहजता और सादगी का उदाहरण दिया जाता है. किसी की प्रायोजित लोकप्रियता की तुलना उनके प्रति जनता के सहज आकर्षण और स्वागत भाव से की जाती है.
इस तुलनात्मकता से भी नेहरू को उलझन होती, क्योंकि वे श्रेष्ठ की श्रेष्ठ से तुलना के पक्ष में ही थे. किसी की क्षुद्रता को उभारने के लिए अपनी उदात्तता का इस्तेमाल भी उन्हें चुभता.
जो दिन नेहरू की अंत्येष्टि का था या उनकी 59वीं बरसी का, उस दिन संसद के नए भवन के उद्घाटन के मौक़े पर भी नेहरू ही चर्चा के विषय बने रहे.
एक स्वर्ण दंड के बहाने जिसे सेंगोल कहा जाता है. यानी राजदंड या धर्मदंड. जो उन्हें 75 साल पहले 15 अगस्त के अवसर पर तमिलनाडु से आए कुछ पुराहितों ने भेंट किया था और जिसे इन पुरोहितों ने हिंदू अख़बार में विज्ञापन के ज़रिये प्रचारित भी किया था.
नेहरू ने शालीनतावश वह भेंट स्वीकार कर ली थी. उनसे बहस करने का वक्त उनके पास नहीं था कि सत्ता के दैवी अधिकार को वे स्वीकार नहीं करते. नेहरू के पास उस समय वैसे ही काफ़ी कुछ चिंता करने को था. इस भेंट को स्वीकार करके उन्होंने उसे भिजवा दिया, जहां उसकी जगह थी, यानी संग्रहालय में.
आज के भारत के सत्ताधारियों के मुताबिक़ ऐसा करके उन्होंने प्राचीन भारतीय परिपाटी या संस्कृति का अपमान किया था. उनके अनुसार सत्ता के दैवी अधिकार के उस प्रतीक को स्वाधीन भारत की सत्ता के केंद्र में, अर्थात संसद में प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए था, क्योंकि यह सेंगोल धर्म सत्ता की निरंतरता का प्रतीक है. नेहरू ने सेंगोल को संग्रहालय में डालकर उसका तिरस्कार किया, यह आरोप उनका है.
नेहरू इस आरोप को इस प्रकार तो नहीं, एक दूसरे रूप में स्वीकार करते. तिरस्कार नेहरू के स्वभाव के मेल का शब्द नहीं है, अस्वीकार अवश्य है. तिरस्कार तब होता जब वे सेंगोल को ग्रहण करने से ही इनकार कर देते. लेकिन जिस क्षण में यह सब कुछ हो रहा था, वह एक राष्ट्रीय सर्वानुमति स्थापित करने का क्षण था, विभाजन नहीं. पहले ही एक दूसरे रूप में विभाजन की चुनौती उनके सामने थी.
नेहरू को यह मालूम था कि समाज चेतना के अनेक स्तरों पर एक ही साथ रहता है. इन सबको ज़बरदस्ती एक स्तर पर लाने की हिंसा से नेहरू को वितृष्णा थी. मूर्खता को लेकर अधैर्य उनमें था, लेकिन मनुष्य के प्रति एक बुनियादी सम्मान का भाव भी था.
फिर यह नहीं भूलना चाहिए कि उनके सबसे बड़े गुरु और मित्र गांधी ने मानवीय विचित्रताओं के प्रति सहनशीलता में उन्हें प्रशिक्षित भी किया था. जिन सनातनियों को नेहरू मोटी अक़्ल का मानते थे, उनसे सर खपाते गांधी का श्रम और धीरज नेहरू ने देखा था.
इसलिए नेहरू ने तमिलनाडु के अधीनम (शैव मठ) के पुराहितों के द्वारा सेंगोल को तो ले लिया, लेकिन उसके पीछे के विचार से असहमति के कारण उसको संग्रहालय में रखवा दिया, ताकि भविष्य में अध्येता यह समझ सकें कि भारतीय जनतंत्र का जन्म अनेक परस्पर विरोधी विचारों के बीच हुआ है. उनके साथ संघर्ष करते हुए, क्योंकि वे पारंपरिक रूप से ताकतवर बने हुए थे और वह संघर्ष कभी पूरी तरह ख़त्म नहीं होगा, क्योंकि कोई भी विचार पूरी तरह ख़त्म नहीं होता.
सत्ता के दैवी अधिकार का विचार भी ऐसा ही है. आख़िर डॉक्टर आंबेडकर ने सावधान किया ही था कि भारतीय संविधान का बीज सामाजिक रूप से जनतंत्रविरोधी भूमि में रोपा जा रहा था. उस ज़मीन को तोड़ने और जनतांत्रिक विचारों के लिए अनुकूल बनाने का संघर्ष आगे पड़ा हुआ था.
यह मान लेना ख़तरनाक हो सकता था कि जनतंत्र अपने आप ही जड़ जमा लेगा. इसे कई बार देखा गया, तब जब हिंदू महिलाओं के अधिकारों के लिए हिंदू कोड बिल को पारित करने के वक्त आरएसएस, जनसंघ और हिंदू रूढ़िवादियों ने विरोध किया और उसे रोकना पड़ा.
इसके पहले कि हम सेंगोल प्रसंग के बहाने नेहरू की दृष्टि पर बात करें, थोड़ी देर इस पर ठहरें. इस घटना को इस प्रकार प्रचारित किया गया कि 14 अगस्त को जब सत्ता का हस्तांतरण ब्रिटेन से भारत को किया जाना था, उसका अनुष्ठान किस प्रकार हो, यह सवाल तत्कालीन वायसराय माउंटबेटन के दिमाग में आया.
उन्होंने नेहरू से पूछा. नेहरू ने राजा राजगोपालाचारी से पूछा कि क्या करें! राजाजी ठहरे तमिलनाडु के. सो उन्होंने चोल राजाओं में सत्ता के प्रतीक सेंगोल तैयार करवाया. उसे लेकर विशेष हवाई जहाज़ से ये पुजारी दिल्ली आए, फिर उसे माउंटबेटन को अर्पित किया, जिन्होंने उसे नेहरू को प्रदान किया.
इस पूरे प्रसंग में सच यह है कि अधीनम के पुजारियों ने समारोहपूर्वक नेहरू को यह सेंगोल दिया. बाक़ी सब झूठ है. न तो माउंटबेटन ने नेहरू से सत्ता के हस्तांतरण के अनुष्ठान के विषय में कुछ पूछा, न राजाजी से नेहरू की कोई चर्चा हुई और न राजाजी ने किसी से सेंगोल निर्माण के लिए कहा.
14 से 15 अगस्त के हर क्षण की तस्वीरें हैं, हर पल का रिकॉर्ड या सबूत है. अधीनम जब नेहरू के साथ अपने पुरोहितों की तस्वीर का विज्ञापन छपवा सकता था तो वह माउंटबेटन के साथ अपनी तस्वीर नहीं प्रचारित करता, यह अकल्पनीय है. वैसे ही आधिकारिक रिकॉर्ड में न तो ऐसी तस्वीर होगी, न उसकी कोई रिपोर्ट, यह भी अविश्वसनीय है.
जो लोग डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत को इसलिए नहीं मानते कि बंदर से आदमी बनने का कोई प्रमाण नहीं, कोई फोटो नहीं; वे यह कह रहे हैं कि इस मामले में हम उनकी बात को ही प्रमाण मान लें.
बहरहाल! इस पूरी कहानी को गढ़ने के पीछे का मक़सद सिर्फ़ यह है कि इस बात को आज के हिंदू समाज से छिपाया जाए कि 75 साल पहले भारत के रूढ़िवादी हिंदुओं के एक हिस्से में भी नेहरू के प्रति सम्मान और आदर था, यह जानते हुए कि नेहरू उनके विचारों से क़तई सहमत नहीं.
वे नेहरू से ही स्वीकृति चाहते थे. अगर सेंगोल-नेहरू प्रसंग का कोई अर्थ है तो वह यही है. उन्होंने वह सेंगोल न तो सावरकर को दिया, न राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक को. उन्होंने अपनी रूढ़िवादी दृष्टि से भी दैवी सत्ता का अधिकारी नेहरू को ही माना.
लेकिन यह सच है कि नेहरू ने अपनी शालीनता के बावजूद सेंगोल को संग्रहालय की वस्तु ही माना. जैसे राजशाही अतीत की वस्तु ही हो सकती थी. अंग्रेजों के भारत से विदा होने की खबर से भारत की राजशाहियों में यह लोभ पैदा हो गया था कि अब वे फिर से अपना राज क़ायम कर लेंगे.
वे हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सावरकर जैसे लोगों के साथ मिलकर इसकी योजना भी बना रहे थे कि किस प्रकार वे अपनी राजसत्ता हासिल करें. उनके रास्ते में बाधा थी वह गणतांत्रिक चेतना, जो स्वाधीनता आंदोलन के दौरान विकसित हुई थी. जिसके मुताबिक़ सत्ता का स्रोत सिर्फ़ जनता हो सकती थी, कोई दैवी आज्ञा नहीं.
नेहरू नहीं, ये गांधी थे जो बार-बार इस समय रियासतों के राजाओं को चेतावनी दे रहे थे कि बेहतर हो कि वे सत्ता पर जनता के अधिकार को स्वीकार कर ख़ुद भी उसी जनता की संप्रभुता को सर्वोपरि मानें. समय गुजरने के साथ गांधी का स्वर सख़्त होता जा रहा था और राजशाहियों की गांधी से घृणा का एक कारण यह जनता ही सत्ता का स्रोत है, दैवी विधान नहीं, यह नेहरू का ही नहीं भारत के स्वाधीनता आंदोलन में शामिल अधिकतर लोगों का विचार था. यह विचार उनका भी था जो आस्तिक या धार्मिक थे, जैसे महात्मा गांधी या राजाजी या सरदार पटेल या मौलाना आज़ाद.
जनता की संप्रभुता और उसके अधिकार के अनुल्लंघनीय होने का विचार संविधान सभा में नेहरू द्वारा पेश बुनियादी प्रस्ताव में ही था, जिसमें स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि स्वतंत्र और संप्रभु भारत की सारी शक्तियों का स्रोत जनता होगी. संविधान भी भारत के लोगों ने ही ख़ुद को दिया था, किसी दैवी सत्ता ने नहीं.
इस कारण यह असंभव था कि इससे भिन्न किसी भी विचार को व्यक्त करने वाले प्रतीक को नेहरू संसद या किसी वैसी जगह प्रतिष्ठा देते. सेंगोल को भी उसका उचित कोना दिया गया.
ऐसा नहीं, जैसा प्रचारित किया जाता है कि नेहरू भारत के अतीत से पूरी तरह कटे हुए थे और उनकी संवेदना पाश्चात्य संस्कारों में दीक्षित थी.
भारत के राष्ट्रध्वज पर चरखे की जगह उसके सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्से यानी चक्र के लिए नेहरू ने सारनाथ की अशोक की लाट से चक्र को चुना, जो गांधी के चरखे के श्रम के साथ शांति के मूल्य का प्रतीक है. उसी तरह राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अशोक की लाट को चुना गया, जिसमें चारों दिशाओं में चार सिंहमुख हैं. उसके नीचे मुंडकोपनिषद से ध्येय वाक्य चुना गया, ‘सत्यमेव जयते’.
यह सब कुछ जवाहरलाल नेहरू का चुनाव था भारतीय अतीत और परंपरा से उन प्रतीकों का जो आधुनिक जनतांत्रिक और गणतांत्रिक चेतना को गहराई दे सकते हैं और जनता को यह भी बतला सकते हैं कि इस चेतना की एक प्रकार की निरंतरता हमारी संस्कृतियों में रही है.
नेहरू की प्रतीकात्मकता के प्रति सावधानी इन चुनावों में देखी जा सकती है. सेंगोल किसी भी प्रकार गणतांत्रिक चेतना का प्रतीक नहीं हो सकता था, क्योंकि वह जनता की जगह किसी दैवी शक्ति को प्राथमिकता देता है.
आरएसएस का आरोप है कि नेहरू ने भारतीय संस्कृति का तिरस्कार किया और उसके सारे चिह्नों को बहिष्कृत कर दिया. नेहरू की भारतीय अतीत के प्रति उत्सुकता का प्रमाण उनकी पुस्तक ‘भारत की खोज’ है. वे विनम्रतापूर्वक लिखते हैं कि जैसे-जैसे वक्त गुजरा, यह मुल्क उनके आगे खुलता गया. फिर भी उसका काफ़ी कुछ उन्हें रहस्य मालूम पड़ता है.
यह एक ऐसा व्यक्ति ही कह सकता है जिसे इसका दंभ नहीं कि वह उसे पूरी तरह जानता है. लेकिन उन्हें यह भी मालूम है कि स्वतंत्र भारत जिस गणतंत्र के रूप में ख़ुद को निर्मित करना चाहता है, उसके लिए उन्हें इन परंपराओं से वे ही तत्त्व ले सकते हैं, जो जनता की संप्रभुता को किसी के अधीन करें.
यह ठीक ही है कि सेंगोल के बहाने एक बार फिर नेहरू के मूल्यबोध की हम छानबीन करें और ख़ुद तय करें कि हम इस प्रहसनवादी सरकार के साथ हैं या नेहरू के साथ. इससे हमारे बारे में भी कुछ मालूम होगा.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)