July 27, 2024

 विक्रम सिंह 

28 मई को नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में प्रधानमंत्री ने देश में एक बड़ी लकीर खींच दी है। इसके तमाम पहुलओं के बारे में काफी चर्चा हो चुकी है। एक धर्मनिरपेक्ष देश के प्रधानमंत्री ने धर्मनिरपेक्षता की मूल अवधारणा की धज्जियां उड़ा दीं। यह एक बेहद ही सटीक उदाहरण है धर्मनिरपेक्षता को गलत तरीके से परिभाषित और लागू करने का। आज धर्मनिरपेक्षता की असल अवधारणा को समझना और दोहराना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।

आज हमारा देश ऐसी स्तिथि में कैसे पहुंचा? यह परिणाम है उस वातावरण का जो पिछले कुछ वर्षो में भारत में निर्मित किया गया है। एक ऐसा वातावरण जो बहुसंख्यक साम्प्रदायिक राजनीति की फसल है। जहां बहुत मुश्किल हो गया है धर्मनिरपेक्ष रहना और अपने आप को धर्मनिरपेक्ष बताना। इससे भी ज्यादा कठिन है धर्मनिरपेक्षता को लागू करना क्योंकि अगर आप ऐसा करते हैं तो आपको सही को सही और गलत को गलत कहना होगा और खंडन करना होगा उन घटनाओं का जिसके हम साक्षी बन रहे हैं चाहे उनका नेतृत्व स्वयं नरेंद्र मोदी ही क्यों न कर रहे हों। लेकिन इसके लिए पिछले निज़ाम भी जिम्मेवार है जिन्होंने भारत में  धर्मनिरपेक्षता को सही तरीके से कभी लागू ही नहीं किया ।

हम सब जानते हैं धर्मनिरपेक्षता का सीधा सा मतलब है धर्म से निरपेक्ष रहना अर्थात धर्म के मामले में कोई हस्तक्षेप न करना। व्यक्ति या समुदाय की जो आस्था या धर्म हो उसे बिना बाध्यता के उसके अनुसार आचरण करने की छूट प्रदान करना ही धर्मनिरपेक्षता है। धर्मनिरपेक्षता शब्द का सबसे पहले प्रयोग जॉर्ज जैकब होलीयॉक नामक व्यक्ति ने सन् 1846 में किया था। यह धर्म की साधारण व्याख्या है क्योंकि इस लेख का मकसद धर्मनिरपेक्षता कि परिभाषा पर चर्चा करना नहीं है।

2019 में छपी पुस्तक ‘धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र को सांप्रदायिक खतरा’ में राम पुनियानी लिखते है, “एक अर्थ में धर्मनिरपेक्षता आधुनिक राष्ट्र-राज्य की नींव है। धर्मनिरपेक्षता वह विचारधारा है, जो मानवों को धर्म की विचारधारा से आज़ाद करती है। धर्मनिरपेक्षता ने मनुष्यों को उस अंधश्रद्धा से मुक्ति दी जो चर्च ने उन पर लादा थी। चर्च का उद्देश्य था राजाओं के शासन को दैवीय वैधता प्रदान करना ताकि वे किसानों का भरपूर शोषण कर अपने खज़ाने भरते रहें”। बहुत लोगों का कहना है कि धर्मनिरपेक्षता का भारतीय सन्दर्भ पश्चिमी परिभाषा से बहुत अलहदा है।

भारतीय सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता को समझने के लिए संविधान को समझना पड़ेगा। हमारे संविधान ने धर्मनिरपेक्षता के लिए बहुत ही स्पष्ट तरीके से अलग-अलग अनुच्छेदों में ठोस प्रावधान किये हैं। भारत के संविधान निर्माताओं ने संविधान निर्माण के समय किसी भी धर्म को राज्य के अधिकारिक धर्म की मान्यता नहीं दी। इसका मतलब है कि सरकार का कोई धर्म नहीं होगा। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण फैसला था वो भी उस समय जब पाकिस्तान ने एक धार्मिक राष्ट्र का रास्ता अपनाया। भारत में भी हिन्दुत्व की राजनीती करने वाले लोगों ने देश कि नींव धार्मिक आधार पर रखने की मांग की जिससे संविधान सभा ने ख़ारिज कर दिया। आज हमें समझना होगा की इस विचार की निर्णायक हार पहले ही हो चुकी है। जब हमने अपने संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों से संबंधित अनुच्छेद-14, 15, 25, 26, 27 और 28 में धर्म से संबंधित तमाम तरह के प्रावधान भी किए हैं।

अनुच्छेद-14 सभी नागरिकों को ‘अवसर की समानता और समान सम्मान’ की बात करता है, तो अनुच्छेद-15 धर्म, जाति, लिंग, नस्ल आदि के नाम पर होने वाले भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। अनुच्छेद-25 धर्म, अन्तःकरण और विश्वास की स्वतंत्रता प्रदान करता है, जिसका प्रयोग करके कोई भी नागरिक अपना धर्म तक बदल सकता है।  अनुच्छेद-26 जहां अल्पसंख्यकों को अपने ‘धार्मिक मामलों को मैनेज’ करने का अधिकार देता है, वहीं अनुच्छेद-27 सरकार को किसी धर्म विशेष के प्रचार प्रसार के लिए किसी भी प्रकार का टैक्स इकट्ठा करने से मना करता है।

अगर हम अपने संविधान की व्याख्या को मानें तो सरकार को धार्मिक मामले में तटस्थ रहना चाहिए। हमारे नेताओं की अपनी धार्मिक मान्यताएं तो हो सकती हैं परन्तु हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों और सरकारों को धार्मिक मामलों से बिलकुल अलग रहना चाहिए। इसे समझे तो बड़ी आसानी से कोई भी कह सकता है कि जब अयोध्या में राम मंदिर को लेकर हुए समारोह में सरकार और प्रधानमंत्री ने भागीदारी की थी तो वह गलत था और संविधान की मूल धारणा के खिलाफ था। लेकिन हमारे यहां न केवल प्रधानमंत्री इसमें शामिल हुए बल्कि इसे बड़े प्रचार की तरह उपयोग किया गया।

धर्मनिरपेक्ष देश की जनता को यह दिखाने का प्रयास किया गया कि यह संभव ही नरेंद्र मोदी और भाजपा के कारण हो पाया था। क्या विडम्बना है कि बाकी राजनितिक पार्टियों द्वारा इसका विरोध तो दूर लेकिन उनमें तो राम मंदिर बनाने का श्रेय लेने की होड़ लगी नज़र आई। सैद्धांतिक बात तो छोड़ ही दीजिये लेकिन किसी पार्टी ने इतनी जिम्मेवारी भी नहीं समझी थी कि महामारी के समय इतने बड़े धार्मिक जमावड़े पर ही चिंता ही जता देती। केवल वामपंथी पार्टियां अपनी बात पर अडिग रहीं और जनता में दोनों खतरों (भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र से खिलवाड़ और महामारी में धार्मिक समारोह से संक्रमण का डर) पर अपनी बात खुले और निर्भीक तरीके से लेकर गयी।

भारत में धर्मनिरपेक्षता का मतलब लिया जाता है ‘सर्वधर्म समभाव’, जिसका मतलब है सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखना। सरकार भी इसे ही लागू करती है और धार्मिक मामलों से तटस्थ रहने की बजाय सभी धर्मों के प्रोत्साहन का दावा करती है। यहीं से समस्या पैदा होती है क्योंकि हमारे देश में धर्म के नाम पर राजनीति होती है और मतदाताओं को भी धार्मिक आधार पर आकर्षित करने का प्रयास किया जाता है। नेताओं  के भी अपने धार्मिक मत होते हैं और जब सरकार चलाने वाले नेता धार्मिक मामलो में हस्तक्षेप करते हैं तो निरपेक्षता बरक़रार नहीं रखी जा सकती। संसद भवन के उदघाटन में तो यह बहुत स्पष्ट हो गया। कहने के लिए तो प्रधानमंत्री ने भी धर्मनिरपेक्षता ओढ़ रखी थी। कार्यक्रम में 12 धर्मों की 12 प्रार्थनाएं की गईं लेकिन असल में जो हुआ पूरे देश ने देखा। यह देश के जनवादी प्रतिनिधियों का संसद कम धर्म संसद ज्यादा लग रहा था। सर्व धर्म के नाम पर विशेष धर्म को पूरे कार्यक्रम पर थोपा गया।

हमारे यहां तो सरकार धार्मिक मामलों में धन का आवंटन भी करती है। हालांकि तर्क दिया जाता है कि सरकार सब धर्मों के लिए बराबर धन देती है लेकिन यह हकीकत नहीं है। इसी समझ के कारण संविधान के अनुच्छेद-27 का मतलब यह निकाला गया कि किसी खास धर्म को जनता के टैक्स के पैसे से प्रोत्साहन न देने का मतलब यह है कि किसी खास धर्म को नहीं, बल्कि सभी धर्मों के लिए धन खर्च किया जाए। इस समझ की पोल तो तभी खुल जाती है जब मुझ जैसा कोई नास्तिक प्रश्न पूछता है कि मेरे दिए गए टैक्स से कैसे किसी धार्मिक क्रियाकलाप को प्रोत्साहित किया जा सकता है। संविधान के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर किसी भी सरकार के पास नहीं है।

एक समय था जब जवाहरलाल नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता की सही अवधारणा पर अडिग रूख अपनाया था जब सोमनाथ मंदिर के लिए सरकारी खजाने से कोई फण्ड नहीं दिया गया था और इसके लिए निजी धन जुटाया गया था। नेहरू जी की समझ थी सरकारी खजाने से किसी भी धार्मिक स्थल पर कोइ खर्च नहीं होगा। उन्होंने तो देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को मंदिर के उद्घाटन में शामिल होने के लिए भी मना कर दिया था। आज उसी देश में प्रधानमंत्री धार्मिक कार्यक्रमों में न केवल शामिल होते हैं, इसे बड़े स्तर पर प्रचारित कर साफ़ सन्देश देते हैं।

हालांकि सरकारें सामान्यता धार्मिक मामलों पर किये जाने वाले खर्चों को यह तर्क देकर सही ठहराती है कि यह धर्म पर खर्च नहीं है बल्कि संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए कर रही है। इस तर्क की तो भाजपा को महारत हासिल है, भारत की संस्कृति के बारे में उनका यह राजनितिक अभियान का हिस्सा है और वह इतने विविधता वाले देश की संस्कृति को केवल एक धर्म और उसमे भी कुछ ऊंची जातियों की संस्कृति तक सीमित कर देते हैं।

इस बारे में मुंशी प्रेमचंद जी ने 1934 में ही अपने एक लेख ‘साम्प्रदायिकता और संस्कृति’ में हमें चेताया था, “साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है।“ यह सब हथकंडे है धर्म की राजनीति करने के और जनता की धार्मिक भावनाओं का राजनितिक फायदा उठाने के।

पिछली सरकारों द्वारा धर्मनिरपेक्षता की इसी अवधारणा को भारत में लागू किया गया है, जनमानस में भी इसी को प्रचारित किया गया है। इसी के कारण आज भाजपा को मौका मिला है अपनी राजनीति को चरम पर ले जाकर लोगों के दिमाग में संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ ही नफरत पैदा करने का। इस पूरी समझ का भारत की जनता पर गहरा असर पड़ा है। अब भारत में स्थिति यह है कि धर्म हमारे सामाजिक जीवन में और धार्मिक पहचान हमारे सार्वजनिक जीवन में इस हद तक रच बस गई है, कि हर व्यक्ति की अपनी एक धार्मिक पहचान बन गई है। यह धार्मिक पहचान अगर लोगों में वैमनस्य की भावना न भी जगाए तो भी अलगाव की भावना तो पैदा ही कर देती है और स्थिति यह होती है कि लगभग हर व्यक्ति को अपने धर्म वाला ’’अपना’’ और दूसरे धर्म वाला ’’पराया’’ लगता है।

सामान्य परिस्थितयों में हम इसे शायद समझ नहीं सकते लेकिन इस अवधारणा का फायदा जब साम्प्रदायिक ताकतें उठाती हैं और जनता उसका विरोध नहीं करती बल्कि उनको इसमें कुछ अजीब ही नहीं लगता तो इसके गंभीर परिणाम होते हैं। यही आज भारत में हो रहा है। मोदी जी के नेतृत्व में खुले तौर पर धर्म की राजनीति देश में हो रही है, राज्य के सभी अंग इसमें लिप्त हैं, सरकारी चैनलों पर धार्मिक समारोह का सीधा प्रसारण हो रहा है, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के साथ आरएसएस मुखिया बैठे हैं और लोगों के लिए इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है। यह एक जहरीली बीमारी है जो धीरे धीरे हमारे सामाजिक जीवन में घर कर गई है।

इसका प्रभाव तो देखिये एक ऐसा उन्मादी वातावरण का निर्माण हुआ है कि राजनितिक पार्टियां भी इसी बयार में बह गई हैं, तथाकथित प्रगतिशील लोग भी समझ नहीं पा रहे हैं और एक बड़ा हिस्सा डर से बोल ही नहीं पा रहा है। संविधान निर्माताओं ने इस स्थिति की कल्पना से बचने के लिए ही संविधान में इतने स्पष्ट प्रावधान किये थे और हमने भी धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के प्रचार का बीड़ा उठाया था। हालांकि सरकारें कभी भी इसको सही से लागू नहीं कर पाईं लेकिन धर्मनिरपेक्षता को हमारे सार्वजानिक जीवन में एक मूल्य तो समझा ही जाता है। इसी के चलते साम्प्रदायिक पार्टियां भी कभी धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ नहीं बोलती थीं।

लेकिन पिछले वर्षो में स्तिथि बदली है जब मीडिया और सरकारी बुद्धिजीवी धर्मनिरपेक्षता का मज़ाक ‘सिकिलूर’ और धर्मनिरपेक्षता की बात करने वालों का ‘सिकिलूरिस्ट’ शब्द प्रयोग करके उपहास उड़ाने लगीं। अब आलम यह है कि धर्मनिरपेक्षता एक मूल्य के रूप में पहचान ही खोती जा रही है। ‘डाउन विद सेकुलरिज्म’ पिछले दिनों यह शब्द एक फेसबुक पोस्ट पर कॉलेज के एक सहायक प्रोफेसर ने लिखे थे जो अपने आप में भारत में बदलते मिजाज़ को बयां करते हैं। धर्मनिरपेक्षता जिसके बारे में हमें अभी तक स्कूलों में एक अच्छे गुण के रूप में पढ़ाया जाता रहा है। एक तथाकथित अध्यापक समानता के इसी गुण के नाश का नारा दे रहा है। यह श्रीमान जी अकेले नहीं हैं, इनकी पूरी फ़ौज है जो इस नए भारत के निर्माण का दम भरते हैं, अपने आप को स्वंसेवक संघ का प्रचारक बताने वाले भारत के प्रधानमंत्री जी।

यह कमेंट फेसबुक पर इसी चर्चा पर आया था कि नई शिक्षा निति के दस्तावेज में धर्मनिरपेक्षता शब्द ही गायब है। इस पर जिस अंदाज में हमारे मित्र ने उस पर डाउन विथ सेकुलरिज्म के नारे का उद्घोष किया है वह हमारे देश के बारे में बड़ी चिंता पैदा करता है। ऐसे में प्रगतिशील लोगों को आगे आना होगा और सिद्धांत और व्यव्हार में धर्मनिरपेक्षता को ठीक तरीके से परिभाषित करना होगा।

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ  है कि धर्म लोगों के सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका न निभाए। लोग अपनी स्वयं की पहचान को धर्म से इतर रखें और मूल्यों, परम्पराओं को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर परखें। निसंदेह यह कार्य यांत्रिक तरीके से या बलपूर्वक ढंग से नहीं हो सकता है। कमोबेश सभी धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक देशों में धर्म एक महत्वपूर्ण नागरिक अधिकार है। लोग स्वतंत्र है कि वे सार्वजनिक तौर पर भी अपनी धार्मिक पहचान के साथ रहें। ऐसे में, लोग अपने सार्वजनिक जीवन में अपनी मर्ज़ी से धार्मिक पहचान के बिना भी रहें, यह लोगों की चेतना का स्तर उठा कर ही इसे किया जा सकता है। वर्तमान दौर में यह मुश्किल काम है लेकिन भारत को भारत बनाये रखने के लिए हमें यह बीड़ा उठाना ही होगा।

( विक्रम सिंह अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं।)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *