November 24, 2024

सरकार के जिस कदम से देश का नुक़सान हो, उसकी आलोचना ही देशहित है. ‘न्यूज़क्लिक’ की सारी रिपोर्टिंग सरकार के दावों की पड़ताल है लेकिन यही तो पत्रकारिता है. अगर सरकार के पक्ष में लिखते, बोलते रहें तो यह उसका प्रचार है. इसमें पत्रकारिता कहां है?

गांधी जयंती की अगली सुबह थी. लिखने की कोशिश कर रहा था कि 2 अक्तूबर को किस तरह गांधी को याद किया गया. उनके जीवन और राजनीति के किन पक्षों पर बहस की गई. पुणे में ‘लोकायत’ के अपने मित्र नीरज जैन से फोन करने की सोच रहा था कि पिछले दिन धीरेंद्र झा के गांधी की हत्या पर व्याख्यान की श्रोताओं में क्या प्रतिक्रिया हुई. दिनकर की बापू पर कविता को बगल में रखा ही था. इतने में शबनम हाशमी का संदेश फोन पर दिखा: पत्रकार भाषा सिंह के घर पुलिस पहुंच गई है. कह रही है: यूएपीए के मामले में जांच करनी है.

सुबह का 6 बजा था. भाषा को फोन किया. उन्होंने कहा, ‘एक पुलिस की वर्दी में है, बाक़ी सादे कपड़ों में. दिल्ली पुलिस या एनआईए, मालूम नहीं.’  वकील मित्रों को फोन करना शुरू किया. घंटी बजती रही. अभी तो क़ायदे से सुबह भी नहीं हुई थी.

भाषा ऑनलाइन समाचार संस्था ‘न्यूज़क्लिक’ के साथ काम करती हैं. ‘न्यूज़क्लिक’ पर सरकार का हमला पिछले तीन साल से चल रहा है. इसके संस्थापक प्रबीर पुरकायस्थ के ख़िलाफ़ तो पिछले तीन बरस से भारत सरकार की कई एजेंसियां काम कर रही हैं. उनके घर पर छापा पड़ चुका है. वे और उनकी संगिनी कथाकार गीता हरिहरन उन्हें लगातार झेल रही हैं. मुझे लगा, भाषा के पास इसी वजह से पुलिस पहुंची होगी. मैंने गीता को फोन किया. उन्होंने कहा, ‘मैं बात नहीं कर सकती क्योंकि पुलिस मुझसे और प्रबीर से पूछताछ कर रही है.’

फिर वकील मित्र को फोन किया. उन्होंने बतलाया कि वे अपने सहयोगियों को भाषा के घर भेज चुकी हैं.

इस बीच शबनम से फिर बात हुई और मालूम हुआ कि सोहेल हाशमी के घर भी पुलिस पहुंची है. फोन आने लगे कि पत्रकार उर्मिलेश, अभिसार शर्मा, अनिंद्यो, परंजय गुहा ठाकुरता के घरों पर पुलिस के दस्ते मौजूद हैं. वैज्ञानिक डी. रघुनंदन के घर भी.

और किसके किसके घर पुलिस पहुंची, मालूम करना मुश्किल हो गया. यह ज़रूर समझ में आ गया कि न्यूज़क्लिक में काम करने वालों या उनसे जुड़े लोगों पर पुलिस का छापा पड़ रहा है. लेकिन सोहेल साहब का तो न्यूज़क्लिक के साथ कोई लेना-देना नहीं!

किसी से संपर्क नहीं किया जा सकता था क्योंकि पुलिस ने सबके फोन ज़ब्त कर लिए थे.

दिन में आलोचना की क्लास थी. बाहर सरकार के आलोचकों पर पुलिस के छापे पड़ रहे थे. फिर क्लास में साहत्यिक आलोचना कैसे पढ़ाई जाए? विद्यार्थियों को बतलाया कि आलोचना निरापद नहीं होती. न साहित्य में, न समाज में. आलोचक को वास्तविक ख़तरे उठाने पड़ते हैं. यह आज दिल्ली में दिखलाई पड़ रहा है.

‘न्यूज़क्लिक’ के साथ कुछ हो सकता है, यह आभास कुछ रोज़ पहले ही हो गया था जब ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में एक लेख छपा जिसमें बतलाया गया कि श्रीलंकाई मूल के एक पूंजीपति नेविल रॉय सिंघम ने इस मीडिया संस्था को आर्थिक सहायता दी है. अख़बार में सिंघम को चीन समर्थक बतलाया गया. बल्कि यह कि वे पूरी दुनिया में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रचार के लिए पैसा देते हैं. टाइम्स के मुताबिक़ ‘न्यूज़क्लिक’ भी इस चीनी प्रचार तंत्र का हिस्सा है.

बाक़ी मामलों में ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को भारत विरोधी बतलाने वाले भारत सरकार के मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के नेता अनुराग ठाकुर ने अगले ही दिन इस रिपोर्ट का हवाला देते हुए आरोप लगाया कि सिंघम, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी, ‘न्यूज़क्लिक’ और कांग्रेस पार्टी मिलकर भारत विरोधी साज़िश कर रहे हैं. ‘न्यूज़क्लिक’ ख़बर के नाम पर झूठ फैला रहा है. भाजपा के सांसद निशिकांत दुबे ने न्यूयॉर्क टाइम्स के दावे पर संसद में चिंता ज़ाहिर की.

‘न्यूज़क्लिक’ ने कभी भी छिपाने की कोशिश नहीं की है कि सिंघम से वह आर्थिक सहायता ले रहा था. इसमें कुछ भी छिपाने जैसा न था. क़ानूनन तरीक़े से यह पैसा लिया गया. रिज़र्व बैंक की अनुमति के बिना यह हो नहीं सकता था. यह सब कुछ सरकार की जानकारी में है. फिर न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट कौन सा रहस्योद्घाटन कर रही थी?

लेकिन यह प्रश्न इसलिए बेमानी हो जाता है कि इसे भारत की मीडिया के बड़े मंचों ने एक सनसनीख़ेज़ पर्दाफाश के तौर पर पेश किया: न्यूज़क्लिक ने चीनी पैसा लेकर भारत विरोधी साज़िश की. इसके बाद कौन यह पूछने जाएगा कि सिंघम का पैसा चीनी नहीं है. उसे अपनी अमेरिकी कंपनी ‘थॉटवर्क्स’ को बेचकर जो पैसा मिला है उससे वह दुनिया में अपने अनुसार प्रगतिशील काम करने वालों की सहायता करता है.

‘न्यूज़क्लिक’ को सिंघम से आर्थिक सहायता मिलती है, यह रिकॉर्ड पर है. यह भारत के सारे क़ानूनों के मुताबिक़ किया गया है. सारी सरकारी एजेंसियों को सालों से यह बात मालूम है. फिर भी इसे एक सनसनीख़ेज़ ख़बर की तरह प्रसारित किया गया.

टीवी चैनल चीख-चीखकर ‘चीनी साज़िश’ का पर्दाफाश करते रहे.

बहरहाल! इस ‘पर्दाफ़ाश’ के साथ ही धीरे-धीरे दिन बीतते-बीतते यह मालूम होने लगा कि ‘न्यूज़क्लिक’ में कम करने वाले लगभग सारे पत्रकारों के घरों पर छापा मारा गया है. उनके फोन, लैपटॉप, बाक़ी इलेक्ट्रॉनिक सामान ज़ब्त कर लिए गए हैं. उनमें से कइयों को लोधी रोड थाने ले जाया गया है. कुछ भी निश्चित पता करना कठिन था क्योंकि किसी का फोन काम नहीं कर रहा था.

दोपहर को मालूम हुआ कि प्रबीर को लोधी रोड थाने लाया गया है. समझ में आ गया कि यह उनकी गिरफ़्तारी की तैयारी है.

तीन तारीख़ की शाम को की राहुल गांधी पर लिखी सुगता श्रीनिवासराजु की किताब पर चर्चा में उर्मिलेश को भाग लेना था. लेकिन वे तो थाने में थे. इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के हॉल में मंच में उनकी ख़ाली कुर्सी उनका इंतज़ार करती रही. कार्यक्रम शुरू होने के पहले यह ज़रूर मालूम हुआ कि पुलिस ने उन्हें छोड़ दिया है लेकिन दिनभर की पुलिस की पूछताछ के बाद वे इस हालत में हों कि एक चर्चा में हिस्सा ले सकें,यह मुमकिन न था. कुर्सी ख़ाली ही रही.

किताब पर चर्चा ख़त्म होते ही मालूम हो गया कि प्रबीर गिरफ़्तार कर लिए गए हैं. उनके साथ व्यवस्थापकीय कारोबार देखने वाले अमित चक्रवर्ती को भी गिरफ़्तार कर लिया गया. मेरा ध्यान प्रबीर की संगिनी लेखिका गीता हरिहरन की तरफ गया. लेकिन कितने नौजवान पत्रकार अभी भी थाने में हैं, हमें मालूम नहीं था.

जब कुछ लोग थाने से छोड़े गए तब मालूम हुआ कि पुलिस उनसे क्या पूछ रही थी: क्या तुमने किसान आंदोलन की रिपोर्टिंग की है? क्या तुमने नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन की रिपोर्टिंग की है? क्या दिल्ली ने 2020 में जो हिंसा हुई, उसके बारे में आपने रिपोर्टिंग की थी? क्या तुम शाहीन बाग जाती थीं?

क्या इन सारी घटनाओं पर रिपोर्टिंग करना अपराध है? पत्रकार अगर यह न करे तो फिर उसके होने का क्या मतलब है? क्या अमेरिका में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन की रिपोर्टिंग वहां के पत्रकार नहीं करेंगे? या जब अरब देशों में सरकार विरोधी आंदोलन उठ खड़े हुए तो उनकी रिपोर्टिंग नहीं की गई? या जब फ्रांस में छात्रों और मज़दूरों ने आंदोलन किया तो वहां की मीडिया को उसकी रिपोर्टिंग करनी चाहिए थी या नहीं? इस्राइल में सरकार ने जब न्यायपालिका पर क़ब्ज़ा करने वाला क़ानून बनाने की कोशिश की तो उसके ख़िलाफ़ जनता सड़क पर आ गई? वहां के अख़बारों को उसकी रिपोर्टिंग करनी चाहिए थी या नहीं? रिपोर्टर आंदोलन स्थल पर जाएं या नहीं?

अमेरिका में ‘वॉटरगेट’ कांड का पर्दाफाश पत्रकार ने ही किया था जिसके बाद राष्ट्रपति निक्सन को इस्तीफ़ा देना पड़ा था. क्या उस रिपोर्टिंग को अमेरिका विरोधी कहा जाता और रिपोर्टर को गिरफ़्तार कर लिया जाता? आज के भारत में यही हो रहा है.

ख़बर लेने और ख़बर देने का काम सरकार और पुलिस की निगाह में अगर अपराध हो जाए तो फिर पत्रकारिता ज़िंदा कैसे रहेगी? अगर सरकार की आलोचना करना जुर्म हो जाए तो समाज और देश में स्वतंत्र विचार जीवित कैसे रहेंगे?

‘न्यूज़क्लिक’ ने किसान आंदोलन, सीएए विरोधी आंदोलन की शानदार रिपोर्टिंग की थी. रिपोर्टिंग के साथ यह भी साफ़ था कि इन दो मामलों में उसका अपना विचार सरकार के रुख़ के ख़िलाफ़ था. लेकिन क्या यह अपराध है? इनमें से कौन सी चीज़ आतंकवादी है? क्या अख़बार या मीडिया के किसी संस्थान को सिर्फ़ सरकार का समर्थन ही करना चाहिए?

सरकार की आलोचना देश का विरोध कैसे हो गया? बल्कि सरकार के जिस कदम से देश का नुक़सान हो, उसकी आलोचना ही देशहित है. ‘न्यूज़क्लिक’ की सारी रिपोर्टिंग ज़रूर सरकार के दावों की पड़ताल है लेकिन यही तो पत्रकारिता है. अगर सरकार के पक्ष में लिखते बोलते रहें तो यह उसका प्रचार है. इसमें पत्रकारिता कहां है?

राहुल गांधी पर किताब की चर्चा में यह सवाल उठा कि वे क्यों कामयाब नहीं हो रहे हैं? या विपक्ष क्यों कारगर नहीं है? राहुल गांधी ने यह बात बार-बार कही है कि विपक्ष तभी कारगर हो सकता है जब मीडिया जनता तक सच्ची ख़बर पहुंचाने का काम करती रहे. एक बेख़बर जनता आख़िरकार अपना फ़ैसला करे कैसे?

यह साफ़ है कि ‘न्यूज़क्लिक’ को इसकी सज़ा मिल रही है कि वह जनता को बाख़बर रखने के साथ ख़बरदार भी कर रहा है.

जाने क्यों इस छोटी-सी टिप्पणी को लिखने में तीन दिन लग गए. इन तीन दिनों में मालूम हुआ कि इतिहासकार दिलीप सीमियन, सामाजिक कार्यकर्ता दीपक ढोलकिया, जमाल किदवई, विजय प्रताप के घरों पर भी पुलिस का छापा पड़ा. उनके फोन भी लिए गए. उन्हें फिर थाने बुलाया जा रहा है. इनमें से किसी का ‘न्यूज़क्लिक’ से कोई रिश्ता नहीं. लेकिन पुलिस एक साज़िश की कहानी गढ़ रही है.

कहानी यह है कि बुद्धिजीवी और पत्रकार आतंकवादी साज़िश कर रहे हैं. यह कोई संयोग नहीं है कि जब यह सब चल रहा है, गृह मंत्री संकल्प ज़ाहिर कर रहे हैं कि वामपंथी आतंकवाद की रीढ़ तोड़ दी जाएगी.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.) 

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