नई दिल्ली: नगालैंड के एक संगठन ने चेतावनी दी है कि अगर राज्य विधानसभा केंद्र के दबाव के आगे झुकती है और समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के समर्थन में विधेयक पारित करती है तो सभी 60 विधायकों के आधिकारिक आवास को जला दिया जाएगा.
द हिंदू ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि ‘नगालैंड ट्रांसपेरेंसी, पब्लिक राइट्स एडवोकेसी एंड डायरेक्ट-एक्शन ऑर्गनाइजेशन’ ने कहा है कि यूसीसी को लागू करना राज्य को दिए गए विशेष संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन होगा और यह नगा लोगों के अद्वितीय रीति-रिवाजों और परंपराओं में भी बाधा डालेगा.
संगठन ने एक बयान में कहा कि अगर यूसीसी को मंजूरी मिल गई तो उसके सदस्य नगालैंड के विधायकों के आधिकारिक आवासों में आग लगाने की हद तक जाने से भी नहीं हिचकिचाएंगे.
2022 में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में लागू करने के भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के प्रयास को याद करते हुए, ईसाई बहुसंख्यक नगालैंड की राइजिंग पीपुल्स पार्टी ने यूसीसी को लागू करने के कदम का विरोध किया क्योंकि इसके पीछे एकरूपता का केंद्रीय विचार है.
पार्टी ने यह भी कहा कि यूसीसी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘एक राष्ट्र, एक धर्म, एक भाषा’ पर जोर देने के विचार के अनुरूप है.
मेघालय में, मातृसत्तात्मक खासी समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाली हिनयूत्रेप यूथ काउंसिल ने कहा कि वह यूसीसी लागू करने के कदम के खिलाफ भारत के विधि आयोग को लिखेगी.
परिषद के अध्यक्ष रॉबर्ट युन खारजहरीन ने कहा, ‘यूसीसी स्थानीय रीति-रिवाजों, कानूनों और यहां तक कि संविधान की छठी अनुसूची को भी प्रभावित करेगा.’
सिविल सोसाइटी महिला संगठन की अध्यक्ष एग्नेस खारशिंग ने शिलॉन्ग में पत्रकारों से कहा, ‘संविधान भारत के लोगों के लिए है, न कि कुछ राजनीतिक शक्तियों को खुश करने के लिए. अगर उन्हें यूसीसी लागू करना है तो पहले देश के हर नागरिक को समझाना होगा. लोगों यह देखना है कि उनके प्रतिनिधि क्या लागू कर रहे हैं.’
यूसीसी का विरोध मेघालय, मिजोरम और नगालैंड में सबसे मजबूत रहा है, जहां 2011 की जनगणना के अनुसार, ईसाइयों की संख्या क्रमश: 74.59 फीसदी, 86.97 फीसदी और 87.93 फीसदी है. अन्य पूर्वोत्तर राज्यों ने प्रतिक्रिया देने से पहले मसौदे का अध्ययन करने की बात कही है.
पूर्वोत्तर भारत दुनिया के सबसे सांस्कृतिक रूप से विविध क्षेत्रों में से एक है और 220 से अधिक जातीय समुदायों का घर है. कई लोगों को डर है कि यूसीसी संविधान द्वारा संरक्षित उनके पारंपरिक कानूनों को प्रभावित करेगा.
वहीं, द हिंदू की ही एक अन्य खबर के मुताबिक, सेंट्रल नगालैंड ट्राइब्स काउंसिल (सीएनटीसी) ने 22वें विधि आयोग को लिखे एक पत्र में कहा है कि संविधान भारत के लोगों के बीच विविधता और बहुलता को मान्यता देता है और इसलिए यूसीसी अपने वर्तमान स्वरूप में भारत के विचार के खिलाफ है.
बता दें कि विधि आयोग ने कुछ हफ्ते पहले यूसीसी पर जनता की राय मांगी थी.
राज्य की तीन प्रमुख जनजातियों- एओ, लोथा और सुमी जनजातियों- का प्रतिनिधित्व करने वाले सीएनटीसी ने विधि आयोग के सदस्य-सचिव को पत्र लिखकर कहा कि ‘बिना जांचे गए कानूनों, जिनके बारे में आदिवासी नहीं जानते हैं, को लागू करने के गंभीर परिणाम होंगे.’
2011 की जनगणना के अनुसार, एओ, लोथा और सुमी जनजातियों की आबादी कुल मिलाकर लगभग सात लाख है.
जनता की राय के लिए विधि आयोग के आह्वान पर 1 जुलाई को अपनी प्रतिक्रिया में सीएनटीसी ने कहा, ‘अनसुलझे भारत-नगा राजनीतिक मुद्दे के बावजूद एक जनजातीय राज्य के रूप में नगालैंड अब तक देश की विविध और जीवंत प्रकृति के कारण भारतीय संघ में प्रगति करने में कामयाब रहा है. नगालैंड में विभिन्न जनजातियों के अपने-अपने रीति-रिवाज, संस्कृति और परंपराएं हैं जो सदियों से एक-दूसरे के साथ बिना किसी संघर्ष के व्यक्तिगत कानूनों के सहारे चलती रही हैं.’
इसमें कहा गया है, ‘हाल ही में, ‘एकरूपता और अनुरूपता’ की वकालत विशेष रूप से देश के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले जातीय, सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच गहरी असुरक्षा पैदा कर रही है.’
सीएनटीसी ने पत्र में कहा कि नगालैंड को संविधान के अनुच्छेद 371 ए के तहत संरक्षित किया गया था, जो नगाओं की धार्मिक या सामाजिक प्रथाओं, नगा प्रथागत कानून और प्रक्रिया, नागरिक न्याय प्रशासन और पारंपरिक नगा कानून के अनुसार आपराधिक न्याय के निर्णय और भूमि एवं उसके संसाधनों के स्वामित्व के संबंध में संसद के अधिनियमों के लागू होने से छूट प्रदान करता है, जब तक कि उन्हें राज्य विधायिका द्वारा अनुमोदित न किया जाए.’
सीएनटीसी ने यह भी बताया कि इस पहलू को 21वें विधि आयोग ने ‘पारिवारिक कानून में सुधार’ पर अपने 2018 के परामर्श पत्र में मान्यता दी थी, जिसने यूसीसी को ‘अवांछनीय और अनावश्यक’ बताया था.
जनजातीय परिषद ने आगे आग्रह करते हुए कहा, ‘हम 22वें विधि आयोग से विविधता में एकता पर आधारित भारत के विचार को कायम रखने का आग्रह करते हैं. नगालैंड को प्रदान किए गए संवैधानिक सुरक्षा उपाय वह डोर है जो नगालैंड को भारतीय संघ से जोड़ती है और कोई भी कानून जो इन संवैधानिक सुरक्षा उपायों को खत्म कर सकता है वह उस संबंध को तोड़ देगा जो पिछले छह दशकों में कड़ी मेहनत से विकसित किया गया है.’
मालूम हो कि इससे पहले मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड के. संगमा यूसीसी को भारत की भावना के खिलाफ बता चुके हैं. उनकी पार्टी नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) भाजपा के एनडीए गठबंधन में सहयोगी है.
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार (27 जून) को मध्य प्रदेश में ‘मेरा बूथ सबसे मजबूत’ अभियान के तहत भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए यूसीसी की पुरजोर वकालत करते हुए सवाल किया था कि ‘दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चलेगा? अगर लोगों के लिए दो अलग-अलग नियम हों तो क्या एक परिवार चल पाएगा? तो फिर देश कैसे चलेगा? हमारा संविधान भी सभी लोगों को समान अधिकारों की गारंटी देता है.’
विपक्षी दलों ने मोदी के बयान की आलोचना करते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री कई मोर्चों पर उनकी सरकार की विफलता से ध्यान भटकाने के लिए विभाजनकारी राजनीति का सहारा ले रहे हैं. मुस्लिम संगठनों ने भी प्रधानमंत्री की यूसीसी पर टिप्पणी को गैर-जरूरी कहा था.
गौरतलब है कि समान नागरिक संहिता भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख मुद्दों में से एक रहा है. वर्ष 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में यह भाजपा के प्रमुख चुनावी वादों में शुमार था. उत्तराखंड के अलावा मध्य प्रदेश, असम, कर्नाटक और गुजरात की भाजपा सरकारों ने इसे लागू करने की बात कही थी.
उत्तराखंड और गुजरात जैसे भाजपा शासित कुछ राज्यों ने इसे लागू करने की दिशा में कदम उठाया है. नवंबर-दिसंबर 2022 में संपन्न गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी समान नागरिक संहिता को लागू करना भाजपा के प्रमुख मुद्दों में शामिल था.
द वायर से साभार