July 27, 2024

मणिपुर में जो कुछ हो रहा है क्या वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा है? शायद नहीं, क्योंकि एनएसए ने अभी तक ऐसा नहीं कहा है। श्रीनगर की सड़कों पर बिरयानी खाते हुए फोटो खिंचवाने वाले अजीत डोभाल अभी तक मणिपुर नहीं गए हैं और वहां के मामले पर चुप हैं।

आकार पटेल

राष्ट्रीय सुरक्षा की परिभाषा क्या है? इसे “अपने नागरिकों की सुरक्षा और बचाव के लिए सरकार की क्षमता” और “हिंसा या हमले के खतरे से खुद को बचाने की देश की क्षमता” के रूप में परिभाषित और वर्णित किया गया है।

नए भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांत को समझने के लिए, देश के सुरक्षा सलाहकार (नेशनल सिक्यूरिटी एडवाइजर – एनएसए) अजित डोभाल के सिद्धांत यानी डॉक्टरीन को देखना होगा। यह कोई लिखित पाठ नहीं है और इसे कभी किसी पुस्तक में व्यक्त भी नहीं किया गया है। इस सबका जिक्र मैं लेख के अंत में संक्षेप में करूंगा, लेकिन इसे एक वीडियो में व्यक्त किया गया है। वीडियो में बताया गया है कि चूंकि भारत के पास हेनरी किसिंजर जैसा कोई विचारक-बौद्धिक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नहीं है, बल्कि ‘एक्शन एंड फील्ड का व्यक्ति’ है। अजीत डोभाल ने थीसिस और शोध प्रबंध पर अपना समय बर्बाद नहीं किया; उन्होंने सीधे एक्शन के रास्ते को अपनाया।

देश के एनएसए के एक व्यंग्यात्मक चरित्र चित्रण (प्रोफाइल) में, ए जी नूरानी ने लिखा है: ‘डोभाल अपनी आस्तीनें चढ़ाने और कार्रवाई करने में संकोच नहीं करते। वह इस्लामिक स्टेट द्वारा बंधक बनाए गए भारतीयों के बचाव अभियान पर इराक गए थे; म्यांमार में भारतीय सेना के “साहसिक अभियान” का आयोजन किया और फिर कुछ उलझनों को सुलझाने के लिए नई दिल्ली में पाकिस्तान के उच्चायुक्त को फोन किया और इस्लामाबाद में अपने समकक्ष को एलओसी पर गोलीबारी के लिए पाकिस्तान को ‘औकात में रहने’ का निर्देश दिया; मुंबई में याकूब मेमन के अंतिम संस्कार में भीड़ नियंत्रण की व्यवस्था की निगरानी की, हालांकि इस पर कई लोगों को हैरानी भी हुई; उबर कैब रेप मामले पर दिल्ली पुलिस से सवाल; और भी बहुत कुछ किया। यह एक असली कर्मठ व्यक्ति हैं, और उन जैसा कोई पहले नहीं हुआ।

यह लेख नवंबर 2015 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद के 7 वर्षों के बाद भी डोभाल इसी किस्म के साहसिक कामों में लगे रहे, जिसमें निजामुद्दीन मरकज से तबलीगी जमात के लोगों को निकालना भी शामिल है। इन लोगों पर बेहद बेशर्मी और गलत तरीके से सरकार ने भारत में कोविड फैलाने के आरोप लगाए थे। उन्होंने कश्मीर में सड़क किनारे बिरयानी खाते हुए फोटो भी खिंचवाए और यह बताने की कोशिश की कि कश्मीर में हालात सामान्य हो गए हैं।

अपनी सरकार के अन्य लोगों की तरह वह भी मीडिया में प्रभावी दिखना पसंद करते हैं। लेकिन वह अभी तक मणिपुर नहीं गए हैं, हालांकि किसी को यकीन नहीं है कि क्या सच में ऐसा ही है क्योंकि उनके बारे में तो यह भी प्रसिद्ध है कि वह भेष बदलने में माहिर होने का दावा भी करते हैं।

लेकिन बड़ा मुद्दा यह है: जब बॉस सारा श्रेय ले लेता है, तो किसी भी आपदा के सामने आने पर मामूली लोगों को दोष लेने में जल्दबाजी क्यों करनी चाहिए? और अगर यह “नागरिकों की सुरक्षा और सुरक्षा की जिम्मेदारी” नहीं है तो फिर कुछ भी नहीं है।

इसके अलावा, जब सभी निर्णय केंद्रीकृत तरीके से लिए जाते हैं और फिर उन्हें अभूतपूर्व और ऐतिहासिक बताते हुए घोषणा की जाती है, तो फिर इनके प्रभावों या दुष्प्रभावों का खामियाजा जूनियर ही क्यों भुगतें? संभवतः यही कारण है कि हमारे समय के ‘महान जासूस’ इस समय के सबसे गंभीर खतरों को लेकर कोई भूमिका निभाते नजर नहीं आते।

हाल की रिपोर्ट्स से उनकी गतिविधियों के बारे में 29 जून की हेडलाइन से पता चला कि  ‘रूस में वैगनर बगावत के बाद रूस के सुरक्षा परिषद सचिव ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को फोन किया।’ 27 जून की रिपोर्ट से पता चला कि अजित डोभाल ने ओमान में शीर्ष नेतृत्व से बातचीत की, जिसमें सुरक्षा संबंधों को मजबूत करने पर चर्चा हुई। इसी तरह 17 जून की हेडलाइन में उनकी इतिहास को लेकर समझ का जिक्र था, और हेडलाइन में अजित डोभाल के हवाले से कहा गया कि “अगर नेताजी सुभाष बोस होते तो भारत का विभाजन नहीं हुआ होता।”

उनके लिए खुशी की बात यह है कि जब बेहद अहम और गंभीर मुद्दों की बात होती है तो उनकी गैरमौजूदगी हेडलाइन नहीं बनती, क्योंकि नाकामी की कोई जिम्मेदारी तो किसी की है नहीं, खास तौर से बात जब शासन की आती है तो। वह अपने काम में मसरुफ रह सकते है, मानो मणिपुर उनकी जिम्मेदारी हो ही न, या फिर कार्पोरेट की भाषा में कहें तो यह उनका के आर ए (की रिजल्ट एरिया) नहीं है।

कर्तव्यों के निर्वहन में इस किस्म की लापरवाही पहले भी देखी जा सकती है। 2018 में नेशनल सिक्यूरिटी एडवाइजरी को डिफेंस प्लानिंग कमेटी का प्रभार दिया गया था। इसकी अध्यक्षता अजित डोभाल को दी गई थी और इसमें विदेश, रक्षा सचिवों के अलावा तीनों सेनाओं के प्रमुख और वित्त मंत्रालय के सचिव भी शामिल थे। इस समिति का काम में राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा प्राथमिकताओं, विदेश नीति की अनिवार्यताओं, परिचालन निर्देशों और संबंधित जरूरतों, प्रासंगिक रणनीतिक और सुरक्षा-संबंधी सिद्धांतों, रक्षा अधिग्रहण और बुनियादी ढांचे की विकास योजनाओं, राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति, रणनीतिक रक्षा समीक्षा और सिद्धांतों की देखभाल करने का जिम्मा था।

इस समिति की एक बार बैठक 3 मई 2018 को हुई थी, और उसके बाद के 5 साल में शायद ही इसकी कोई बैठक हुई हो। लद्दाख की घटना के बाद इस समिति में रुचि हो सकता है कम हो गई हो क्योंकि डोभाल की दिलचस्पी तो पाकिस्तान और मुस्लिमों को लेकर अधिक रहती है। उनके कामकाज में निरंतरता का कोई एक सूत्र है जैसा कि नूरानी ने लिखा है, तो इसे कुछ इस नजरिए से समझा जा सकता है। डोभाल सिद्धांत कहता है कि आतंकवाद राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है और पाकिस्तान प्राथमिक दुश्मन है।

सरकार ने 2020 की घटनाओं के बाद इसे झूठ माना। गलवान से पहले सेना की 38 डिवीजनों में से 12 ने चीन की तरफ तैनात थीं, जबकि 25 डिवीजनों को भारत-पाकिस्तान सीमा पर एक रिजर्व डिवीजन के साथ तैनात किया गया था। तैनाती में फेरबदल के बाद, 16 डिवीजनों को चीन की तरफ तैनात किया गया है। लेकिन पहले ऐसा क्यों था और फिर इसमें बदलाव क्यों हुआ, इसका कारण हमें नहीं पता है। इसके बारे में हमें पता चल सकता है बशर्ते अपना नया सिद्धांत लिखें या इसके बारे में बात करें।

2014 के बाद से जो ढोल-ताशे पीटे जा रहे हैं, उसके शोर से उबरकर कोई अगर इस दौर के सूक्ष्म विवरण पर नजर डाले तो पता चलता है कि उस प्रोजेक्ट की सोच और कार्यान्वयन की गुणवत्ता और क्षमता क्या है, जिसे हम न्यू इंडिया कहते हैं।

लेखक आकार पटेल मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। यह टिप्पणी नवजीवन से साभार।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *