November 24, 2024

सत्येंद्र रंजन

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के 18 सितंबर को भारत पर गंभीर आरोप लगाने के बाद इस प्रकरण में सबसे विस्फोटक खबर अमेरिकी वेबसाइट द इंटरसेप्ट ने दी है। ट्रुडो ने इल्जाम लगाया था कि भारत सरकार की एजेंसियों ने कनाडा की जमीन पर कनाडाई नागरिक की हत्या की।

द इंटरसेप्ट वेबसाइट ने 23 सितंबर को बताया कि जून में कनाडा में खालिस्तानी कार्यकर्ता हरदीप सिंह निज्जर (जिसे भारत ने आतंकवादी घोषित किया हुआ था) की हत्या के बाद अमेरिका में वहां की जांच एजेंसी- फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन (एफबीआई) के अधिकारी कई सिख कार्यकर्ताओं के घर पर गए और उन्हें आगाह किया कि उनकी जान खतरे में है।

इंटरसेप्ट ने लिखा है- कनाडा के यह आरोप लगाने के बाद कि निज्जर की हत्या में भारत सरकार के शामिल होने की ‘विश्वसनीय खुफिया सूचना’ उसे मिली है, अमेरिका में सिख कार्यकर्ताओं को दी गई एफबीआई की चेतावनी को अति महत्त्वपूर्ण समझा जाने लगा है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि एफबीआई के अधिकारी कई ऐसे सिख कार्यकर्ताओं के घर पर गए, जिन्हें भारत अलगाववादी मानता है। इस खबर के कुछ बेहद गंभीर निहितार्थ हैं:

  • इस खबर का मतलब है कि ट्रूडो ने जो आरोप लगाया, वह सिर्फ कनाडा की जांच एजेंसियों का निष्कर्ष नहीं है। बल्कि बीते जून से अमेरिकी एजेंसियां भी यह मान कर चल रही हैं कि भारत सरकार खालिस्तानी अलगाववादियों का विदेश में सफाया कराने की योजना को अंजाम दे रही है। जिन देशों में इस योजना पर काम किया जा रहा है, उनमें अमेरिका भी शामिल है।
  • इस खबर का यह अर्थ भी है कि भारत जिन कार्यकर्ताओं को उग्रवादी और अलगाववादी मानता है और जिन्हें वह अपने शिकंजे में लेना चाहता है, अमेरिका सरकार असल में उन्हें संरक्षण दे रही है। साफ है, उन कार्यकर्ताओं के बारे में भारत की जो समझ है, उससे अमेरिका बिल्कुल ही इत्तेफाक नहीं रखता।
  • इसके पहले कनाडा स्थित अमेरिकी राजदूत इस बात की पुष्टि कर चुके थे कि Five Eyes की खुफिया सूचना साझा करने की व्यवस्था के तहत कनाडा को यह जानकारी दी गई थी कि उसकी धरती पर हुए सिख नेता की हत्या के पीछे भारत सरकार का हाथ हो सकता है।
  • उधर अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने साफ कहा कि अमेरिका चाहता है कि “सीमा पार दमन” की घटना के लिए जवाबदेही तय की जाए।  उन्होंने कहा कि अमेरिका ऐसी घटना को बेहद गंभीरता से लेता है।
  • इससे पहले अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने खंडन किया था कि इस मुद्दे पर अमेरिका और कनाडा के बीच कोई मतभेद है। उन्होंने कहा- ‘कनाडा में चल रही जांच का हम समर्थन करते हैं और इस सिलसिले में हम भारत सरकार के साथ भी संपर्क में हैं। इस आरोप को लेकर हम गंभीर रूप से चिंतित हैं और हम चाहेंगे कि जांच आगे बढ़े तथा दोषियों को उनके किए की सजा मिले।’ सुलिवन ने कहा कि किसी भी देश को इस तरह की “न्यायेतर हत्याएं” (extra judicial murder) कराने की विशेष छूट नहीं मिली हुई है।
  • ह्वाइट हाउस की प्रवक्ता ने भी ऐसा ही बयान दिया है।

कनेडियन ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (सीबीसी) कनाडा सरकार के सूत्रों के हवाले से यह खबर दे चुका है कि कनाडा ने भारत पर यह आरोप उसे मिले सिग्नल और मानव गुप्तचर सूचनाओं के आधार पर लगाया है। उसे कनाडा स्थित भारतीय राजनयिकों के बीच आपस में हुए संदेशों के आदान-प्रदान से तथा Five Eyes गठबंधन में शामिल देशों से खुफिया सूचनाएं मिलीं।

  • इस खबर से यह भी साफ हुआ कि Five Eyes की खुफिया एजेंसियों ने भारतीय राजनयिकों की जासूसी की।

Five Eyes पांच एंग्लो-सैक्सन देशों का खुफिया सूचना साझा करने के लिए बना गठबंधन है। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड इसमें शामिल हैं। इनमें से अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया क्वाड्रैंगुलर सिक्योरिटी डायलॉग (क्वैड) के भी सदस्य हैं, जिसमें भारत और जापान भी शामिल हैं। यहां यह बात गौरतलब है कि क्वैड के दो सदस्यों की खुफिया एजेंसियों ने इस समूह के एक अन्य सदस्य (यानी भारत) के राजनयिकों की जासूसी की।

इस घटनाक्रम ने नरेंद्र मोदी सरकार के अमेरिकी धुरी पर सारा दांव लगाने के खोखलेपन को बेनकाब कर दिया है। इससे यह साबित हुआ है कि यह रणनीति सिरे से गलत है। मोदी सरकार ने इस तर्क पर चीन के टिकटॉक, वीचैट आदि जैसे अनेक ऐप को प्रतिबंधित किया था कि ये ऐप जासूसी का जरिया हैं। जबकि उसी समय भारतीय सूचना तकनीक दायरे पर माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, एमेजन, फेसबुक, ट्विटर, आदि जैसी अमेरिकी कंपनियों का पूरा दबदबा बन जाने दिया गया है। जबकि अमेरिका के कंप्यूटर कंसल्टैंट और ह्विशिलब्लोअर एडवर्ड स्नोडेन ने एक दशक पहले इसका भंडाफोड़ कर दिया था कि कैसे अमेरिकी हाई टेक कंपनियां अपने यूजर्स की सारी सूचनाएं अमेरिकी खुफिया एजेंसियों को सौंप देती हैं।

अब अगर कनाडा स्थित भारतीय राजनयिकों के आपसी संवाद की रिकॉर्डिंग Five Eyes खुफिया तंत्र के हाथ लग गई है (जैसाकि सीबीसी की खबर में दावा किया गया है), तो साफ है कि अमेरिका एवं पश्चिम के भारत के कथित दोस्त देशों ने भारतीय अधिकारियों की जासूसी की। तो यह प्रश्न उठेगा कि पश्चिम के साथ तार जोड़ कर अपना दर्जा उठाने की भारत की रणनीति से आखिर क्या हासिल हो रहा है?

निज्जर हत्याकांड को लेकर कनाडा के साथ बढ़े विवाद में सिर्फ अमेरिका से जुड़ा पहलू (सिख कार्यकर्ताओं को आगाह करना) ही सामने नहीं आया है। इसी बीच यह खबर भी फिर से चर्चा में आ गई है कि जर्मनी में खालिस्तानी और कश्मीरी अलगाववादियों की जासूसी करने के आरोप में भारत की खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के एक कथित जासूस पर 2020 में मुकदमा चलाया गया था। उधर ब्रिटेन में लेबर पार्टी के एक नेता ने ऋषि सुनक सरकार से पूछा है कि क्या उनके देश में सिख सुरक्षित हैं? ब्रिटेन के अखबारों में भारतीय खुफिया एजेंसियों की न्यायेतर हत्या कराने की कथित गतिविधि की खबरें विस्तार से छप रही हैं।

जाहिर है, यह घटनाक्रम एक बेहद गंभीर रूप ले चुका है। निर्विवाद रूप से इससे भारत की नरेंद्र मोदी सरकार के लिए मुश्किल खड़ी हुई है। मोदी सरकार ने पिछले नौ वर्षों में अमेरिकी धुरी से जुड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है। लेकिन साथ ही उसने अपना एक पांव इस वक्त दुनिया में उभरती दूसरी धुरी के खेमे में भी बनाए रखा है, जिसका नेतृत्व चीन और रूस की जोड़ी कर रही है। मोदी सरकार की रणनीति दोनों खेमों से अधिकतम लाभ उठाने की रही है। इसके लिए वह इन दोनों खेमों के इस भय का इस्तेमाल करती रही है कि भारत जैसा बड़ा और महत्त्वपूर्ण देश कहीं दूसरे खेमे से पूरी तरह ना जुड़ जाए।

अमेरिका और उसके साथी देशों ने इस महीने जी-20 शिखर सम्मेलन को सफल बनाने के लिए अपने रुख पर समझौता किया। उन्होंने झुक कर साझा घोषणापत्र में वह भाषा स्वीकार कर ली, जो उनकी जिद और उनके पुराने रुख के विपरीत था। इसे भारत की उपरोक्त रणनीति की कामयाबी के रूप में पेश किया गया। लेकिन अब यह रणनीति दोतरफा नुकसान का सौदा बनती दिख रही है।

अब लगता है कि पश्चिमी देश इस निष्कर्ष पर पहुंच गए हैं कि भारत को मिल रही  रियायतें खत्म करने का समय आ चुका है। यह बात अब खबरों में आ चुकी है कि जब Five Eyes के सदस्य देशों के नेता जी-20 सम्मेलन के लिए नई दिल्ली आए, तब उनके पास भारतीय एजेंसियों की कथित गतिविधियों की जानकारी थी। उन्होंने यहां इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बातचीत की। संभवतः मोदी ने ट्रूडो को झटक दिया, जबकि जो बाइडेन सहित बाकी नेताओं की बात को ज्यादा तव्वजो नहीं दी। संभवतः उसका ही परिणाम दस दिन के अंदर ट्रूडो के कनाडाई संसद में दिए बयान के रूप में सामने आया।

जाहिर है, बिना अपनी क्षमता बनाए पश्चिमी देशों के साथ हाई टेबल पर बैठने के मोदी सरकार के दांव की जमीन खिसकने लगी है। अगर सरकार में दूरदर्शी और गहरी समझ वाले लोग मौजूद होंगे, तो उन्हें इसका अहसास हो रहा होगा कि किसी बड़ी ताकत का मोहरा बनने से स्थायी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती।

इस सिलसिले में यह बात भी अवश्य रेखांकित की जानी चाहिए कि मोदी सरकार के पश्चिमी धुरी पर सारा दांव लगाने का नतीजा भारत को पास-पड़ोस में भी भुगतना पड़ रहा है। अभी चल रहे ह्वांगझाऊ एशियाई खेलों में अरुणाचल प्रदेश के एथलीट भाग नहीं ले पा रहे हैं, क्योंकि चीन ने उन्हें वीजा नहीं दिया। चीन ने यह कदम इसलिए उठाया, क्योंकि अरुणाचल प्रदेश पर अपने दावे में हाल में उसने अधिक से अधिक ताकत झोंकना शुरू कर दिया है। एशियाई खेलों की मेजबानी के दौरान उसने अरुणाचल पर अपने दावे को फिर से जताया है। जबकि भारत सरकार इसका कोई प्रभावी विरोध नहीं कर पाई है।

हकीकत यह है कि चीन के मामले में मोदी सरकार की अस्थिर नीति भारत के लिए महंगी पड़ रही है। इसी वर्ष जुलाई में वुशु विश्व कप टूर्नामेंट से भारत ने इसीलिए अपनी पूरी टीम वापस लौटा ली, क्योंकि अरुणाचल के खिलाड़ियों को स्टैपल्ड वीजा दिया गया था। सवाल यह है कि जुलाई से सितंबर तक ऐसा क्या बदल गया कि अब भारत ने एशियाई खेलों का पूरा बहिष्कार नहीं किया? इसे नीतिगत अस्थिरता नहीं, तो और क्या कहा जाएगा?

वैसे ताजा घटनाक्रम से सिर्फ भारत का नुकसान नहीं है। इससे अमेरिका की मुसीबत कम नहीं बढ़ी है। अमेरिका ने भी अपनी खास “इंडो-पैसिफिक” रणनीति के तहत हाल के वर्षों में भारत में भारी निवेश किया है (यहां निवेश का अर्थ वित्तीय निवेश से नहीं, बल्कि रणनीतिक निवेश से भी है)। अब इन सारे प्रयासों और उनके आधार पर आगे बढ़ाई गई रणनीति की जमीन भी हिलती नजर आ रही है।

चीन के साथ de-risking (संबंध सीमित करने) की रणनीति के तहत अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों ने जिन एशियाई देशों को आर्थिक क्षेत्र में खास तव्वजो दी है, उसमें भारत प्रमुख है। मोदी सरकार ने भी अमेरिका की इस नीति को अपने फायदे में माना और इसके लिए अमेरिका एवं अमेरिकी कंपनियों के माफिक अपनी नीतियों को ढालने में अति उत्साह दिखाया। इससे बने तालमेल के कारण कई अमेरिकी कंपनियों को भारत लाने में मोदी सरकार को सफलता मिली। अमेरिका के लिए यह फायदे का सौदा रहा है।

लेकिन चीन को घेरने और उसकी बढ़ती ताकत पर लगाम लगाने की रणनीति बनाने में जुटे अमेरिका के neo-con (neo-conservative) विशेषज्ञों की नजर भारत के बाजार से ज्यादा उसकी सैन्य ताकत और भौगोलिक स्थान पर अधिक रही है। वे इस निष्कर्ष पर रहे हैं कि उनकी चीन विरोधी रणनीति में भारत प्रमुख मोहरा बनने की स्थिति में है। चीन से तनावपूर्ण संबंधों के अपने इतिहास के कारण भारत सरकार ने भी इस अमेरिकी रणनीति में अपना लाभ देखा है और इसमें अपनी भूमिका बढ़ाने की दिशा में आगे बढ़ी है। इससे अमेरिकी रणनीतिकार खुश हुए हैं और उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी तथा भारत की आर्थिक संभावनाओं का बढ़-चढ़ कर बखान किया है।

अब नए हालात में अमेरिका और उसके साथी देश लगे हाथ भारत पर भी लगाम कसने की तैयारी में दिख रहे हैं। कनाडा के आरोप का समर्थन कर अमेरिका भारत की वैश्विक स्तर पर छवि खराब करने में सहभागी बना है। कनाडा के आरोपों का अर्थ है कि भारत अंतरराष्ट्रीय कायदों को नहीं मानता। अमेरिका ने इसका समर्थन किया है। इससे पाकिस्तान जैसे देश का हौसला इतना बढ़ा कि वहां की सरकार ने बयान दिया कि ‘हिंदुत्ववादी आतंकवाद अब वैश्विक समस्या बन गया है।’

तो प्रश्न है कि उपरोक्त अमेरिकी निवेश का अब क्या होगा? इस निवेश के बूते वह जिस इंडो पैसिफिक रणनीति पर आगे बढ़ रहा था, उसका अब क्या होगा? क्या भारत सरकार अपनी तमाम बदनामी के बावजूद झुक कर- यानी पश्चिमी शर्तों के अनुरूप अब भी वह दांव खेलेगी, जिसके पक्ष में तर्क पहले से ही कमजोर रहे हैं? नई दिल्ली में जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान कथानक यह बना था कि भारत की प्रभावशाली कूटनीति ने पश्चिमी देशों को झुका दिया। अब इसके एकदम उलट कथा के दृश्य दुनिया देख रही है।

फिलहाल, नजारा धुंधला है। अभी कहना कठिन है कि कहानी किस दिशा में जाएगी। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि हाल के वर्षों में पश्चिम में मोदी सरकार ने और भारत में पश्चिम ने असाधारण स्तर का व्यापक निवेश किया है। इसे आसानी से गंवा देना इनमें से किसी को गवारा नहीं होगा। लेकिन मुद्दा ऐसा आ खड़ा हुआ है, जिस पर समझौता करना या जिससे आंख मूंद लेना भी अब उनके लिए मुमकिन नहीं रह गया है।

(वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं।)

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