July 27, 2024

-इन्द्रेश मैखुरी

उत्तराखंड में एक और विश्वविद्यालय के कुलपति को उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने बर्खास्त कर दिया है. 05 जून 2023 को उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति विपिन सांघी और न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल ने उत्तराखंड आयुर्वेद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.सुनील जोशी की नियुक्ति को नियम संगत नहीं पाया और उनकी नियुक्ति को खारिज कर दिया.  

उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने अपने बीस पन्नों के फैसले में लिखा कि प्रो.सुनील जोशी अपने नियुक्ति के दिन कुलपति पद पर नियुक्ति की न्यूनतम अर्हता को पूरा नहीं करते थे. न्यायालय ने कहा कि जिस व्यक्ति के पास पद के लिए निर्धारित न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता भी न हो, उसे  कुलपति नियुक्त किया जा सकता है, यह बात कल्पना से परे है ! गौरतलब है कि विश्वविद्यालय में कुलपति नियुक्त होने के लिए दस वर्ष तक प्रोफेसर या समकक्ष पद पर सेवारत रहना, अनिवार्य अर्हता है. प्रो.सुनील जोशी 14 जुलाई 2020 को उत्तराखंड आयुर्वेद विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए, जबकि वे  29 दिसंबर 2014 को प्रोफेसर बने थे. इस तरह, जिस तिथि पर वे कुलपति नियुक्त हुए, उस दिन, प्रोफेसर पद पर उनकी नियुक्ति को छह वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे !

उच्च न्यायालय का पूरा फैसला पढ़ें तो उसे देख कर साफ लगता है कि प्रो.सुनील जोशी भी समझ रहे थे कि वे निर्धारित अर्हता के मानदंड पर खरे नहीं उतरते. इसलिए वे सारी बहस को कुलपति पद के लिए निकाली गयी विज्ञप्ति और संशोधित विज्ञप्ति के इर्दगिर्द केंद्रित करना चाहते थे. लेकिन उच्च न्यायालय में उनकी होशियारी चली नहीं और अदालत ने उन्हें कुलपति पद से तत्काल प्रभाव से बर्खास्त कर दिया.

सवाल यह है कि जब प्रो.सुनील जोशी जानते थे कि वे कुलपति पद की निर्धारित अर्हता को पूरा नहीं करते तो उन्होंने आवेदन किया ही क्यूँ ? दूसरा प्रश्न यह है कि उत्तराखंड सरकार और राजभवन द्वारा जब आवेदनों की छंटनी यानि शॉर्टलिस्टिंग की जाती है तो बिना आवश्यक अर्हता पूर्ण किए उनका आवेदन पत्र  शॉर्टलिस्ट कैसे हुआ ? तीसरा प्रश्न यह कि शॉर्ट लिस्ट होने के बाद भी बिना आवश्यक अर्हता के उनका चयन कैसे हुआ ? चौथा सवाल यह है कि उच्च शिक्षा विभाग, उत्तराखंड सरकार और राजभवन ने अनिवार्य अर्हता न होने के बावजूद उनके नाम का अनुमोदन क्यूँ किया ?

ये सारे सवाल उत्तराखंड सरकार, उसके उच्च शिक्षा विभाग और अंततः राजभवन पर भी कई सवाल खड़े करते हैं कि अनर्ह अभ्यर्थियों को कुलपति पद पर नियुक्त क्यूँ और कैसे किया जा रहा है ? अनर्ह व्यक्तियों को राज्य के विश्वविद्यालयों में एक के बाद एक कुलपति नियुक्ति करके किसका हित सध रहा है ?

गौरतलब है कि यह पहला मामला नहीं है, जबकि उच्च न्यायालय द्वारा उत्तराखंड के किसी विश्वविद्यालय में नियुक्त कुलपति को आवश्यक अर्हता पूरी न करने के आधार पर बर्खास्त किया गया है.

03 दिसंबर 2019 को उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने दून विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो.चंद्रशेखर नौटियाल को उनकी नियुक्ति की तिथि से पद से बर्खास्त कर दिया. इस बर्खास्तगी के पीछे भी दस साल प्रोफेसर न होना मुख्य कारण था.

  10 नवंबर 2021 को सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय अल्मोड़ा के कुलपति नियुक्त किए गए नरेंद्र सिंह भण्डारी को उच्च न्यायालय, नैनीताल ने पदच्युत कर दिया. इसके पीछे भी कारण भण्डारी का दस साल प्रोफेसर न होना ही रहा. उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ भण्डारी, उच्चतम न्यायालय भी गए. 10 नवंबर 2022 को उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले को सही ठहराते हुए नरेंद्र सिंह भण्डारी की नियुक्ति को रद्द कर दिया.

और अब आयुर्वेद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो सुनील जोशी की नियुक्ति उच्च न्यायालय ने इसी आधार पर रद्द कर दी कि उन्हें प्रोफेसर बने दस साल नहीं हुए थे.

इस तरह देखें तो बीते चार सालों में तीन कुलपतियों को उच्च न्यायालय इस आधार पर बर्खास्त कर चुका है कि वे कुलपति पद के लिए अनिवार्य अर्हता- दस साल तक प्रोफेसर होना- को पूरा नहीं करते.

फिर सवाल यह है कि नियुक्ति की प्रक्रिया में लगे हुए उच्च शिक्षा के अधिकारी, चयन समिति, उच्च शिक्षा मंत्री, मुख्यमंत्री और राजभवन को यह क्यूँ नजर आ रहा है कि जिन्हें वे नियुक्त कर रहे हैं, वे अनिवार्य योग्यता के पैमाने पर खरा नहीं उतरते ? बार-बार उच्च न्यायालय द्वारा कुलपतियों को बर्खास्त करने के बावजूद कुलपति नियुक्ति करने वाला पूरा तंत्र, कोई सबक सीखने को तैयार क्यूँ नहीं है, सावधानी बरतने को तैयार क्यूँ नहीं है ?

अभी भी जो नियुक्त हैं, उनमें से भी कुछ ऐसे हैं जो दस वर्ष प्रोफेसर होने की अर्हता को पूरा नहीं करते. कुमाऊँ विश्वविद्यालय के बाद श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त किए गए एनके जोशी का मामला भी ऐसा ही प्रतीत होता है. उनके कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति रहने के दौरान ही राजभवन द्वारा सूचना के अधिकार अधिनयम के तहत, उनका जो बायोडाटा दिया गया, उसको देख कर यह साफ हो जाता है कि उन्होंने कुमाऊँ विश्वविद्यालय में कुलपति पद पर नियुक्ति से पूर्व किसी सरकारी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर कार्य नहीं किया. प्रोफेसर होने का उनका जो भी दावा है, वो निजी संस्थानों का है,जहां की नियुक्ति प्रक्रिया की वैधता और विश्वसनीयता सुनिश्चित करने का कोई माध्यम या पैमाना नहीं है. उनका पहला प्रकाशन (publication) 2017 का है. बिना किसी प्रकाशन के कोई व्यक्ति प्रोफेसर कैसे हो सकता है ? उनके शोध पत्र ऐसे जर्नल में छपे हैं, जिसे अकादमिक जगत में प्रीडेटरी जर्नल यानि जिनमें  शोध पत्र की गुणवत्ता के आधार पर नहीं बल्कि पैसा लेकर छापने वाले जर्नल के तौर पर जाना जाता है.

बायोडाटा में ही इतनी खामियाँ उजागर होने के बावजूद वे, कुमाऊँ विश्वविद्यालय के बाद श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय, बादशाही थौल के कुलपति बना दिये गए हैं.

और सिर्फ कुलपतियों की नियुक्ति में ही मनमानी नहीं चल रही उत्तराखंड में बल्कि सत्ता के चहेते कुलपतियों को पद पर बनाए रखने के लिए भी मनमाने आदेश निकाले जा रहे हैं. इस मामले में उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.ओपीएस नेगी का उदाहरण गौरतलब है. प्रो.ओपीएस नेगी का उत्तरखंड मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर पहला कार्यकाल बेहद विवादास्पद रहा. उस कार्यकाल में नियुक्तियों में घोटाले और आर्थिक भ्रष्टाचार समेत तमाम मामले सामने आए.कुछ नियुक्तियों के संबंध में तो तत्कालीन राज्यपाल ने तक कहा कि नियुक्तियाँ उनकी जानकारी के बगैर की गयी हैं और राज्य सरकार के ऑडिट विभाग ने भी नियुक्तियों में भ्रष्टाचार को पकड़ा. इसके बावजूद उन्हें दूसरी बार कुलपति नियुक्त किया गया.

20 जुलाई 2022 को जब उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर जब पुनः प्रो.ओपीएस नेगी की नियुक्ति की गयी थी तो उनके नियुक्ति पत्र में लिखा था कि तीन वर्ष अथवा अधिवर्षिता आयु पूर्ण करने तक, इनमें से जो भी पहले हो. लेकिन 03 जुलाई 2023 को राजभवन की ओर से जारी पत्र में पुराने आदेश को निरस्त करते हुए, प्रो.ओपीएस नेगी को पूरे तीन वर्ष तक पद पर बने रहने का आदेश जारी कर दिया गया. इसका अर्थ यह है कि उत्तराखंड में कुलपति पद पर रहने की अधिकतम आयु सीमा- 65 वर्ष पूरा करने के बाद भी, प्रो.ओपीएस नेगी पद पर बने रहेंगे. हैरत की बात है कि ऐसा करने के लिए न तो कैबिनेट में कोई प्रस्ताव आया, ना ही, कोई अध्यादेश लाया गया ! राजभवन द्वारा कुलाधिपति के सचिव के हस्ताक्षरों से एक कुलपति पर अतिरिक्त कृपा का यह पत्र जारी कर दिया गया ! सरकार, सत्ता में बैठे लोग तो नियम-कायदों का अपने चहेतों के लिए उल्लंघन करना चाहते हैं, लेकिन राजभवन की क्या मजबूरी है कि नियम-कायदों को धता बताकर, एक व्यक्ति पर यह अतिरिक्त कृपा बरसाई जा रही है ?

इन तमाम प्रकरणों से स्पष्ट है कि उत्तराखंड के तमाम विश्वविद्यालय बेहद मनमाने तरीके से, नियम-कायदों को तोड़मरोड़ कर, संचालित किए जा रहे हैं. अफसोस यह है कि सरकार से लेकर राजभवन तक, सब नियम-कायदों को तोड़ने-मरोड़ने के काम में, जाने-अंजाने शामिल हो जा रहे हैं. नियम-कायदों की यह अनदेखी, राज्य के विश्वविद्यालयों को न कायदे से चलने देगी और न नियम से ! और इस तरह जिन विश्वविद्यालयों में सभ्य समाज के संचालन के नियम-कायदे गढ़े जाने थे, उनमें नियम-कायदों की कब्र पर अराजकता, मनमानी और भ्रष्टाचार पनपेगा और फलेगा-फूलेगा !

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