July 27, 2024

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (28 जुलाई) को सीपीआई की महिला शाखा द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर केंद्र और छह राज्यों से जवाब मांगा, जिसमें दावा किया गया है कि शीर्ष अदालत के 2018 के पूनावाला फैसले में राज्यों को गोरक्षकों द्वारा लिंचिंग सहित घृणा अपराधों (Hate Crime) के खिलाफ निर्णायक रूप से कार्रवाई करने का निर्देश देने के बावजूद मुसलमानों के खिलाफ लिंचिंग और भीड़ हिंसा के मामलों में चिंताजनक वृद्धि हुई है.

 जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस जेबी पारदीवाला की पीठ ने केंद्र और महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश तथा हरियाणा के पुलिस महानिदेशकों (डीजीपी) को नोटिस जारी कर याचिका पर उनका जवाब मांगा.

इसी तरह की एक याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने पहले खारिज कर दिया था, जबकि एक अन्य याचिकाकर्ता को गोरक्षकों और मॉब-लिंचिंग के खिलाफ उचित राहत के लिए संबंधित हाईकोर्ट में जाने के लिए कहा था.

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, जनहित याचिका में पिछले दो महीनों में सामने आए छह मामलों में पीड़ितों के लिए मुआवजे की भी मांग की गई है. याचिका में 2018 के शीर्ष अदालत के दिशानिर्देशों के बावजूद मुस्लिमों के खिलाफ भीड़ की हिंसा, विशेष रूप से गोरक्षकों द्वारा की गई हिंसा पर चिंता जताई गई है.

सुनवाई के दौरान पीठ ने नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमेन की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल से कहा, ‘हम नोटिस जारी करेंगे.’

सिब्बल ने अदालत से कहा कि हालांकि इस तरह की राहत उच्च न्यायालय से मांगी जा सकती है, लेकिन इस याचिका में छह अलग-अलग राज्यों से सामने आए मॉब लिंचिंग और गोरक्षकों की हिंसा से संबंधित छह मामले प्रस्तुत किए गए हैं.

सिब्बल ने याचिका पर बहस करते हुए, जिसमें परिवार के पुरुष सदस्यों की पीट-पीट कर हत्या कर दिए जाने के बाद मुस्लिम महिलाओं का मुद्दा उठाया गया है, कहा, ‘अगर मैं उच्च न्यायालयों में जाता हूं, तो अंतत: मुझे क्या मिलेगा? मुझे 10 साल बाद 2 लाख रुपये का मुआवजा दिया जाएगा. तब हम कहां जाएं.’

याचिका में पीड़ितों को मुआवजे के रूप में ‘न्यूनतम एक समान राशि’ का भुगतान करने का अनुरोध किया गया है, जिसका एक हिस्सा पीड़ित परिवारों को उनकी तत्काल जरूरतों को पूरा करने में मदद करने के लिए अग्रिम भुगतान किया जाना चाहिए.

याचिका में ‘भीड़ हिंसा की घटनाओं में चौंकाने वाली वृद्धि’ को ध्यान में रखते हुए छह ऐसे मामलों को संकलित किया गया, जिनमें से दो मामले क्रमशः 8 और 24 जून को महाराष्ट्र से सामने आए, जिसमें कथित तौर पर गोमांस की तस्करी के आरोप में तीन लोगों पर बेरहमी से हमला किया गया था, जिनमें से दो की मौत हो गई, जबकि एक का मुंबई के अस्पताल में इलाज चल रहा है.

याचिका में गोमांस ले जाने के संदेह में बिहार में 55 वर्षीय एक मुस्लिम ट्रक ड्राइवर की नृशंस हत्या और खंडवा (मध्य प्रदेश) में दो मुस्लिम पुरुषों की पिटाई का भी वर्णन किया गया है, जिन्हें ईद-उल-अजहा की पूर्व संध्या पर बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने रोका था और कथित तौर पर गोमांस ले जाने के आरोप में पीटा था.

याचिका में भुवनेश्वर (ओडिशा) और कोटा (राजस्थान) में भीड़ हिंसा से संबंधित दो अन्य उदाहरण भी प्रस्तुत किए गए हैं. याचिका में 17 जून को हुई ऐसी ही एक घटना में ओडिशा में दो मुस्लिम पुरुषों पर हिंसक हमले का वर्णन किया गया हैं, जिन्हें रस्सियों का उपयोग करके रोका गया, हमला किया गया, अपमानित किया गया और कूड़े के ढेर के बीच चलने के लिए मजबूर किया गया.

राजस्थान में मई में हज यात्रियों को ले जा रही एक बस पर हिंसक भीड़ ने पथराव किया था, जिससे कई लोग घायल हो गए थे.

याचिका में कहा गया है कि साल 2018 का तहसीन पूनावाला फैसला सभी व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा करने और एक धर्मनिरपेक्ष, बहुलवादी और बहुसंस्कृतिवादी सामाजिक व्यवस्था को बढ़ावा देने के राज्य के सकारात्मक कर्तव्य को मान्यता देता है.

याचिका में कहा गया है, ‘राज्य प्रशासन के अधिकारी इस खतरे से निपटने के लिए कोई भी ईमानदार प्रयास करने में पूरी तरह से विफल रहे हैं.’

याचिका में कहा गया है कि ऐसी घटनाएं सार्वजनिक कार्यक्रमों, सोशल मीडिया, समाचार चैनलों और फिल्मों में नफरती भाषणों के माध्यम से फैलाए गए ‘अल्पसंख्यक समुदायों के बहिष्कार की सामान्य कथाओं’ का परिणाम हैं.

इसमें कहा गया है, ‘परिणाम यह है कि सामान्य सांप्रदायिक नफरत और विभाजन का जहर आबादी के बड़े हिस्से पर हावी हो गया है. यह नफरत लिंचिंग और भीड़ हिंसा के अपराधों की पूर्व शर्त है.’

2018 के पूनावाला फैसले में निगरानी समूहों (Vigilante Groups) द्वारा मॉब लिंचिंग की हिंसक घटनाओं पर ध्यान दिया गया और इसे अस्वीकार्य माना गया.

एक जनहित याचिका पर दिए गए फैसले में कहा गया था, ‘सरकार का यह पवित्र कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों को अनियंत्रित तत्वों और सुनियोजित लिंचिंग के अपराधियों से बचाए और ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए सच्ची प्रतिबद्धता दिखाए, जो इसके कार्यों और योजनाओं में प्रतिबिंबित होनी चाहिए.’

उल्लेखनीय है कि शीर्ष अदालत ने जुलाई 2018 में यह कहते हुए कि ‘भीड़तंत्र नहीं चल सकता’ लिंचिंग से निपटने के लिए सरकारों को कानून बनाने के लिए कहा था. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ का कहना था कि डर और अराजकता के माहौल से निपटना सरकार की जिम्मेदारी है और नागरिक अपने आप में क़ानून नहीं बन सकते.

फैसले में राज्यों को जिलों में हेट स्पीच (नफरत भरे भाषणों), भीड़ द्वारा हिंसा और लिंचिंग की संभावित घटनाओं पर खुफिया जानकारी इकट्ठा करने के लिए विशेष कार्य बल (एसटीएफ) बनाने का निर्देश दिया गया था.

फैसले में यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि यह केंद्र और राज्य सरकारों का कर्तव्य था कि वे भड़काऊ संदेशों, वीडियो इत्यादि के प्रसार को रोकने के लिए कदम उठाएं, जो ‘किसी भी प्रकार की भीड़ हिंसा और लिंचिंग को उकसा सकते हैं.

अदालत ने निर्देश दिया था कि पुलिस भीड़ की हिंसा और लिंचिंग की शिकायतों पर एफआईआर दर्ज करने, आरोपियों को गिरफ्तार करने, प्रभावी जांच और आरोप पत्र दाखिल करने के लिए बाध्य है.

अदालत ने महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी और तहसीन पूनावाला जैसे लोगों की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान यह आदेश दिया था.

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