November 24, 2024

अनिल जैन

जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाते वक्त जो काम केंद्र सरकार और संसद को करना चाहिए था, वह काम देश की सर्वोच्च अदालत ने किया है। सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 370 को हटाने की संवैधानिकता पर पूरे 16 दिनों तक सुनवाई करने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रखा है। इस अनुच्छेद को हटाए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कुल 23 याचिकाएं दायर की गई थीं, जिन पर प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई में जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनवाई की।

सुप्रीम कोर्ट में 2 अगस्त से नियमित सुनवाई शुरू हुई थी और इस दौरान करीब 12 दिन तक संविधान पीठ ने याचिका दायर करने वालों के वकीलों की दलीलें सुनी। अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाने के केंद्र सरकार के फैसले को वैध ठहराने के लिए भी एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई थी, जिसे अदालत ने खारिज कर दिया था। अनुच्छेद 370 को हटाने के खिलाफ याचिकाएं दायर करने वालों की तरफ से वरिष्ठ वकील राजीव धवन, कपिल सिब्बल, दुष्यंत दवे, गोपाल सुब्रमण्यम, पीसी सेन, नित्या रामकृष्णन, दिनेश द्विवेदी, मेनका गुरुस्वामी, संजय पारिख, गोपाल शंकरनारायण आदि ने अपनी दलीलें पेश कीं।

सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 370 का समर्थन करने वाले पक्ष यानी केंद्र सरकार के पक्ष को भी सुना। केंद्र सरकार की तरफ से अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने चार दिन तक अपनी दलीलें पेश कीं। दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 6 सितंबर को दोनों पक्षों से कहा है कि उन्हें अपने पक्ष कुछ और भी कहना हो तो अगले तीन दिन में लिखित में दे सकते हैं। संविधान पीठ सभी दलीलों पर विचार करने के बाद अपना फैसला लिखेगी।

इस मामले में सर्वोच्च अदालत का फैसला क्या होगा? वह अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के तरीके को संवैधानिक ठहराएगी या अमान्य करेगी, कोई नहीं बता सकता। बहरहाल फैसला चाहे जो भी आए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में जिस शिद्दत से दलीलें पेश की गईं और संविधान पीठ ने जिस संजीदगी से उन दलीलों को सुना, वह भारतीय संविधान में दी गई न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था की बेहतरीन मिसाल है। लेकिन सवाल उठता है कि जो काम अभी सुप्रीम कोर्ट में हुआ है, क्या वह काम पहले संसद में नहीं होना चाहिए था? ऐसे कम ही लोग होंगे, जिन्हें याद होगा कि अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए पेश किए गए संविधान संशोधन विधेयक और प्रस्ताव को संसद के दोनों सदनों में पारित कराने में कितना समय लगा था?

अनुच्छेद 370 को हटा कर जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म कर उसे केंद्र शासित प्रदेश बनाने और राज्य का विभाजन करते हुए जम्मू-कश्मीर से लद्दाख को अलग कर उसे अलग से केंद्र शासित प्रदेश बनाने के लिए एक विधेयक लाया गया था और एक प्रस्ताव पेश किया गया था। 5 अगस्त 2019 को विधेयक और प्रस्ताव को राज्यसभा में पारित कराया गया और 6 अगस्त को लोकसभा ने भी विधेयक और प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। इतना महत्वपूर्ण फैसला लेने के अपने इरादे की जानकारी सरकार ने विपक्ष तो दूर, अपने गठबंधन के सहयोगी दलों तक को नहीं दी।

उचित तो यही होता कि सरकार इस मसले पर कदम उठाने से पहले सर्वदलीय बैठक बुला कर इस पर सभी दलों की राय जानती। यह सही है कि विपक्ष में ही नहीं बल्कि सत्तारूढ़ गठबंधन में भी कई पार्टियां घोषित तौर पर अनुच्छेद 370 को हटाने के खिलाफ थीं, लेकिन इससे सरकार के इरादे पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था और उस पर वह तब भी संसद के दोनों सदनों की मुहर लगवा सकती थी। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।

दोनों सदनों के सदस्यों को विधेयक का मसौदा पढ़ने और समझने का समय भी नहीं मिला। किसी को अंदाजा ही नहीं था कि सरकार इस तरह का कोई विधेयक पेश करने जा रही है। सरकार की ओर से गृहमंत्री ने आनन-फानन में विधेयक पेश किया। विधेयक पर बहस कराने की खानापूर्ति करने के लिए सदन के पीठासीन अधिकारियों ने विपक्ष के चुनिंदा सदस्यों को अपनी बात कहने के लिए नाममात्र का समय दिया और शोर-शराबे के बीच विधेयक पारित हो गया।

संसद का जो मंच कानून बनाने को लेकर विचार-विनिमय और बहस-मुबाहिसे के लिए होता है, वहां दोनों सदनों ने इतना महत्वपूर्ण संविधान संशोधन पारित करने में एक-एक दिन का समय भी नहीं लिया। जबकि सुप्रीम कोर्ट में इस पर सुनवाई पूरे 16 दिन खर्च किए हैं अब फैसला लिखने में भी संविधान पीठ के जजों को कई दिन लगेंगे।

सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई के दौरान जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ में विलय के समय वाले हालात, वहां के महाराजा हरि सिंह द्वारा अपने राज्य का भारत संघ में विलय करने के प्रस्ताव और संविधान के प्रावधानों पर बहुत बारीकी और विस्तार से विचार हुआ। इस पर दलीलें पेश की गईं कि संविधान में अनुच्छेद 370 का प्रावधान स्थायी था या अस्थायी। इस सवाल पर भी तर्क-वितर्क हुए कि इस प्रावधान को संविधान सभा ने मंजूरी दी थी और अब चूंकि संविधान सभा अस्तित्व में नहीं है तो संसद इसे हटा सकती है या नहीं। इस पर भी बहस हुई कि महाराजा हरि सिंह ने अपने राज्य की संपूर्ण संप्रभुता का समर्पण किया था या नहीं।

दरअसल कायदे से तो इन सारे सवालों पर पर संसद में बहस होना चाहिए थी। वहां बहस होती तो सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि इस पर दलीलें पेश करते। सरकार भी अपने इरादे का औचित्य साबित करने के लिए तर्क पेश करती। ऐसा होने से देश के आम लोगों की भी जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बारे में जानकारी बढ़ती और कई भ्रांतियां दूर होतीं। लेकिन अफसोस की बात है कि ऐसा नहीं हुआ। सिर्फ इस मामले में ही नहीं, अब तो संसद में किसी विधेयक पर आमतौर पर चर्चा होती ही नहीं है।

अब तो अगर संसद में किसी विधेयक पर चर्चा होती भी है तो नाममात्र की, अन्यथा तो विधेयक पेश होता है और हंगामे के बीच सरकार ध्वनि मत से उसे पारित करा लेती है। संसद का सत्र शुरू होने से पहले ही सरकार की ओर से यह बंदोबस्त कर लिया जाता है कि संसद सुचारू रूप से नहीं चले। विपक्षी पार्टियां राष्ट्रीय महत्व के और आम जनता से जुड़े मुद्दों पर बहस की मांग करती रहती हैं और शोर-शराबे के बीच सरकार अपने बहुमत के दम पर सभी प्रस्तावित विधेयक बिना बहस के ही पारित करा लेती है।

कुल मिला कर स्थिति यह है कि सरकार लगातार संसद का अवमूल्यन करती जा रही है और इस वजह से जो भूमिका संसद को निभाना चाहिए वह सुप्रीम कोर्ट को निभाना पड़ रही है। हालांकि देश के संसदीय लोकतंत्र के लिए यह कोई आदर्श स्थिति नहीं है लेकिन राहत की बात फिलहाल यही है कि हमारी सर्वोच्च अदालत मुश्तैदी से अपना फर्ज निभा रही है और बचे-खुचे लोकतंत्र के लिए उम्मीदों का सहारा बनी हुई है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *