कांग्रेस ने शुक्रवार को केंद्र सरकार पर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) से संबंधित सोशल ऑडिट समय पर नहीं कराने का आरोप लगाया और दावा किया कि सरकार सुनियोजित ढंग से अपने चक्रव्यूह में फंसाकर इस योजना को ‘इच्छामृत्यु’ दे रही है।
पार्टी महासचिव जयराम रमेश ने इस खबर का हवाला भी दिया, जिसमें कहा गया है कि कई राज्यों में मनरेगा से संबंधित सोशल ऑडिट इकाइयां निष्क्रीय हो गई हैं।
उन्होंने ‘एक्स’ पर पोस्ट किया, “ग्राम सभा द्वारा किया जाने वाला सोशल ऑडिट महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम का एक अनिवार्य हिस्सा है। यह जवाबदेही सुनिश्चित करने और पारदर्शिता को बढ़ाने के लिए है। मूल रूप से इसका उद्देश्य भ्रष्टाचार पर रोक लगाना है।”
रमेश ने कहा, “प्रत्येक राज्य में एक स्वतंत्र सोशल ऑडिट होता है, जिसे केंद्र द्वारा सीधे धन दिया जाता है, ताकि उसकी स्वायत्तता बरकरार रखी जा सके। अब इसकी फंडिंग में अत्यधिक देरी की बात सामने आ रही है। इसका नतीजा यह है कि सोशल ऑडिट समय पर नहीं हो पा रहा है।”
उन्होंने आरोप लगाया कि ऑडिट की इस पूरी प्रक्रिया से समझौता किया जाता है और फिर मोदी सरकार इस स्थिति का इस्तेमाल राज्यों को फंड देने से इनकार करने के लिए एक बहाने के रूप में करती है।
कांग्रेस महासचिव ने कहा कि पैसा नहीं मिलने के कारण मजदूरी का भुगतान आदि प्रभावित होता है। उन्होंने दावा किया, “यह और कुछ नहीं, बल्कि मनरेगा को सुनियोजित ढंग से चक्रव्यूह में फंसाकर इच्छामृत्यु देने जैसा है।”
बता दें कि 2021 और 2022 के कोविड वर्षों में बढ़ती मांग देखी गई थी क्योंकि लॉकडाउन और महामारी के कारण हुई तबाही ने अर्थव्यवस्था को धीमा कर दिया था, शहरी इलाकों से गांवों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन/प्रवासन हुआ था। महामारी समाप्त हो गई है लेकिन मनरेगा के तहत काम की मांग पिछले साल गिरावट के बाद फिर से बढ़ गई है।
इस योजना के तहत ग्रामीण मजदूरों को 100 दिनों का काम उपलब्ध कराया जाता है। हालांकि, आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि योजना के तहत जो काम दिए जाते हैं उन काम के दिनों की औसत संख्या पिछले साल लगभग 48 थी और पिछले कई वर्षों से यह लगभग 50 दिन पर टिकी हुई है, जबकि औसत मजदूरी बहुत कम बनी हुई है – पिछले साल यह प्रति दिन 217.91 रुपये थी और उससे एक साल पहले 208.84 रुपए थी।
कड़ी मेहनत, कम मजदूरी और साल में लगभग 50 दिनों के काम की छिटपुट प्रकृति के बावजूद, यह योजना उन करोड़ों हताश ग्रामीण परिवारों के लिए एक जीवन रेखा बनी हुई है जो किसी तरह अपनी आय को पूरा करने के लिए पूरक मजदूरी की तलाश में रहते हैं।