November 23, 2024

देश आज एक महत्वपूर्ण समय से गुज़र रहा है। वह एक ऐसे दोराहे पर खड़ा है जिसके एक तरफ आज़ादी और दूसरी तरफ हिंदू श्रेष्ठता से उपजी तानाशाही है। इस काल को मोदी सरकार ने ‘आज़ादी का अमृतकाल’ नाम दिया है। लेकिन वास्तव में, इस काल में भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त आज़ादी और धर्मनिरपेक्षता आज आसन्न संकट में हैं। सभी देशवासियों के लिए न्याय, समता और समानता प्रदान करने वाली संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था आज संकट में है।

मई, 2014 में जिस संविधान की शपथ लेकर नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई थी, आज वह उसी के सिद्धांतों और लोकतंत्र को अपनी हिंदुत्व की राजनीति के अनुरूप ढालने की कोशिश कर रही है। सत्ता में आने के बाद से वह अपनी मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिंदुराष्ट्र एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए नागरिक संशोधन कानून (सी.ए. ए), जम्मू-काश्मीर में धारा 370 हटाने और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण आदि के द्वारा सुनियोजित ढंग से कोशिश कर रही है।

ऐसा करते हुए वह देश की विविधतापूर्ण सभ्यता संस्कृति के ताने-बाने को नुकसान पहुंचाने और भारत की एकता, अखंडता को दांव पर लगाने से भी नहीं हिचक रही। ऐसे में, यह समय देश, संविधान और लोकतंत्र बचाने का समय है। उसके लिए एकजुट होकर हिन्दू फासीवादियों से भारत को आज़ाद कराने की ज़रूरत है।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में मौजूदा राजसत्ता के चरित्र को समझने के लिए आर.एस.एस और उसकी ‘हिंदुत्व’ की विचारधारा को समझना जरूरी है। लेकिन उससे पहले फासीवाद को जानना, समझना आवश्यक है, जो उसका प्रेरणास्रोत है। उसको समझे बिना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसके प्रचारक रहे नरेंद्र मोदी और शासन कर रही भारतीय जनता पार्टी के चाल, चरित्र और चेहरे को, उनके वास्तविक रूप में, समझना और पहचानना कठिन है।

फासीवाद या फासिस्टवाद (फासिज्म) इटली में बेनिटो मुसोलिनी द्वारा संगठित ‘फेसियो डी कांबैटिमेंटो’ राजनीतिक आंदोलन था, जो मार्च 1919 में शुरू हुआ था। यह आंदोलन मूलरूप से समाजवाद या साम्यवाद के विरुद्ध नहीं बल्कि उदारतावाद के विरुद्ध था। फासीवाद धुर दक्षिणपंथी सत्तावादी उग्र राष्ट्रवाद का एक रूप है, जो तानाशाही शक्ति, विपक्ष के जबरन दमन, समाज और अर्थव्यवस्था पर मजबूत पकड़ की विशेषता लिए होता है।

पहले विश्व युद्ध के दौरान यह इटली में उभरा था। इसे अराजकतावाद, लोकतंत्र, उदारतावाद और मार्क्सवाद के विकल्प के रूप में प्रचारित किया गया था। लेकिन इसे नागरिकों के जीवन में दखल देने के लिए अभूतपूर्व अधिकार मिले हुए थे।

फासीवादी उदार लोकतंत्र की जगह राष्ट्र को सशस्त्र संघर्ष के लिए तैयार करने, आर्थिक कठिनाइयों के समाधान के लिए एक अधिनायकवादी, एकात्मक (एक पक्षीय) राज/शासन के तहत समाज को एकजुट करने की अवधारणा रखते हैं। फासीवाद हिंसा को नकारात्मक नहीं मानता और साम्राज्यवाद, राजनीतिक हिंसा और युद्ध को राष्ट्रीय कल्याण के रूप में देखता है।

फासीवाद का चरम अधिनायकवाद (तानाशाही) और राष्ट्रवाद अक्सर नस्लीय शुद्धता/श्रेष्ठता या मास्टर रेस (नस्ल) में विश्वास रखता है। यह नस्लीय कट्टरता के विचार के कारण विरोधियों की सामूहिक हत्या या नरसंहार करने में संकोच नहीं करता।

इतिहासकार स्टेनली जी. पायने फासीवाद को इस तरह परिभाषित करते हैं-

1. ’फासीवाद निषेध’- उदारतावाद विरोधी, साम्यवाद विरोधी और रूढ़ीवाद विरोधी।

2. ‘फासीवाद लक्ष्य’ – आर्थिक संरचना को विनियमित करना।

एक आधुनिक स्व-निर्धारित संस्कृति के भीतर सामाजिक संबंधों को बदलने और एक साम्राज्य में राष्ट्र के विस्तार के लिए एक राष्ट्रवादी तानाशाही का निर्माण।

3. ‘फासीवादी शैली’- रोमांटिक (धार्मिक) प्रतीकवाद, सामूहिक लामबंदी, हिंसा का एक सकारात्मक दृष्टिकोण और पुरुषत्व, युवा और करिश्माई सत्तावादी नेतृत्व को बढ़ावा देने का एक राजनीतिक सौंदर्य।

अपनी पुस्तक ‘How Fascism Works: The Politics Of Us And Them (2108) में येल यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर जेसन स्टेनली कहते हैं: ‘नेता का मत है कि वही इसे हल कर सकता है और उसके सभी राजनीतिक विरोधी दुश्मन या देशद्रोही हैं।’

फासीवाद की जड़ वित्तीय पूंजी की बुनियाद में निहित है और यह साम्राज्यवाद के आंतरिक अंतरविरोधों के अत्यंत तीव्र हो जाने का परिणाम है। जब यह अंतरविरोध तीखे हो जाते हैं, तो एक गंभीर आंतरिक संकट पैदा हो जाता। तब उसके समाधान के तौर पर फासीवाद सामने आता है। लेकिन वह समस्या को हल नहीं कर पाता और यह स्थिति युद्धों को जन्म देती है।

उदाहरण के लिए 1930 के दशक में जब इंग्लैंड और फ्रांस जैसी यूरोप की ताकतों का अपना औपनिवेशिक साम्राज्य था और अमेरिका ‘बिना किसी उपनिवेश’ के अपनी साम्राज्यवादी हुकुमशाही चला रहा था, उस समय जर्मनी और इटली दोनों पर विदेश में साम्राज्यवादी नीति पर अमल करने की पाबंदी थी।

प्रथम विश्व युद्ध में यह दोनों आपस में दुश्मन थे और उसमें अपने उपनिवेशों को खोकर कमजोर हो गए थे। इस कारण इन दोनों देशों को उस समय अभूतपूर्व आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ रहा था। उन संकटों के कारण उनमें मज़दूर वर्ग का तीखा संघर्ष फूट पड़ा था। लेकिन वहां क्रांति के द्वारा इस सामाजिक, आर्थिक, एकाधिकारी वित्तीय पूंजी और राजनीतिक नेतृत्व के संकट को हल करने के लिए अनुकूल परिस्थिति मौजूद नहीं थी। इस स्थिति ने इन देशों में फासीवाद को जन्म दिया।

इस तरह चौतरफा आर्थिक संकटों और राजनीतिक अस्थिरता से पैदा होने वाली सामाजिक अराजकता फासीवाद के लिए उपजाऊ जमीन तैयार करती है। ऐसी स्थिति फासीवाद के लिए एक सुनहरा अवसर प्रदान करती है। एक बार जब फासीवाद मजबूती से अपने पांव जमा लेता है, जैसा कि इटली और जर्मनी में हुआ था, तो मध्यवर्गीय तबके के साथ-साथ आबादी के अन्य तत्व भी, जैसे कि असंगठित मजदूर, बेरोजगार नौजवान, अपराधी और लंपट तत्व भी फासीवादियों की ओर आकर्षित होने लगते हैं।

फासीवादी चुनावों के जरिए असंतुष्ट जनता के नाराज बड़े हिस्से को अपील करते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। वह समाज के एक हिस्से को निशाना बनाकर, उसके खिलाफ आम जनता के बीच नफरत पैदा करते हैं; उसके लिए पूरी तरह झूठा और दुर्भावनापूर्ण प्रचार व्यवस्थित ढंग से करते हैं।

फासीवाद वित्तीय पूंजी के सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी, सबसे अधिक उग्र-राष्ट्रवादी, सबसे अधिक साम्राज्यवादी तत्वों की एक खुली आतंकवादी तानाशाही होती है। यह कहना कतई गलत नहीं कि फासीवाद अपने-आप में वित्तीय पूंजी की सरकार होती है। यह मजदूर वर्ग, किसानों और बुद्धिजीवियों के क्रांतिकारी हिस्से का संगठित जनसंहार करती है। फासीवाद अपनी विदेश नीति में सबसे क्रूर किस्म का उग्र-राष्ट्रवाद है, जो दुनिया के लोगों के बीच घृणा के बीज बोता है।

दूसरे विश्व युद्ध से पहले के दौर में, जब यूरोपीय फासीवाद का जन्म हुआ था, पूंजी का चरित्र अपेक्षाकृत राष्ट्र-केंद्रित था। लेकिन उसके बाद उसका अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया। उसके फलस्वरूप उसके संचय के जटिल आयाम और वित्तीय पूंजी के अंतरराष्ट्रीयकरण के कारण फासीवाद आज अपरिहार्य रूप से कई गुना अधिक दमनकारी और सैन्यवादी हो गया है।

मौजूदा दौर में यूक्रेन और फिलिस्तीन के युद्ध इसके गवाह हैं। दूसरी ओर, फासीवाद के विरोध के लिए आज विश्व में कोई वैचारिक और राजनीतिक नेतृत्व और फासीवाद-विरोधी संघर्ष का कोई अंतर्राष्ट्रीय मंच भी मौजूद नहीं है।

इसके विपरीत 1930 की दशक में जब दो साम्राज्यवादी देशों, इटली और जर्मनी, ने फासीवाद को अपनाया था, तो उस समय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (कोमिंटर्न) और सोवियत संघ ने फासीवाद-विरोधी संघर्ष को वैचारिक और राजनीतिक नेतृत्व दिया था। आज उसके अभाव में एक तरफ अकेले यूरोप में ही दस नव-फासीवादी पार्टियां सत्ता में हैं और वित्तीय धनकुबेरों के समर्थन से उन्होंने मजदूरों, प्रवासियों और शरणार्थियों के खिलाफ यूरोप में फासीवादी गठबंधन बनाने की दिशा में कदम उठाना भी शुरू कर दिया है।

कहने का अभिप्राय यह कि आज दुनिया में तेज़ी से बढ़ते फासीवाद का समग्र रूप में मूल्यांकन कर उसे प्रभावी ढंग से चुनौती देने की क्षमता आज अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक दलों के पास नहीं है।

भारत भी ऐसे हालात का अपवाद नहीं है। हालांकि इस समय भारत में कॉरपोरेट, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी और ‘हिंदुत्व’ के बीच बने गठजोड़ के कारण उसकी खासियत थोड़ी अलग तरह की है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि इस अलग किस्म के भगवा फासीवाद को लेकर देश में विरोधी मोर्चा या मंच के घटकों के बीच अभी तक एक स्पष्ट समझ विकसित नहीं हो सकी है। इस कारण उसके विरोध के लिए एक देशव्यापी मंच और संघर्ष के लिए एक कारगर रणनीति और रूपरेखा भी तैयार नहीं हो पाई है।

भारत की विशिष्टतायें या राष्ट्रीय खासियतें, जो उसके इतिहास, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक चरित्र में मौजूद हैं, वह कॉरपोरेट वित्त पूंजी के साथ घुलमिल कर हिंदुत्व फासीवाद के विकास के लिए खाद-पानी का काम करती हैं। उन्हें समझे बिना भगवा फासीवाद के विशिष्ट चरित्र को समझना, उसका प्रतिरोध करना और उसे परास्त करना संभव नहीं है।

भारतीय फासीवाद का विशिष्ट चरित्र, जो आर.एस.एस की विचारधारा में समाविष्ट है, एक आक्रामक ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ या ‘हिंदुत्व’ है, जिसका लक्ष्य हिंदू धार्मिक राजसत्ता या हिंदूराष्ट्र की स्थापना करना है। लेकिन, जैसा की स्पष्ट है इस राष्ट्रवाद की अंतर्वस्तु उस क्लासिकल फासीवाद से अलग है, जिसने बुर्जुआ राष्ट्रीय पूंजीवादी हितों की रक्षा करने के लिए हमलावर युद्ध छेड़ा था।

एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के देशों में, जहां औपनिवेशिक और नव-औपनिवेशिक अत्याचारों का एक लंबा दौर रहा है, वहां राष्ट्रवाद या देश प्रेम को, बिना शक, उपनिवेशवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्षों से जुड़ा होना चाहिए, इसलिए इन देशों में साम्राज्यवाद का विरोध राष्ट्रवाद का एक जरूरी अंग होता है।

दूसरी तरफ, भारत में न तो औपनिवेशिक काल में और न ही द्वितीय महायुद्ध के बाद के काल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्वतंत्र राष्ट्रीय पूंजीवादी विकास के लिए कभी कोई सच्ची कोशिश की। इसके विपरीत, इसकी स्थापना से लेकर अब तक का इसका पूरा इतिहास सच्चे राष्ट्रवाद के साथ विश्वासघात करने का रहा है।

आज भी इसकी घोर दक्षिणपंथी आर्थिक दिशा यानि नव-उदारवाद और कॉरपोरेटीकरण के प्रति इसका झुकाव साफ तौर पर नव- उपनिवेशिक वैश्विक व्यवस्था के नेता अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रति इसकी निष्ठा को दर्शाता है। मतलब, इसका ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी की सेवा करने के लिए केवल एक मुखौटा भर है। इसे आर.एस.एस के युद्ध-प्रिय और छद्म राष्ट्रवाद और जनता की प्रगतिशील जनवादी राष्ट्रीय भावना के बीच फर्क करके देखा जा सकता है।

जनवादी राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद का विरोधी होता है, जबकि छद्म राष्ट्रवाद अंध-राष्ट्रवादी, युद्ध-प्रिय, फूट-परस्त, अलगाववादी और प्रतिक्रियावादी होता है, जो हर हाल में फासीवाद की ओर ले जाता है। वर्तमान ऐतिहासिक संदर्भ में जनवादी राष्ट्रवाद का स्वरूप साम्राज्यवाद विरोधी है और इसलिए वह प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और समावेशी है; जो मजदूरों, किसानों, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और सभी उत्पीड़ितों में संघर्षशील एकता कायम करता है।

भारतीय फासीवाद का ब्राह्मणवादी हिंदू श्रेष्ठता की ओर पूर्ण वैचारिक झुकाव इसका एक खास चरित्र है, जो इसे बहुत अधिक जहरीला बना देता है। इस विचारधारा के मुताबिक भारत की जनता का विशाल बहुमत, जिसके अंतर्गत निम्न और उत्पीड़ित जातियां आती हैं, मनुष्य से कमतर, किसी नागरिक या जनवादी अधिकार का हकदार नहीं है।

इसी सोच के चलते मोदी सरकार के कार्यकाल में एक तरफ दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों एवं अन्य उत्पीड़ित जातियों पर बिना रुके अत्याचार बढ़ते रहे हैं। वह लिंचिंग (भीड़ बनाकर हत्या करना), सामूहिक बलात्कार, ऑनर किलिंग (सम्मान के नाम पर हत्या) और उच्च शिक्षा और शोध संस्थानों में ‘संस्थागत हत्या’ के रूप में सामने आते रहे हैं।

दूसरी तरफ आर.एस.एस उत्पीड़ित जातियों को हिंदुत्व के दायरे में छल, बल द्वारा शामिल करने की प्रक्रिया चलाने के साथ-साथ, घोर अवसरवादी ढंग से, चतुराई से आज पहचान की राजनीति का इस्तेमाल कर अपने लिए जाति-आधारित वोट बैंक भी तैयार कर रहा है।

इसके साथ ही वह भगवाकरण की ‘फूट डालो, राज करो’ की हमलावर नीति पर चलते हुए विभिन्न जाति-आधारित दलों को तोड़ने-फोड़ने में भी सफल हो रहा है, जिससे वह उन्हें बहुसंख्यकवादी भगवा झंडे के नीचे लाकर अपने अंतिम लक्ष्य, मनुस्मृति आधारित,  हिंदुराष्ट्र की स्थापना कर सके।

(अवतार सिंह जसवाल का लेख।)

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