प्रधानमंत्री मोदी के अनुसार 22 जनवरी अब ‘विस्तारित गणतंत्र दिवस’ समारोह का हिस्सा है। उन्होंने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जन्मदिन के अवसर पर, लाल किले से अपने सम्बोधन में कहा कि 22 जनवरी, जिस दिन राम मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा हुई, अब ‘लोकतंत्र के उत्सव’ का हिस्सा हो गया है।
यह धूर्तता और पाखंड की पराकाष्ठा है। संकीर्ण साम्प्रदायिक राजनीति के लिए न सिर्फ भोली-भाली जनता की धार्मिक भावना का दोहन किया जा रहा है, बल्कि जनगण की लोकतंत्र और गणतंत्र की चेतना को भी भ्रष्ट किया जा रहा है।
यह दिखाता है कि हमारा गणतंत्र और उसके नागरिक समस्त संस्थाओं-संसाधनों-सम्पदा पर काबिज कितनी खतरनाक ताकतों के दुष्चक्र में फंस चुके हैं।
देश-दुनियां में नैतिक वैधता हासिल करने के लिए संघ-भाजपा प्रचार-तंत्र द्वारा इस बात पर बहुत जोर दिया जा रहा है कि मन्दिर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से बन रहा है। स्वयं मोदी ने 22 जनवरी को अयोध्या में अपने भाषण में इसका खास जिक्र किया कि उच्चतम न्यायालय के फैसले से मन्दिर निर्माण को न्यायिक वैधता मिली, “मैं आभार व्यक्त करूंगा भारत की न्यायपालिका का, जिसने न्याय की लाज रख ली।”
बहरहाल, भले ही मन्दिर निर्माण न्यायालय के आदेश से हो रहा है, पर इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगा कि देश के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के पूजास्थल को दिन दहाड़े ढहा कर उसी स्थान पर मन्दिर बनाया गया।
उच्चतम न्यायालय ने उसी आदेश में यह भी माना था कि मन्दिर के पक्ष में फैसला वह आस्था के आधार पर दे रहा है, किसी evidence के आधार पर नहीं। किसी मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी थी, इसका उसे कोई पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिला। उसने मस्जिद ढहाए जाने को क्रिमिनल एक्ट माना था।
मोदी ने दावा किया , “रामलला के इस मंदिर का निर्माण भारतीय समाज के शांति, धैर्य, आपसी सद्भाव और समन्वय का प्रतीक है।” सच्चाई यह है कि आपसी सद्भाव और शांति जिस हद तक भी मन्दिर निर्माण के अभियान के दौरान बनी रही, उसका श्रेय दोनों समुदायों की आम जनता को जाता है, वरना मस्जिद विध्वंस की मुहिम में संघ-भाजपा ने इसे बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
यहां तक कि आस्था का तर्क देते हुए उन्होंने देश के कानून के माध्यम से इसके समाधान के रास्ते को ही खारिज़ कर दिया था। मन्दिर भले ही न्यायिक वैधता से बन रहा है, लेकिन मस्जिद तो उच्चतम न्यायालय में दाखिल affidavit के बावजूद बलपूर्वक ढहा दी गयी थी।
इस तरह बनाये जा रहे मन्दिर के जश्न का आने वाले दिनों में क्या असर होने वाला है?
क्या यह हमारी राष्ट्रीय एकता को मजबूत करेगा?
एक बहुसंख्यकवादी राज की जीत का जश्न मनाकर और अल्पसंख्यकों के दिलों में अपने दोयम दर्जे का शहरी होने का जख्म भरकर, उनके अंदर देश की राज्य और न्यायिक व्यवस्था से अलगाव (alienation) का स्थायी बीज डालकर, क्या राष्ट्रीय एकता और लोकतंत्र को मजबूत किया जा रहा है?
6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में महज एक मस्जिद नहीं गिरी थी, वरन यह आज़ादी की लड़ाई के संचित मूल्यों के आधार पर आधुनिक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण की यात्रा को derail कर देने की लम्बे समय से जारी मुहिम का एक निर्णयक turning point था। 22 जनवरी को अयोध्या में जो हो रहा है, वह उसी का चर्मोत्कर्ष है। यहां से इस मुहिम को फिर एक नए चरम की ओर ले जाने की कोशिश होगी।
आज reconciliation की बात अल्पसंख्यकों, सेकुलर ताकतों को defensive कर देने और जश्न में शामिल न होने वालों को villain घोषित करने का धूर्त खेल है। मस्जिद ढहाकर उसकी जगह मन्दिर निर्माण के राजकीय जश्न को महान राष्ट्रीय गौरव बताना national-social reconciliation का उपक्रम नहीं, अल्पसंख्यकों को चिढ़ाने और बहुसंख्यकवादी राज की विजय पताका फहराने का जयघोष है।
मिथकीय राष्ट्रीय गौरव की पुनर्स्थापना के नाम पर आज हमारे आधुनिक राष्ट्रनिर्माण की बुनियाद में पलीता लगाया जा रहा है।
इसके उन्माद में आज़ादी की लड़ाई से निकले भारत के लोकतंत्र को खत्म कर देने तथा सामाजिक-आर्थिक न्याय के महान मूल्यों की लड़ाई को पूरी तरह पृष्ठभूमि में धकेल देने और भारत को पूरी तरह देशी-विदेशी कॉरपोरेट के हवाले कर देने का षड्यंत्र है।
मोदी ने अयोध्या में दावा किया कि भव्य राम मंदिर साक्षी बनेगा- भारत के उत्कर्ष का, भारत के उदय का। ये भव्य राम मंदिर साक्षी बनेगा- भव्य भारत के अभ्युदय का, विकसित भारत का।
ज़ाहिर है यह सब मन्दिर के सवाल को राष्ट्रवाद का सवाल बना देने की वही धूर्तता है जो बाबरी मस्जिद को राष्ट्रीय अपमान का प्रतीक बताकर की गई थी।
कहा जा रहा है कि इससे गुलामी की मानसिकता का अंत हो जाएगा। यह साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद के मूल्यों को सर के बल खड़ा कर देने, उस लड़ाई की विरासत को मिटा देने तथा मुस्लिम द्वेष को ही देशभक्ति बना देने का षड्यंत्र है।
यह उस समूची धारा के लिए आज़ादी की लड़ाई में भाग न लेने, माफी मांगने और मुखबिरी करने के आरोप और guilt से मुक्त हो जाने का बहाना है।
राष्ट्रपति को लिखे सार्वजनिक पत्र में मोदी का यह दावा कि, इसकी प्रेरणा से 2047 तक भारत के महान विकसित राष्ट्र बनने का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा, कोरी लफ्फाजी के सिवा कुछ नहीं है।
10 साल के अखण्ड मोदी राज के बाद आज हमारी अर्थव्यवस्था की सच्चाई क्या है?
स्तम्भकार अजीत साही लिखते हैं-
“International Monetary Fund ने पिछले महीने एक रिपोर्ट में बताया कि मोदी सरकार बेतहाशा डॉलर बेच कर रुपया ख़रीद रही है। IMF के मुताबिक़ दिसंबर 2022 से लेकर अक्टूबर 2023 के ग्यारह महीनों में भारत के रिज़र्व बैंक ने अठहत्तर बिलियन डॉलर बेच डाले रुपया ख़रीदने के लिए ताकि महंगाई को चुनावी वर्ष में किसी तरह काबू में रखा जा सके।
जब मोदी प्रधानमंत्री बने थे तो एक अमेरिकी डॉलर साठ रुपए के बराबर था। आज एक अमेरिकी डॉलर तिरासी रुपए के बराबर है।
दरअसल 2014 से रुपया बेतहाशा गिरता जा रहा था। इसकी वजह ये है कि सरकार कितना भी झूठ बोले, सच तो ये है कि मोदी ने भारत की अर्थव्यवस्था का बैंड बजा दिया है। बैंकों का बुरा हाल है। सरकार कंगाल होने के क़रीब है और उधार पर जी रही है। पूंजीपति नए उद्योगों में निवेश (investment) ही नहीं कर रहे हैं। धंधे का बुरा हाल है।
.. दो साल पहले भारत के imports में पिछले साल के मुकाबले बीस फ़ीसदी की बढ़त हुई और exports में सिर्फ़ बारह फ़ीसदी की बढ़त हुई, यानी exports के मुक़ाबले imports अधिक तेज़ी से बढ़ रहे हैं।
भारत की economy में जो भी बढ़त हो रही है वो सिर्फ़ इस वजह से है कि मोदी सरकार दबा के सड़क, एयरपोर्ट और बंदरगाह बनाने जैसे सार्वजनिक कामों में पैसा ख़र्च कर रही है। लेकिन इसके लिए पैसा कहां से आ रहा है? जब नौकरियां नहीं हैं, जब उद्योग चरमरा रहा है, तो फिर सरकार की कमाई कहां से हो रही है?
दरअसल ये सारा काम उधार के पैसे से हो रहा है। उधार का पैसा वापस भी करना होता है। उस पर ब्याज भी बहुत अधिक होता है। कितने ही देश उधार न चुका पाने की वजह से कंगाल हो गए हैं। पाकिस्तान उनमें से एक है।”
राम-मन्दिर का सारा हो-हल्ला राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और आम जनता की इसी बदहाली से ध्यान हटाकर हिन्दू राष्ट्र के कोलाहल में आम चुनाव जीत लेने के लिए है।
नागरिकों की सच्ची खुशहाली और भागेदारी पर आधारित लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण और गणतंत्र के rejuvenation का ठोस वैकल्पिक एजेंडा और कार्यक्रम पेश कर विपक्ष 2024 में बाजी पलट सकता है।
(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे हैं।)