सत्येंद्र रंजन
इस महीने की दो घटनाओं ने देश के एक बड़े हिस्से में नाउम्मीदी पैदा की है। यह समाज का वो हिस्सा है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की कार्य प्रणाली, तथा भारतीय जनता पार्टी और उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से असहमत है।
पहली घटना तीन दिसंबर को हुई, जिस रोज पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव नतीजे आए। इनमें तीन हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा की जीत से आबादी के इस हिस्से को तगड़ा झटका लगा। खास कर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की पराजय को लेकर यह तबका एक हद तक आश्वस्त था।
राजस्थान में गुजरे तीन दशकों में हर पांच साल में सत्ता बदलने के रिकॉर्ड के बावजूद इस समूह में आशा थी कि संभवतः अशोक गहलोत के करिश्मे से कांग्रेस वहां भाजपा को हराने में सफल हो जाएगी। मगर अब यह साफ है कि ऐसी तमाम उम्मीदें रेत की बुनियाद पर टिकी थीं।
दूसरी घटना 11 दिसंबर को हुई, जिस रोज सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर को विशेष अधिकार देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के सरकार/संसद के कदम पर अपना फैसला सुनाया। चूंकि यह कदम संवैधानिक प्रावधान और उसकी भावना का खुला उल्लंघन करते हुए उठाया गया था, इसलिए यह आशा वाजिब थी सर्वोच्च न्यायालय कम-से-कम इस कदम की असंवैधानिकता की चर्चा करेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
इसके अलावा जिस तरह कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर को दो भागों में बांटने और दोनों हिस्सों का दर्जा गिरा कर केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बेहद अहम मुद्दे पर निर्णय देने से इनकार कर दिया, उससे मायूसी और ज्यादा बढ़ गई।
गुजरे वर्षों में न्यायपालिका का रिकॉर्ड कुछ ऐसा है, जिससे ये धारणा बनती चली गई है कि अदालतें अवरोध एवं संतुलन (check and balance) की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के बजाय वर्तमान केंद्र सरकार की वैचारिक एवं राजनीतिक परियोजनाओं को पूरा करने में सहायक का रोल अदा कर रही हैं। अनुच्छेद 370 संबंधी निर्णय ने इस धारणा को और पुख्ता बना दिया है।
तो यह सवाल चर्चित हुआ है कि अगर भाजपा को चुनावों में हराना लगातार कठिन होता जा रहा है और दूसरी तरफ अदालतों से भारतीय संविधान की मूलभूत भावना के अनुरूप न्याय पाना दूभर हो गया है, तो फिर भारत में लोकतंत्र एवं कानून के राज (rule of law) के सिद्धांत के बचे रहने की कितनी उम्मीद की जा सकती है? यह व्यग्रता उचित है। जब कोई रास्ता नजर आता, तो इनसान की स्वाभाविक प्रतिक्रिया हताशा में चले जाने की होती है। लेकिन क्या सचमुच हमारे सामने हताश होने की स्थिति है?
मानव सभ्यता के इतिहास का तजुर्बा यह है कि हताशा सिर्फ अल्पकालिक नजरिए का परिणाम होती है। जबकि दीर्घकालिक दृष्टिकोण हमें स्थितियों का अधिक गंभीरता से विश्लेषण करने और उसके अनुरूप रणनीति बनाने की समझ देती है। राजनीति में घटनाएं अक्सर उस तरह स्वतंत्र रूप से घटित नहीं होतीं, जैसा ऊपर से नजर आता है। अगर किसी पार्टी या नेता का उदय या ह्रास होता है, तो उसके पीछे कुछ खास परिघटनाएं काम कर रही होती हैं।
उदारवादी लोकतंत्र का किताबों में चाहे जितना महिमामंडन किया गया हो, हकीकत यही है कि यह शासन तंत्र भी शासक वर्गों द्वारा आर्थिक-राजनीतिक सिस्टम को अपने अनुरूप चलाने के मकसद से अस्तित्व लाया गया। सिस्टम की वैधता (legitimacy) बनी रहे, इसलिए जनता से निर्वाचन और अवरोध एवं संतुलन की व्यवस्थाएं की गईं।
इसे ऐसे कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक द्वंद्व के बीच शासक वर्गों ने अपने विशेषाधिकारों पर कुछ समझौता करते हुए इस तंत्र को स्वीकार किया, ताकि वे अपने व्यापक हितों को बचाए रख सकें। लेकिन यह सिस्टम सचमुच- जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा संचालित- हो, ऐसी कोई मिसाल दुनिया में नहीं है। खास कर अगर जनता का मतलब हम श्रमिक वर्ग से समझते हों।
दरअसल, राजनीतिक व्यवस्थाओं का विकास-क्रम विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच संघर्ष की एक लंबी कथा है, जिसमें पलड़े बारी-बारी से एक से दूसरी तरफ झुकते रहे हैं। आज अगर भाजपा लगभग अपराजेय स्थिति में नजर आती है, तो यह पलड़े का कुछ खास वर्ग हितों की तरफ झुकने का परिणाम है। इसलिए भाजपा की शक्ति को समझने के लिए जरूरी है कि हम उन परिघटनाओं पर गौर करें, जिन्होंने गुजरे कुछ दशकों में पलड़े को इस दिशा में झुका दिया।
इन परिघटनाओं का जन्म उपनिवेशवाद- यानी ब्रिटिश गुलामी- के खिलाफ लंबे संघर्ष को दौरान हुआ था। उस संघर्ष के दौरान विदेशी गुलामी से मुक्ति के साथ-साथ आर्थिक एवं सामाजिक शोषण की व्यवस्थाओं से आजादी की जागरूकता का भी प्रसार वंचित तबकों में हुआ था। उससे लोकतंत्र की मांग ने जोर पकड़ा।
उन परिघटनाओं ने आजादी के बाद अस्तित्व में आए भारतीय संविधान की विचारधारा, तत्कालीन सरकारों की नीतियों, और राजनीतिक दलों के प्रभाव को निर्धारित किया था। तब नेहरूवादी कांग्रेस उन तमाम परिघटनाओं को काफी हद खुद में समेटने में सफल रही। यही उसकी ताकत का आधार बना। जब तक ये परिघटनाएं समाज में प्रभावी रहीं, कांग्रेस भी देश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनी रही। जो अन्य पार्टियां उस समय शक्तिशाली थीं, उनकी राजनीतिक ताकत भी उन्हीं परिघटनाओं से बनी थी।
मगर इतिहास की द्वांद्वात्मक (dialectical) समझ हमें यह बताती है कि हर परिघटना का प्रतिवाद (anti-thesis) समय के साथ अस्तित्व में आता है। तो तत्कालीन प्रभावशाली परिघटनाओं का प्रतिवाद भी उभरा, जो 1970 का दशक आते-आते ठोस रूप लेने लगा।
1990 आते-आते वैश्विक और घरेलू दोनों परिस्थितियां ऐसी हो गईं, जिसमें उपनिवेशवाद से संघर्ष के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आई राज्य-व्यवस्था का प्रतिवाद राजनीति की प्रमुख धारा बन गया। भारत में यह प्रतिवाद तीन परिघटनाओं में व्यक्त हुआ, जिन्हें तीन शब्दों- मार्केट, मंदिर और मंडल- से हम समझ सकते हैं।
मार्केट से मतलब नव-उदारवादी नीतियों से है, जिन्हें अपनाते हुए अर्थव्यवस्था को नियोजित करने की अपनी भूमिका सरकार ने छोड़ दी और मुक्त बाजार के मूलमंत्र को अपना लिया। मंदिर से मतलब हिंदुत्ववादी राजनीति के अभूतपूर्व उभार से है, जिसने स्वतंत्रता के बाद से देश में हावी रहे वैचारिक विमर्श को पूरी तरह बदल दिया।
मंडल से मतलब जातीय पहचान और प्रतिनिधित्व की नई उभरी सियासत से है, जिसने आरंभिक दिनों में समाज में सकारात्मक बदलाव की उम्मीदें जगाईं, लेकिन धीरे-धीरे वह एक अभिजात्यवादी राजनीतिक परिघटना में तब्दील हो गई। गहराई से गौर करें, तो नजर आएगा कि ये तीनों परिघटनाएं एक दूसरे से जुड़ी हुई थीं और तीनों ने एक दूसरे को बल प्रदान किया।
इन तीन परिघटनाओं के हावी होने के साथ कांग्रेस अपने पराभव की दिशा में चल निकली। मार्केट परिघटना का सूत्रधार बन कर उसने बाजार (यानी कॉरपोरेट्स) की प्रिय पार्टी बनने की कोशिश जरूर की। लेकिन इस क्रम में वंचित हो रहे लोगों संतुष्ट रखने और उन्हें गोलबंद करने का कोई सूत्र उसके पास नहीं था।
अधिकार आधारित विकास नीति (rights based approach to development) को लागू करने का जो तरीका उसने अपनाया, वह जन-गोलबंदी के लिहाज से कमजोर साबित हुआ। उलटे इसकी वजह से शासक वर्गों में उसके खिलाफ एक जोरदार प्रतिक्रिया हुई।
इसके पहले मंदिर की परिघटना ने भाजपा को भारतीय राजनीति एक प्रमुख धुरी बना चुकी थी। भाजपा ने हिंदुत्व के नाम पर पहले भारतीय समाज के पारपंरिक शासक वर्ग को पूरी तरह अपने पाले में किया, फिर इसी एजेंडे से मतदाताओं को गोलबंद करने की ऐसी क्षमता दिखाई, जिससे आधुनिक शासक वर्ग (कॉरपोरेट्स) की भी वह सबसे प्रिय पार्टी बन गई। इस बीच भाजपा स्वदेशी बनाम विदेशी की दुविधा से निकलते हुए निर्बाध भूमंडलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों को गले लगा चुकी थी।
मंडल/बहुजन की परिघटना से हिंदी भाषी राज्यों में नई राजनीतिक शक्तियां उभर कर सामने आईं। उससे एक समय यह संभावना जगी थी कि ये ताकतें आने वाले कई दशकों तक भारतीय राजनीति की निर्णायक शक्ति बनी रहेंगी। लेकिन जिन नेताओं के हाथ में इस नई राजनीति की कमान थी, वे अपने परिवार और अपनी जाति विशेष से आगे नहीं देख पाए।
ना ही वे जाति और वर्ग के अंतर्संबंधों को समझते हुए ऐसी रणनीति सोच पाए, जिससे जाति तोड़ने और पिछड़ेपन को दूर करने की राह निकलती। चूंकि उनकी पूरी सियासत पहचान और प्रतिनिधित्व की मांग तक सिमट कर रह गई, इसलिए भाजपा के लिए इस राजनीति की काट ढूंढना आसान हो गया।
मंडलवादी/बहुजन परिघटना की सफलता जातियों की अलग-अलग पहचान कमजोर कर ओबीसी, दलित और उनसे भी ऊपर जाकर बहुजन पहचान को सघन करने पर निर्भर थी। जबकि खुद इस राजनीति से जुड़े दलों ने ऐसी परिस्थितियां बनाईं, जिनसे अलग-अलग जातियां अपनी अलग पहचान जताने की राह को अपनाती चली गईं।
भाजपा के लिए यह एक तरह से वरदान साबित हुआ। अपनी कथित सोशल इंजीनियरिंग के जरिए भाजपा ने इन जातियों के आपसी अंतर्विरोधों को बढ़ाते हुए और सबकी अपनी खास पहचान पर जोर डालते हुए सबको हिंदुत्व के एक बड़े शामियाने में शामिल करने के प्रयास किए और उसमें अब वह काफी सफल हो चुकी है।
मुस्लिम द्वेष की भावना को हवा देने की रणनीति इस कथित सोशल इंजीनियरिंग में भाजपा के खास काम आई है। लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है। भाजपा ने पहचान और प्रतिनिधित्व देने की होड़ में बाकी दलों को कड़ी टक्कर दी है। बल्कि कई बार इस मामले में वह बाकी सभी दलों से आगे नजर आती है।
परिणाम यह है कि आज भाजपा ने मंदिर के साथ-साथ मार्केट और मंडल की परिघटनाओं को भी खुद में समाहित कर लिया है। इस रूप में 1990 से उभरी और हावी हुई तीनों खास परिघटनाओं की वह प्रतिनिधि पार्टी बन गई है। यही आज उसकी खास ताकत है। उसकी इस ताकत को देखते हुए देश के शासक वर्ग ने अब पूरा दांव उस पर ही लगा रखा है।
चूंकि आम तौर पर न्यायपालिका से लेकर तमाम दूसरी संवैधानिक संस्थाओं पर उन्हीं तबकों से आए (या बाद में अपनी हैसियत बढ़ने के साथ उस वर्ग का हिस्सा बन गए) लोग काबिज रहते हैं, इसलिए ये संस्थाएं भी भाजपा और उसके एजेंडे को आगे बढ़ाने का उपकरण बनती चली गई हैं।
आज हम यह होता देख रहे हैं कि वर्तमान प्रभावशाली राजनीतिक परिघटनाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए भाजपा ने चूंकि मतदाताओं के एक बहुत बड़े हिस्से पर अपना प्रभाव कायम कर रखा है, इसलिए शासक समूह अपना धन-बल और प्रचार-तंत्र उसे उपलब्ध कराते हैं। इससे भाजपा और मजबूत होती है और अपनी वैचारिक राजनीति को और आगे बढ़ाने में और सक्षम हो रही है।
भाजपा से असहमत तबकों की दिक्कत यह है कि वे वर्तमान स्थिति के इस मूलभूत पक्ष को सिरे से नजरअंदाज करते हैं। इनमें एक बड़ा तबका वो है, जो आज भी मंडल और मंदिर को अलग करके देखता है। उसे लगता है कि अगर कुछ मंडलवादी सूत्रों में फिर से जान फूंकी जाए, तो मंदिर और मार्केट की ताकतों को रोका जा सकता है। लेकिन अनुभव यह है कि ऐसी सोच और उस पर आधारित रणनीतियां बार-बार मुंह के बल गिर रही हैं।
यह पहलू भी इन तबकों के विमर्श से बाहर बना हुआ है कि कैसे मार्केट ने मंदिर और मंडल दोनों का उपयोग अपने हित में किया है और किस तरह 1990 के दशक में उभरी तमाम राजनीतिक धाराओं को उसने अपना सेवक बना लिया है।
इसलिए आज की हकीकत यह है कि अब 1990 के दशक में सामने आईं तमाम परिघटनाओं से आगे जाकर ही भाजपा को टिकाऊ चुनौती दी जा सकती है। वैश्विक स्तर पर हम 1990 के दशक में दुनिया भर में फैलाए गए बाजारवाद का प्रतिवाद खड़ा होते देख रहे हैं। यह प्रतिवाद कुछ जगहों पर ठोस रूप लेने लगा है, जबकि बाकी जगहों पर अभी सूरत अस्पष्ट बनी हुई है। लेकिन भूमंडलीकरण की दिशा पलटने (deglobalization) के रूप में इस प्रतिवाद का प्रभाव सारी दुनिया पर पड़ रहा है।
भारत में भी इससे नए विमर्श के साथ राजनीति शुरू करने की अनुकूल स्थितियां बनेंगी। यानी कहा जा सकता है कि तीन दशक बाद उस समय हावी हुई परिघटनाओं का जवाब तैयार करने का अनुकूल समय हमारे पास है। लेकिन चुनौती यह है कि नए घटनाक्रम को समझने की अंतर्दृष्टि प्राप्त की जाए। उसकी पहली शर्त मौजूदा व्यवस्था की संचालक परिघटनाओं से मोहभंग है। उसके बाद ही नई राजनीति की परिकल्पना करने के लिए लोग प्रेरित होंगे।
इस लिहाज से भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में फैल रही नाउम्मीदी को हम एक रूप में सकारात्मक संकेत मान सकते हैं। इसलिए कि निराधार उम्मीदों के टूटने से अक्सर लोग हकीकत का सामना करने और उसके अनुरूप नया रास्ता तलाशने के लिए प्रेरित होते हैं। भारत आज ऐसे मुकाम पर है, जब नया रास्ता तलाशने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है।
दरअसल, यह सूरत दुनिया के उन तमाम देशों में है, जो अभी हाल तक अपने उदारवादी लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली मानते थे। अब उन सभी जगहों पर एक तरह के उथल-पुथल की स्थिति है। चूंकि मौजूदा व्यवस्था के वास्तविक स्वरूप से परदा हट रहा, तो लोगों के पास अब नए विकल्पों के बारे में सोचने के अलावा कोई और चारा नहीं रह गया है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)