हम दोनों ही कई वर्षों से अमेरिका के युद्ध अपराधों और इजराइल व सऊदी अरब जैसे उसके सहयोगियों के समान कुकृत्यों; दुश्मन सरकार या हुकूमत को गिराने के लिए सैन्य बल के अवैध इस्तेमाल, शत्रुतापूर्ण सैन्य कब्ज़ों, ‘आतंकवाद’ की आड़ में सैन्य हिंसा की खुली छूट, आम नागरिकों की हत्या, बमबारी और शहरों के विध्वंस के खिलाफ़ रिपोर्टिंग और विरोध करते आये हैं।
अधिकांश अमेरिकी यूं तो युद्ध के खिलाफ़ हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश जनता को बरगलाने वाले तन्त्र और हत्या के तन्त्र के गठजोड़ से तैयार प्रोपेगेंडा का शिकार होकर वह ऐसी सैन्य विदेशी नीति से सहमत हो जाते हैं जो अकल्पनीय विभीषिका का भी औचित्य सिद्ध करता है।
‘सहमति निर्माण’ की यह प्रक्रिया कई तरीकों से काम करती है। इनमें से सबसे कारगर तरीकों में से एक है मुर्दा शान्ति, हमें जानकारी न देना, हमें इस बात से अनजान रखना कि कैसे अमेरिका के नवीनतम युद्धक्षेत्र के निवासियों के घरों और समुदाय को तबाह किया जा रहा है।
जिस प्रकार युद्ध और नरसंहार दुनिया के सामने एक चुनौती बनकर खड़ा है, दुनियाभर में लोग इजराइल के खुलेआम बिना किसी जुर्माने के अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानूनों के धज्जियां उड़ाने पर सवाल खड़े कर रहे हैं।
हाल के वर्षों में अमेरिकी सैन्य बल द्वारा चलाये गये सबसे विनाशकरी मुहिम में इराक के मोसुल, सीरिया के रक़्क़ा और आईएसआईएस या दाएश के कब्ज़े वाले अन्य क्षेत्रों पर 1 लाख से ज़्यादा बम गिराये हैं। एक इराक़ी कुर्द खुफिया रिपोर्ट के अनुसार मोसुल में 40 हजार से ज़्यादा नागरिक मारे गये थे जबकि रक़्क़ा तक़रीबन पूरी तरह नष्ट हो गया था।
रक़्क़ा पर की गयी बमबारी वियतनाम युद्ध के बाद अमेरिका द्वारा की गयी सबसे भारी बमबारी थी, फ़िर भी अमेरिकी कॉर्पोरेट मीडिया में इसकी कहीं कोई रिपोर्टिंग नहीं हुई। हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स में छपे एक लेख में 155 एमएम होइटसर बन्दूकों को चलाने वाले अमेरिकी आर्टिलरीमेन द्वारा झेले गये मानसिक आघात का विवरण पेश किया गया था, हर एक बन्दूक से रक़्क़ा में 10 हजार गोलियां दागी गई थीं और “अ सीक्रेट वॉर, स्ट्रेंज न्यू वुण्ड्स एण्ड साइलेंस फ्रॉम द पेंटागन” इस लेख का सटीक शीर्षक था।
इतने बड़े पैमाने पर किये गये नरसंहार और विनाश को छुपाये रखना भी अपने आप में उल्लेखनीय उपलब्धि है। जब ब्रिटिश नाटककार हरोल्ड पिंटर को 2005 में इराक़ युद्ध के दौरान साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार दिया गया, तो उन्होने “आर्ट, ट्रुथ एण्ड पॉलिटिक्स” शीर्षक के अपने भाषण के ज़रिये अमेरिका के युद्ध-निर्माण के इस क्रूर पहलू को बेपर्द किया था।
इंडोनेशिया, ग्रीस, उरुग्वे, ब्राजील, पराग्वे, हैती, तुर्की, फिलीपींस, ग्वाटेमाला, अल साल्वाडोर, चिली और निकारागुआ में हुई हजारों मौतों का उल्लेख करने के बाद पिंटर ने पूछा, ‘क्या ये हत्याएं हुईं? और क्या इन सभी मामलों के लिए अमेरिकी विदेश नीति ज़िम्मेदार है’? जवाब है ‘हां, ये हत्याएं हुईं और इनके लिए अमेरिकी विदेश नीति ज़िम्मेदार है’।
‘लेकिन आपको जानकारी नहीं होगी’, उन्होंने आगे कहा, “जैसे ऐसा हुआ ही नहीं। कभी कुछ नहीं हुआ। जब ऐसा हो रहा था तब भी ऐसा नहीं हो रहा था। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा। किसी को सरोकार नहीं था। अमेरिका के अपराध व्यवस्थित, निरंतर, शातिर, बेरहम रहे हैं, लेकिन बहुत कम लोगों ने वास्तव में उनके बारे में बात की है। आपको अमेरिका को इसका श्रेय देना होगा। इसने सार्वभौमिक कल्याण का स्वांग कर दुनिया भर में तिकड़मों का इस्तेमाल किया है। यह हाइपोनोसिस का एक शानदार, यहां तक कि परिहासयुक्त, बेहद सफल प्रदर्शन है।”
लेकिन युद्ध और हत्याए हर दिन, साल दर साल बदस्तूर जारी हैं, ज़्यादातर अमेरिकियों की नज़रों और सरोकार से परे। क्या आप जानते हैं कि अमेरिका और उसके सहयोगियों ने वर्ष 2001 से 9 देशों पर 3 लाख 50 हजार से ज़्यादा बम गिराये हैं (जिनमें गाज़ा पर जारी युद्ध में 14 हजार बम शामिल हैं)। यानि, 22 सालों तक हर दिन, रोज़ाना औसतन 44 हवाई हमले।
गाज़ा पर जारी अपने वर्तमान युद्ध में इजराइल 11 हजार से ज़्यादा लोगों की हत्या कर, जिनमें 40% बच्चे शामिल हैं, भयावह क्रूरता छिपाने की अमेरिकी तरीके की नक़ल करने की फिराक में है। लेकिन इजराइल के मीडिया ब्लैकआउट करने की तमाम कोशिशों के बावजूद नरसंहार छोटे, बन्द, सघन शहरी क्षेत्र में जारी है जिसे अक्सर खुली-जेल भी कहा जाता है, जहां दुनिया के सामने लोगों पर पड़ रहा प्रभाव और ज़्यादा ज़ाहिर होता है।
इजराइल ने कई पत्रकारों की हत्या की है, और इसे एक ख़ास योजना के तहत अंजाम दिया गया है, जैसे अमेरिकी सैन्यबलों ने इराक़ में किया था। लेकिन फिर भी हमारे सामने रोज़ाना नये क्रूरता को दर्शाती भयानक तस्वीरें और वीडियो नज़र आ रहे हैं, मृत और घायल बच्चे, घायलों का इलाज करने के लिए संघर्ष करते अस्पताल, मलबों में तब्दील हो चुके अपने घरों से दर बदर होते लोग।
इस युद्ध के न छिपा होने का एक दूसरा कारण है कि इसे इजराइल लड़ रहा है, अमरीका नहीं। अमेरिका अधिकांश हथियारों की आपूर्ति कर रहा है, उसने क्षेत्र में विमान वाहक भेजे हैं, और इराक़ में फालुजाह और मोसुल में इसी तरह के नरसंहार आयोजित करने के अपने अनुभव के आधार पर रणनीतिक सलाह देने के लिए अमेरिकी समुद्री जनरल जेम्स ग्लिन को भेजा है। लेकिन ऐसा लगता है कि इजराइली नेताओं ने अमेरिकी युद्ध सूचना तन्त्र के बलबूते सार्वजनिक जांच और राजनीतिक जवाबदेही से बच पाने की हद से ज़्यादा उम्मीद पाल ली है।
फालुजा, मोसुल और रक्का के बरक्स दुनिया भर में लोग अपने कंप्यूटर, फोन और टीवी के ज़रिये तबाही के मंज़र की वीडियो देख रहे हैं। केबल टीवी पर नेतन्याहू, बाइडेन और भ्रष्ट ‘रक्षा विश्लेषक’ अब सूत्रधार नहीं रह गये हैं, क्योंकि वे भयावह वास्तविकता पर पर्दा डालने का काम करते हैं।
जिस प्रकार युद्ध और नरसंहार दुनिया के सामने एक चुनौती बनकर खड़ा है, दुनियाभर में लोग इजराइल के खुलेआम बिना किसी जुर्माने के अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानूनों के धज्जियां उड़ाने पर सवाल खड़े कर रहे हैं।
माइकल क्रॉली और एडवर्ड वोंग की न्यूयॉर्क टाइम्स में रिपोर्ट है कि इजराइली अधिकारी गाज़ा में जारी नरसंहार के बचाव में अमेरिकी युद्ध अपराधों के उदाहरण का सहारा ले रहे हैं, वे युद्ध के नियमों को अमेरिका द्वारा इराक़ और अन्य देशों पर किये गये युद्ध से व्याख्यायित करने पर अड़े हुए हैं। वे गाज़ा की तुलना फालुजा, मोसुल और यहां तक की हिरोशिमा से करते हैं।
लेकिन अमेरिकी युद्ध अपराधों की नकल ही इजराइल के हरकतों को अवैध बनाती है। और अमेरिका को जवाबदेह ठहराने में दुनिया की विफलता ने ही इजराइल को इस ग़लतफ़हमी का शिकार बनाया है कि वह बिना किसी जवाबदेही के हत्याओं को अंजाम दे सकता है।
अमेरिका संयुक्त राष्ट्र चार्टर के धमकी या बलप्रयोग के खिलाफ़ प्रतिबंध, प्रत्येक मामले के लिए राजनीतिक औचित्य के निर्माण और अंतरराष्ट्रीय जवाबदेही से बचने के लिए अपनी सुरक्षा परिषद वीटो का उपयोग कर उल्लंघन करता है। इसके सैन्य वकील चौथे जेनेवा कन्वेंशन की अद्वितीय, असाधारण व्याख्याओं को नियोजित करते हैं, जिसके तहत कन्वेंशन द्वारा आम नागरिकों को दिये गये सार्वभौमिक सुरक्षा अमेरिकी सैन्य ज़रूरतों के मातहत आती है।
अमेरिका अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) और अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) के अधिकार क्षेत्र का प्रतिरोध करता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अंतरराष्ट्रीय कानून की उसकी अपनी व्याख्या कभी भी निष्पक्ष न्यायिक जांच के अधीन न हो।
जब अमेरिका ने 1986 में निकारागुआ के खिलाफ अपने युद्ध पर फैसला करने की अनुमति दी थी, तब आईसीजे ने फैसला सुनाया था कि निकारागुआ पर आक्रमण और हमला करने के लिए ‘कंट्रास’ की तैनाती और निकारागुआ के बंदरगाहों के खनन को अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते हुए आक्रामकता के कृत्य थे, और अमेरिका को निकारागुआ को युद्ध की क्षतिपूर्ति करने का आदेश दिया था।
जब अमेरिका ने घोषणा की कि वह आईसीजे के अधिकार क्षेत्र को स्वीकार नहीं करेगा और क्षतिपूर्ति के भुगतान से इंकार कर दिया, तो निकारागुआ ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से मुआवज़ा लागू करने के लिए कहा, लेकिन अमेरिका ने इस प्रस्ताव के खिलाफ़ वीटो कर दिया।
हिरोशिमा, नागासाकी जैसे अत्याचार और जर्मन और जापानी शहरों पर बमबारी के ज़रिये, विंस्टन चर्चिल के शब्दों में लोगों को ‘बेघर’ करने के तरीकों और साथ ही जर्मनी के नाजी होलोकास्ट की भयावहता के मद्देनज़र 1949 में युद्ध क्षेत्रों और सैन्य कब्जे में नागरिकों की रक्षा के लिए नया चौथा जीनेवा सम्मेलन हुआ था।
1999 में कन्वेंशन की 50वीं वर्षगांठ पर जेनेवा सम्मेलनों के साथ अंतर्राष्ट्रीय अनुपालन की निगरानी के लिए जिम्मेदार रेड क्रॉस की अंतर्राष्ट्रीय समिति (आईसीआरसी) ने यह देखने के लिए एक सर्वेक्षण किया कि विभिन्न देशों के लोग इस कन्वेंशन के प्रावधानों द्वारा प्रदान की जाने वाली सुरक्षा के प्रति कितने जागरूक हैं।
उन्होंने 12 देशों में उन लोगों का सर्वेक्षण किया जो युद्ध से पीड़ित थे, चार देशों (फ्रांस, रूस, ब्रिटेन और अमेरिका) में, जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं, और स्विट्जरलैंड में जहां आईसीसी आधारित है। आईसीआरसी ने 2000 में सर्वेक्षण के परिणामों को ‘पीपल ऑन वॉर- सिविलियन्स इन द लाइन ऑफ फ़ायर” नाम से प्रकाशित किया था।
सर्वेक्षण में लोगों को कन्वेन्शन द्वारा प्रदान की गयी नागरिक सुरक्षा की सही समझदारी और उसे विरल कर अमेरिका और इज़राइल की स्पष्टीकरण से मेल खाते हुए व्याख्या के बीच चुनाव करने को कहा गया।
सही समझ को परिभाषित करने वाला बयान था कि “केवल युद्धरत सैनिकों पर हमला, नागरिकों पर नहीं”। ग़लत और विरल परिभाषा के लिए बयान था कि मिलिटरी कार्रवाई के दौरान “युद्धरत सैनिकों को नागरिकों से जितना सम्भव हो दूरी रखनी चाहिए”।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अन्य देशों में और स्विट्जरलैंड में 72-77% लोगों ने सही बयान पर सहमति जतायी, लेकिन अमेरिका में केवल 52% सहमत था। वास्तव में 42% अमेरिकी ग़लत व्याख्या से सहमत थे, यानी अन्य देशों की तुलना में दोगुनी आबादी। यातना और युद्ध के कैदियों के साथ व्यवहार के मसले पर भी अमेरिका और अन्य लोगों के बीच समान अन्तर थे।
अमेरिका के कब्जे के अधीन इराक में, अमेरिका के जेनेवा सम्मेलनों की बेहद कमजोर व्याख्याओं के कारण आईसीआरसी और इराक के लिए संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन (यूएनएएमआई) के साथ अंतहीन विवाद हुए, जिसने चौंकाने वाली त्रैमासिक मानवाधिकार रिपोर्ट जारी की। यूएनएएमआई ने लगातार कहा कि घनी आबादी वाले नागरिक क्षेत्रों में अमेरिकी हवाई हमले अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन है।
उदाहरण के लिए, 2007 की दूसरी तिमाही के लिए अपनी मानवाधिकार रिपोर्ट में यूएनएएमआई ने 15 घटनाओं की संयुक्त राष्ट्र की जांच का उल्लेख किया गया है, जिसमें 103 इराकी नागरिक अमेरिकी कब्ज़ा बलों द्वारा मारे गए थे। इनमें 3 अप्रैल को रमादी के निकट खालिदिया में किए हवाई हमलों में 27 मृतकों और 8 मई को दीयाला प्रांत में एक प्राथमिक विद्यालय पर हेलीकॉप्टर हमले में 7 बच्चों की मृत्यु की घटना शामिल है।
यूएनएएमआई ने मांग की कि मल्टी-नेशनल फोर्स (एमएनएफ) की ओर से की गई गैरकानूनी हत्याओं के सभी प्रमाणिक आरोपों की पूरी तरह से, तत्काल और निष्पक्ष रूप से जांच की जाए और ऐसे सैन्य कर्मियों के खिलाफ उचित कार्रवाई की जाए, जिन्होंने अत्यधिक या अंधाधुंध बल प्रयोग किया हो।
एक फुटनोट के अनुसार, “प्रचलित अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून के अनुसार जहां तक संभव हो, सैन्य उद्देश्यों को नागरिकों की घनी आबादी वाले क्षेत्रों में स्थित नहीं किया जाना चाहिए। बड़ी संख्या में नागरिकों के बीच युद्धरत सैनिकों की उपस्थिति किसी क्षेत्र के नागरिक चरित्र को नहीं बदल सकती।“
यूएनएएमआई ने अमेरिका के इस दावे को भी खारिज कर दिया कि नागरिकों की व्यापक हत्या इराकी प्रतिरोध के परिणामस्वरूप हुई थी जब नागरिकों को “मानव ढाल” के रूप में इस्तेमाल किया था- एक और अमेरिकी प्रोपेगैंडा जिसका आज इजराइल इस्तेमाल कर रहा है। गाजा के घनी आबादी वाले और घिरे हुए क्षेत्र में इजराइल द्वारा मानव ढाल वाले आरोप और भी बेतुके हैं, जहां पूरी दुनिया देख सकती है कि बमबारी से बचाव के लिए शरणस्थल ढूंढ रहे नागरिकों पर इजराइल गोलियां बरसा रहा है।
गाज़ा पर जारी युद्ध पर विराम का नारा दुनिया भर में गूंज रहा है- संयुक्त राष्ट्र के मंचों से; फ्रांस, स्पेन और नॉर्वे जैसे पारंपरिक अमेरिकी सहयोगियों की सरकारों से; पूर्व में विभाजित मध्य पूर्व नेताओं के नए संयुक्त मोर्चे से; और लंदन और वाशिंगटन की सड़कों पर। दुनिया “दो राष्ट्रों वाले समाधान” से अपनी सहमति वापस ले रही है, जिसमें इजराइल और अमेरिका ही केवल वे दो राज्य हैं जो फ़िलिस्तीन के भाग्य का फैसला करने वाले हैं।
यदि अमेरिका और इजराइल के नेता उम्मीद कर रहे हैं कि वे इस संकट से बच सकते हैं, और जनता की भूलने की आदत उनके अपराधों को मिटा देगी जो आज हमारी नज़रों के सामने है, तो यह एक और गलतफहमी है। जैसा कि हन्ना अरेन्ट ने 1950 में “दी ओरिजिंस ऑफ़ टोटलीटेरियनिज़्म” की प्रस्तावना में लिखा था ।
“हम अब विरासत के नाम पर उस चीज को नहीं अपना सकते जो अतीत में अच्छी थी और, बुराई को बस त्याग कर उसे मृत समझ कर विस्मृति का हिस्सा नहीं बना सकते। पश्चिमी इतिहास की भूमिगत धारा आखिरकार सतह पर आ गई है और इसने हमारी परंपरा की गरिमा को हड़प लिया है। यही वह वास्तविकता है जिसमें हम जी रहे हैं। और यही कारण है कि वर्तमान की भयावहता से बचने के लिए अतीत में खोने के सभी प्रयास अब भी बरकरार भूतकाल के लिए या बेहतर भविष्य के लिए प्रत्याशित विस्मरण व्यर्थ हैं।”
(मेदेया बेंजामिन और निकोलस जेएस डेविस का लेख कॉमन ड्रीम्स से साभार, अनुवाद- महेश राजपूत)