सूप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को भारत में समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया। हालांकि, संविधान पीठ के सभी न्यायाधीश भारत संघ को “विवाह” के रूप में उनके रिश्ते की कानूनी मान्यता के बिना, समलैंगिक संघ में व्यक्तियों के अधिकारों और अधिकारों की जांच करने के लिए एक समिति गठित करने का निर्देश देने पर सहमत हुए।
भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एस रवींद्र भट्ट, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने 18 अप्रैल, 2023 को याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की थी। कठोर विचार-विमर्श के बाद, पीठ ने 11 मई, 2023 को इसका फैसला सुरक्षित कर लिया था। आज, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने चार फैसले सुनाए- जिन्हें क्रमशः सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एसके कौल, जस्टिस रवींद्र भट और जस्टिस पीएस नरसिम्हा द्वारा लिखा गया है।
समलैंगिक विवाह पर सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों वाली बेंच का फैसला बंटा हुआ है। समलैंगिक विवाह पर फैसला पढ़ते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ ने सबसे पहले अपना फैसला सुनाते हुए समलैंगिक शादी को मान्यता देने से इनकार कर दिया। सीजेआई ने कहा कि ये संसद के अधिकार क्षेत्र का मामला है। हालांकि सीजेआई ने समलैंगिक जोड़े को बच्चा गोद लेने का अधिकार दिया है। सीजेआई ने केंद्र और राज्य सरकारों को समलैंगिकों के लिए उचित कदम उठाने के आदेश दिए हैं। सीजेआई ने कहा कि अपना साथी चुनने का अधिकार सभी को है। इसके साथ ही अनुच्छेद 21 के तहत सम्मान के साथ जीवन एक मौलिक अधिकार है। सरकार को खुद नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए।
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने सरकार से कहा है कि उसे एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के खिलाफ भेदभाव खत्म करना चाहिए। उन्होंने कहा है कि केंद्र सरकार, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों को यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देशित किया जाता है कि समलैंगिक समुदाय के साथ भेदभाव नहीं हो, वस्तुओं और सेवाओं तक पहुंच में कोई भेदभाव नहीं हो।
इसके साथ ही अदालत ने यह भी निर्देश दिया है कि सरकारें समलैंगिक अधिकारों के बारे में जनता को जागरूक करें, समलैंगिक समुदाय के लिए एक हॉटलाइन बनाएं, समलैंगिक जोड़ों के लिए सुरक्षित घर बनाएं, सुनिश्चित करें कि अंतर-लिंगीय बच्चों को ऑपरेशन के लिए मजबूर नहीं किया जाए।
न्यायालय ने माना है कि समलैंगिक व्यक्तियों के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता है। ऐसे जोड़ों को मिलने वाले भौतिक लाभ और सेवाएं से समलैंगिक जोड़ों को वंचित करना उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।
अदालत ने कहा कि संबंध बनाने के अधिकार में अपना साथी चुनने का अधिकार और उस संबंध को मान्यता देने का अधिकार शामिल है। इसने कहा कि ऐसे संबंधों को मान्यता देने में विफलता के परिणामस्वरूप समलैंगिक जोड़ों के खिलाफ भेदभाव होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘सभी व्यक्तियों को अपने जीवन की नैतिक गुणवत्ता का आकलन करने का अधिकार है। स्वतंत्रता का अर्थ है वह बनने की क्षमता जो कोई व्यक्ति बनना चाहता है।’
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि यह अदालत कानून नहीं बना सकती, वह केवल इसकी व्याख्या कर सकती है और इसे कार्यान्वित करा सकती है। कोर्ट ने कहा, ‘विशेष विवाह अधिनियम की व्यवस्था में बदलाव का निर्णय संसद को करना है। इस न्यायालय को विधायी क्षेत्र में प्रवेश न करने के प्रति सावधान रहना चाहिए।’
हालांकि, अदालत ने यह भी संकेत दे दिया कि यह कहना गलत है कि विवाह एक स्थिर और न बदलने वाली चीज है। अदालत ने कहा, “एक-दूसरे के साथ प्यार और जुड़ाव महसूस करने की हमारी क्षमता हमें मानवीय होने का एहसास कराती है। हमें देखने और देखे जाने की एक ज़रूरत है। अपनी भावनाओं को साझा करने की ज़रूरत हमें वह बनाती है जो हम हैं। ये रिश्ते कई रूप ले सकते हैं, जन्मजात परिवार, रोमांटिक रिश्ते आदि। परिवार का हिस्सा बनने की ज़रूरत मानवीय गुण का मुख्य हिस्सा है और आत्म विकास के लिए महत्वपूर्ण है।’
अदालत ने साफ़ किया, कि ‘जीवन साथी चुनना किसी के जिंदगी की राह चुनने का एक अभिन्न अंग है। कुछ लोग इसे अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय मान सकते हैं। यह अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की जड़ तक जाता है।’
समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने दस दिनों की लंबी सुनवाई के बाद 11 मई को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। सुप्रीम कोर्ट साफ कर चुका है कि वो सिर्फ विशेष विवाह अधिनियम और विदेशी विवाह अधिनियम के कानूनी पहलू को देख रहा है।
केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह की कानूनी मान्यता की मांग करने वाली 21 से अधिक याचिकाओं का विरोध किया था। उसका तर्क है कि अदालतों के पास न्यायिक व्याख्या या विधायी संशोधनों के माध्यम से विवाह बनाने या मान्यता देने का अधिकार नहीं है।
केंद्र सरकार ने तर्क दिया था कि विवाह एक विशिष्ट विषमलैंगिक संस्था है और समलैंगिक विवाह चाहने वाला शहरी अभिजात वर्ग है। इसे पूरे देश के लिए एक ही नजर से नहीं देखा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील पर कड़ी आपत्ति जताई और पूछा कि बिना किसी डेटा के यह दलील किस आधार पर दी गई है।
भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के जरिए केंद्र ने तर्क दिया था कि जैविक लिंग ही किसी व्यक्ति के लिंग को परिभाषित करता है। लेकिन सीजेआई चंद्रचूड़ ने इस तर्क को चुनौती दी थी। सीजेआई ने कहा था- “पुरुष की कोई पूर्ण अवधारणा या महिला की कोई पूर्ण अवधारणा नहीं है। यह सवाल नहीं है कि आपके जननांग (genitals) क्या हैं। यानी आप किस रूप में पैदा हुए हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है। सीजेआई ने कहा, एक पुरुष और एक महिला की अवधारणा पूरी तरह से जननांगों पर आधारित नहीं है।
बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट से इस मुद्दे को संसद पर छोड़ने का अनुरोध किया था और कहा था कि “99% लोग” समलैंगिक विवाह का विरोध करते हैं।
सुनवाई के दौरान केंद्र ने कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक समिति बनाने पर सहमति जताई थी, जो यह जांच करेगी कि क्या समान-लिंग वाले जोड़ों को विवाह के रूप में उनके रिश्ते की कानूनी मान्यता के बिना कानूनी अधिकार दिए जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट चाहता था कि समान-लिंग वाले जोड़ों के लिए कार्यकारी दिशानिर्देश जारी किए जाएं ताकि उन्हें वित्तीय सुरक्षा मिल सके, जैसे कि पति-पत्नी के रूप में संयुक्त बैंक खाते, पीएफ खाता खोलना आदि शामिल हैं।
चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि अदालतें कानून नहीं बना सकतीं हैं, लेकिन उसकी व्याख्या कर सकती हैं और उसे लागू कर सकती हैं। इस दौरान उन्होंने कहा कि कोर्ट इतिहासकारों का काम नहीं कर रही है। सती और विधवा पुनर्विवाह से लेकर अंतरधार्मिक विवाह तक.. विवाह का रूप बदल गया है। शादी बदल गई है और यह एक अटल सत्य है और ऐसे कई बदलाव संसद से आए हैं। कई वर्ग इन बदलावों के विरोध में रहे, लेकिन फिर भी इसमें बदलाव आया है। इसलिए यह कोई स्थिर या अपरिवर्तनीय संस्था नहीं है।
डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि यदि राज्य पर सकारात्मक दायित्व लागू नहीं किए गए तो संविधान में अधिकार एक मृत अक्षर होगा। समानता वाले व्यक्तिगत संबंधों के मामले में अधिक शक्तिशाली व्यक्ति को प्रधानता प्राप्त होती है। अनुच्छेद 245 और 246 के तहत सत्ता में संसद ने विवाह संस्था में बदलाव लाने वाले कानून बनाए हैं।
सीजेआई ने कहा कि स्पेशल मैरिज एक्ट की व्यवस्था में बदलाव करना है या नहीं ये निर्णय संसद को करना है। न्यायालय को विधायी क्षेत्र में प्रवेश करने में सावधानी बरतनी चाहिए।
उन्होंने आगे कहा कि मनुष्य कॉम्पलेक्स समाजों में रहते हैं। एक-दूसरे के साथ प्यार और जुड़ाव महसूस करने की हमारी क्षमता हमें इंसान होने का एहसास कराती है। अपनी भावनाओं को साझा करने की आवश्यकता, हमें वह बनाती है जो हम हैं। ये रिश्ते कई रूप ले सकते हैं, जन्मजात परिवार, रोमांटिक रिश्ते आदि। परिवार का हिस्सा बनने की आवश्यकता मानव गुण का मुख्य हिस्सा है और आत्म-विकास के लिए महत्वपूर्ण है।
चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने आगे कहा कि जीवन साथी चुनना किसी के जीवन की दिशा चुनने का एक अभिन्न अंग है। कुछ लोग इसे अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय मान सकते हैं। यह अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की जड़ तक जाता है।
चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने आगे कहा कि इस अदालत ने माना है कि समलैंगिक व्यक्तियों के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता है और उनकी रिलेशनशिप को सेक्सुअल ऑरिएंटेशन के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। विषमलैंगिक जोड़ों को मिलने वाली सुविधाओं से इन्हें वंचित रखना मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा। सेक्स शब्द को सामाजिक और ऐतिहासिक सन्दर्भों के बिना नहीं पढ़ा जा सकता। सेक्सुअस ऑरिएंटेशन के आधार पर उनके रिलेशनशिप पर प्रतिबंध संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन होगा।
चीफ जस्टिस ने आगे कहा कि अविवाहित विषमलैंगिक जोड़े आवश्यकता को पूरा करने के लिए शादी कर सकते हैं लेकिन समलैंगिक व्यक्ति को ऐसा करने का अधिकार नहीं है और ये केवल भेदभाव को मजबूत करता है और इस प्रकार CARA परिपत्र अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है।
“ऐसा नहीं माना जा सकता कि अविवाहित जोड़े अपने रिश्ते को लेकर गंभीर नहीं हैं। यह साबित करने के लिए कोई रिकॉर्ड नहीं है कि केवल एक विवाहित विषमलैंगिक जोड़ा ही एक बच्चे को स्थिरता प्रदान कर सकता है।”
चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने निर्देश दिया कि समलैंगिक अधिकारों के बारे में जनता को जागरूक करें, समलैंगिक समुदाय के लिए हॉटलाइन बनाएं, समलैंगिक जोड़े के लिए सुरक्षित घर बनाएं, सुनिश्चित करें कि अंतर-लिंगी बच्चे पैदा हों, सुनिश्चित करें कि अंतर-लिंगीय बच्चों को ऑपरेशन कराने के लिए मजबूर न किया जाए, किसी भी व्यक्ति को किसी भी हार्मोनल थेरेपी से गुजरने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा, केवल उनकी यौन पहचान के बारे में पूछताछ करने के लिए समलैंगिक समुदाय को पुलिस स्टेशन में बुलाकर कोई उत्पीड़न नहीं किया जाएगा, पुलिस को समलैंगिक व्यक्तियों को अपने परिवार में लौटने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए, पुलिस को एक समलैंगिक जोड़े के खिलाफ उनके रिश्ते को लेकर एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करनी चाहिए।
जस्टिस संजय कौल ने कहा कि समलैंगिक संबंधों को प्राचीन काल से ही न केवल यौन गतिविधियों के लिए बल्कि भावनात्मक संतुष्टि के लिए संबंधों के रूप में मान्यता दी गई है।
उन्होंने कहा कि मैं सीजेआई के फैसले से सहमत हूं। संवैधानिक न्यायालय के लिए अधिकारों को बरकरार रखना अभिन्न अंग नहीं है और न्यायालय को संवैधानिक नैतिकता द्वारा निर्देशित किया गया है, न कि सामाजिक नैतिकता द्वारा। इन संबंधों को साझेदारी और प्यार देने वाले यूनियन के रूप में पहचाना जाना चाहिए।
जस्टिस कौल ने कहा कि मैं जस्टिस भट्ट से असहमत हूं कि स्पेशल मैरिज एक्ट विषमलैंगिक विवाहों के एकमात्र उद्देश्य से बनाया गया था। गैर-विषमलैंगिक और विषमलैंगिक रिलेशनशिप को एक ही सिक्के के दोनों पहलू के रूप में देखा जाना चाहिए। यह क्षण ऐतिहासिक अन्याय और भेदभाव को दूर करने का एक अवसर है और इस प्रकार शासन को ऐसे यूनियन या विवाहों को अधिकार देने की आवश्यकता है। मैं भारत के मुख्य न्यायाधीश से पूरी तरह सहमत हूं कि एक भेदभाव-विरोधी कानून की आवश्यकता है।
“गैर विषमलैंगिक कपल भारत के संविधान के तहत सुरक्षा के हकदार हैं। इस अदालत ने ऐसे जोड़ों को होने वाले लाभों को देखने के लिए एक समिति बनाने के एसजी मेहता के बयान को स्वीकार कर लिया है। स्पेशल मैरिज एक्ट का एक विशेष रूप बताता है और इस प्रकार यह विवाह का एक धर्मनिरपेक्ष रूप प्रदान करता है।
जस्टिस कौल ने आगे कहा कि गैर-विषमलैंगिक जोड़े को कानूनी मान्यता देना विवाह समानता की दिशा में एक कदम है। आइए हम स्वायत्तता को तब तक बनाए रखें, जब तक यह दूसरों के अधिकारों पर अतिक्रमण न करे। जस्टिसकौल ने कहा विषसमलैंगिक और समलैंगिक विवाह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
सेम सेक्स मैरिज पर अपना फैसला पढ़ते हुए जस्टिस भट्ट ने कहा कि समलैंगिकता न तो शहरी है और न ही संभ्रांतवादी, हम भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा जारी निर्देशों से सहमत नहीं हैं।
मई 2023 में, भारत के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली पांच-जजों की संविधान पीठ ने 10 दिनों की सुनवाई के बाद इस मामले पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। बेंच में अन्य जजों में जस्टिस हिमा कोहली, संजय किशन कौल, एस रवींद्र भट और पीएस नरसिम्हा शामिल हैं।
याचिकाओं में विशेष विवाह अधिनियम 1954 (एसएमए), हिंदू विवाह अधिनियम 1955 और विदेशी विवाह अधिनियम 1969 के प्रावधानों को चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि विवाह अपने साथ कई अधिकार, विशेषाधिकार और दायित्व लाता है, जो कानूनी रूप से संरक्षित हैं।
सुनवाई के दौरान, याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि समान-लिंग वाले जोड़ों को किसी भी विषमलैंगिक जोड़े यानी हेटरोसेक्शुअल के समान अधिकार दिए जाने चाहिए, जैसे कि वित्तीय, बैंकिंग, बीमा, गोद लेने, विरासत और सेरोगेसी जैसे मामले में दिया गया है।
सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा कि समलैंगिक संबंधों को मान्यता देना विधायिका पर निर्भर है, लेकिन सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि समलैंगिक जोड़ों को बिना शादी सामाजिक और अन्य लाभ और कानूनी अधिकार दिए जाएं। अदालतें युवाओं की भावनाओं के आधार पर किसी मुद्दें पर निर्णय नहीं ले सकतीं। विवाह केवल वैधानिक ही नहीं बल्कि संवैधानिक सुरक्षा के भी हकदार हैं।
केंद्र ने समलैंगिक विवाह का विरोध किया था। केंद्र ने कहा ”प्रेम और करुणा व्यक्त करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के अंतर्गत आ सकता है। हालांकि, प्रेम, करुणा और साहचर्य की अभिव्यक्ति के लिए किसी मान्यता प्राप्त सामाजिक कानूनी संस्थान की आवश्यकता नहीं है। याचिकाकर्ताओं को दिखाना होगा कि समान रूप से कानूनी और सामाजिक मान्यता के बिना प्रेम, करुणा और साहचर्य व्यक्त करना असंभव है।
7 सितंबर 2018 को, सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की संविधान पीठ ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 के हिस्से को अमान्य करते हुए समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था। हालांकि, भारत में समलैंगिक विवाहों की कानूनी स्थिति धार्मिक और सरकारी विरोध के साथ अस्पष्ट बनी हुई है।
भारत में विवाह को हिंदू विवाह अधिनियम, ईसाई विवाह अधिनियम, मुस्लिम विवाह अधिनियम और विशेष विवाह अधिनियम के तहत बांटा गया है। इनमें से कोई भी समलैंगिक कपल के बीच विवाह से संबंधित नहीं है।
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)