उत्तराखंड सरकार द्वारा विधानसभा में समान नागरिक संहिता के नाम से प्रस्तुत विधेयक एक निरर्थक कवायद का नमूना है, जिसमें जो एक संहिता तो है, लेकिन नागरिकों के लिए किसी तरह की समानता नहीं लाती है. यह विधेयक और इसके जरिये की जाने वाली पूरी कोशिश, बालिग लोगों के निजी संबंधों में जबरन सरकार और उसकी दक्षिणपंथी उत्पाती समूह द्वारा घुसपैठ का इंतजाम है.
विवाह, तलाक, उत्तराधिकार के लिए पहले से कानून मौजूद हैं और उसके लिए एक नए कानून के पुलिंदे की कोई आवश्यकता नहीं थी.
इस विधेयक के समान संहिता होने का दावा तो जनजातियों को उससे बाहर रखने से ही खारिज हो जाता है. जनजातियों की ही नहीं तमाम अन्य हिस्सों के भी अपनी परंपरागत कानून (customary law) , व्यक्तिगत कानून(पर्सनल लॉं) हैं और उसमें सरकार के हस्तक्षेप की कोई भी कोशिश गैरज़रूरी और अवांछित है.
विवाह और तलाक के पंजीकरण को अनिवार्य किया गया है. विवाह का पंजीकरण तो पहले से कानूनन अनिवार्य था ही. लेकिन इस विधेयक में जो एक खतरनाक प्रावधान है, वो इसकी धारा 15 में है. इसमें यह प्रावधान है कि विवाह और तलाक के पंजीकरण का रजिस्टर सार्वजनिक निरीक्षण के लिए खुला होगा. आखिर एक निजी रिश्ते के रहने- न रहने की प्रक्रिया को सरकार के सामने पंजीकृत कराने के बाद उसके सार्वजनिक प्रदर्शन की आवश्यकता क्यूँ है ?
दो लोग इस राज्य से बाहर विवाह करते हैं और उनमें से के इस राज्य का वाशिंदा है तो विवाह को इस राज्य में भी पंजीकृत कराने का प्रावधान, समझ से परे है और संभवतः यह कानून की सीमाओं से परे जा कर किया गया प्रावधान है.
लिव इन संबंधों को पंजीकरण की अनिवार्यता के दायरे में ला कर और पंजीकरण न कराने पर सजा का प्रावधान करके, एक तरह से इसे अपराध की श्रेणी में डाला गया है. पुष्कर सिंह धामी की सरकार को बालिग लोगों के निजी संबंधों और निजी इच्छाओं के मामले में घुसपैठ करने की इतनी व्यग्रता क्यूँ है, यह समझ से परे है. ऐसा प्रतीत होता है कि वेलेंटाइन डे पर दक्षिणपंथी समूहों द्वारा किए जाने वाले एक दिवसीय उत्पात को लिव इन रिलेशनों की नैतिक पहरेदारी के रूपी में स्थायी करने की कोशिश है.
समान नागरिक संहिता के नाम पर लाये गए विधेयक का बड़ा हिस्सा संपत्ति के उत्तराधिकार और वसीयत को समर्पित है. उसमें भी अधिकांश हिस्से में उदाहरणों से भरा पड़ा है. वसीयत और उत्तराधिकार और संपत्ति के बँटवारे का मसला तो संपत्तिशाली लोगों के ही मतलब का है. आबादी का बड़ा हिस्सा जो बेरोजगारी और संसाधनों की लूट की मार झेल रहा है, उसके लिए संपत्ति का बंटवारा नहीं दो जून की रोटी महत्वपूर्ण है. तो बजाय लोगों के शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य की व्यवस्था को मजबूत करने की चिंता करने के बजाय किसकी संपत्ति के बँटवारे, और वसीयत की चिंता कर रहे हैं, पुष्कर सिंह धामी जी ?
जिस तरह से यह विधेयक पेश करने से पहले अल्पसंख्यक समुदाय के एक्टिविस्टों को नोटिस दिये गए और उन्हें जमानत कराने को कहा गया, वह निंदनीय है. प्रशासन द्वारा विधेयक पेश किए जाने से पहले ही अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाने की कोशिश से साफ है कि यह पूरी कवायद अल्पसंख्यक विरोधी है.
यह एक पितृसत्तात्मक, दक्षिणपंथी, सांप्रदायिक और निरर्थक कवायद है, जिस पर राज्य के संसाधनों को बर्बाद किया गया है.
-इन्द्रेश मैखुरी
राज्य सचिव, भाकपा(माले)
उत्तराखंड