महेंद्र मिश्र
पहले मणिपुर पर बात कर रहे थे अब मेवात और नूंह पर करिये। एक बड़े मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए उससे भी बड़ा मुद्दा पेश कर दिया गया है। ये संघ-बीजेपी की पुरानी रणनीति रही है। एक बार फिर उसने इसे आजमाया है। मेवात पर आने से पहले बात मणिपुर की। मणिपुर का चूंकि मैं दौरा करके लौटा हूं और मैंने उसके तमाम पहलुओं पर ‘जनचौक’ में रिपोर्ट किया है। लेकिन कुछ पहलू छूट गए हैं। वो बेहद महत्वपूर्ण हैं इसलिए उन पर बात करना जरूरी है। क्योंकि उनको लेकर नॉर्थ-ईस्ट के बाहर कई तरह के सवाल पूछे जा रहे हैं।
इस बात में कोई शक नहीं कि यह गुजरात के आगे का प्रयोग है। यहां मैतेई और कुकी में कंप्लीट डिवीजन है। संघर्ष को तीन महीने हो गए लेकिन अभी भी यह खत्म होता नजर नहीं आ रहा है। जबकि गुजरात में वह केवल तीन दिन चला था लेकिन विभाजन इस स्तर का नहीं था कि हिंदू इलाके में कोई मुस्लिम नहीं घुस सकता था और मुस्लिम इलाके में कोई हिंदू। लेकिन यहां दोनों समुदाय एक दूसरे के खून के प्यासे हैं।
आज की ही खबर है कि मैतेई वर्चस्व वाले विष्णुपुर में कुकी संघर्ष में मारे गए अपने परिजनों के शव को दफनाना चाहते थे लेकिन मैतेइयों ने सड़क पर आ कर विरोध करना शुरू कर दिया और फिर उनको तितर-बितर करने के लिए सुरक्षा बल के जवानों को हवा में गोलियां चलानी पड़ीं।
नासूर बन चुका दोनों समुदायों के बीच यह रिश्ता कब सामान्य होगा और होगा भी कि नहीं? यह एक यक्ष प्रश्न बन गया है। ऐसा इसलिए हम कह रहे हैं क्योंकि सूबे में एक ऐसी पार्टी है जिसको अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस जख्म को नासूर और फिर उसे कैंसर में तब्दील करने में महारत हासिल है। मणिपुर के बारे में एक सवाल पूछा जा रहा है कि आखिर नॉर्थ-ईस्ट में एनडीए का समीकरण तो ठीक ही चल रहा था ऐसे में बीजेपी को इस तरह के किसी हिंसक रास्ते पर जाने की क्या जरूरत थी?
पहली बात तो यह आकलन ही समस्याग्रस्त है कि उत्तर-पूर्व में बीजेपी का सब कुछ ठीक चल रहा है। दरअसल नौ सालों तक केंद्र में सत्ता में रहने के बाद एक सामान्य एंटी इंकबेंसी उसके खिलाफ है। इसके अलावा जगह-जगह राज्यों में जो प्रायोजित गठबंधन के जरिये बीजेपी ने सरकारें बनायी हैं वह भविष्य में बहुत मजबूत और टिकाऊ हों इसकी कोई गारंटी नहीं है। या फिर वह स्थाई रूप से चलेंगी यह कह पाना मुश्किल है। इसके साथ ही दूसरे सूबों में बीजेपी की सरकारें तमाम तरह के झूठे वादों और घोषणाओं पर बनी थीं लेकिन उनके न पूरा होने पर जनता का गुस्सा स्वाभाविक है, जो अगले चुनाव में वोटों के तौर पर सामने आ सकता है।
मसलन मणिपुर में बीजेपी ने तो मैतेइयों का हिंदू के नाम पर वोट लिया। लेकिन इसके साथ ही गृहमंत्री अमित शाह ने यह वादा कर कि चुनाव बाद कुकियों के अलग प्रशासनिक इकाई की मांग पर सकारात्मक तरीके से विचार किया जाएगा उनके भी वोट हासिल कर लिए। इसके अलावा चुनाव से ठीक पहले अपने मंत्रालय से सरेंडर्ड अतिवादी तत्वों को अलग से पैसा देकर उन वोटों के अपनी झोली में आने की गारंटी कर ली। इस तरह से मैतेई और कुकी दोनों का पूरा का पूरा वोट बीजेपी के खाते में चला गया। नतीजतन पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ वहां सरकार बनायी।
लेकिन समय के साथ न वादे पूरे किए गए और न ही उसकी कोई जरूरत समझी गयी। लिहाजा सूबे की बीरेन सिंह सरकार के खिलाफ अपने किस्म का विक्षोभ पैदा हो गया था। लिहाजा उसके दायरे से चीजों को बाहर निकालने के लिए किसी नये पहल की पार्टी की जरूरत बन गयी थी। इसके साथ ही पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व इस आकलन को लेकर भी चल रहा था कि भविष्य में केंद्र की सत्ता के न होने के बावजूद उत्तर-पूर्व में सरकार के साथ-साथ पार्टी के एक स्थाई आधार का रहना जरूरी है। क्योंकि आम तौर पर देखा गया है कि केंद्र में जिसकी सत्ता रहती है कमोबेश एक दौर के बाद उत्तर-पूर्व के इलाकों में भी उसी पार्टी की सरकारें बनती हैं।
लिहाजा बीजेपी को यहां एक स्थाई आधार की तलाश थी जो किसी उल्टे राजनीतिक आंधी-तूफान में भी न डगमगाए। इस लिहाज से उसने असम, त्रिपुरा और मणिपुर को केंद्रित किया है। और तीनों राज्यों में कमोबेश अपने किस्म के रजवाड़े या फिर एक दौर में सामंती शासन रहा है। जो एक तरह से हिंदू धर्म के बेहद करीब रहे हैं। ऐसे में उन्हें अपनी विचारधारा के आधार पर गोलबंद करना बीजेपी के लिए बेहद आसान है। संघ-बीजेपी ने इन तीनों सूबों में यही किया। हिंदू और मुसलमानों के बीच ध्रुवीकरण कराकर वह असम में सत्ता का फल चख रही है। दूसरी तरफ त्रिपुरा में उसे दूसरी बार सत्ता हासिल करने में ज्यादा मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा।
लेकिन मणिपुर में इसको सुनिश्चित करने के लिए उसे इस तरह का कोर्स लेना पड़ा है। इसके साथ ही उसने देश में अपने हिंदुत्व आधार को यह भरोसा दिलाने में सफल रही है कि जिस तरह से वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ है उसी तरह से ईसाई भी उसके निशाने पर हैं। लेकिन गुजरात से बढ़ा यह मॉडल पूरे मणिपुर को एक ‘स्टेटलेस’ समाज में तब्दील कर दिया है। जहां, प्रशासन पूरी तरह से बैठ गया है। दोनों समाज आपस में लड़ रहे हैं और सुरक्षा बल के जवान मूकदर्शक बने हुए हैं।
इस बात में कोई शक नहीं कि मणिपुर का पूरा मामला तात्कालिक तौर पर पीएम मोदी के खिलाफ जा रहा है। और अभी के हालात में मैतेई बीरेन सिंह के साथ हैं और मोदी के खिलाफ। सूबे में प्रशासन की नाकामी को मोदी से जोड़कर देखा जा रहा हैं जिसमें बीरेन के लिए यह अपने किस्म का एक सेफ्टीवॉल्व है। बीजेपी और मोदी के लिए मणिपुर एक अनसुलझी पहेली हो गया है। बीरेन पूरी तरह से नाकाम रहे हैं जितनी यह बात सही है उससे ज्यादा पुख्ता बात यह है कि उनके नेतृत्व में सूबे को पटरी पर नहीं लाया जा सकता है।
लेकिन बीजेपी के साथ संकट यह है कि अगर वह बीरेन को हटाकर किसी दूसरे को अपना मुख्यमंत्री बनाती है तो वह नाराज हो जाएंगे और यह नाराजगी अगर एक सीमा से आगे गयी तो वह सूबे में अपनी रीजनल पार्टी बना सकते हैं। जिसका आधार मैतेई होंगे। क्योंकि वे इस समय उनके सबसे बड़े नेता हो गए हैं। और इस तरह से उनके लिए एक मजबूत आधार पहले से तैयार है। लिहाजा बीजेपी के लिए मणिपुर आगे कुंआ पीछे खाईं की स्थिति में पहुंच गया है। यही वजह है कि बीजेपी वहां चाह कर भी कुछ करने की स्थिति में नहीं है।
अब आते हैं मेवात पर। जब से विपक्ष का ‘इंडिया’ नाम से गठबंधन सामने आया है मोदी जी की रातों की नींद और दिन का चैन खो गया है। वह कोई सभा हो या सरकारी आयोजन मौके-बे-मौके इसके खिलाफ बोलना शुरू कर देते हैं। उनकी बौखलाहट इस कदर बढ़ गयी है कि कभी उसकी तुलना टुकड़े-टुकड़े गैंग से करते हैं तो कभी उसे इंडियन मुजाहिदीन करार देते हैं। इस गठबंधन को लेकर जिस तरह की मानसिक स्थिति उनकी बन गयी है। उसको लेकर चर्चा-ए-आम है। और इसको लेकर तरह-तरह की आशंकाएं जताई जा रही हैं। कोई कह रहा है कि रात में उन्हें इंडिया के सपने आते हैं तो कोई उनके नींद में अभुवाने की बात कर रहा है। कोई उनके सपनों में कई तरह की हरकतों की तरफ इशारा कर रहा है।
मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया से लेकर अपनी योजनाओं का न जाने क्या-क्या नाम इंडिया के नाम पर उन्होंने रखा है लेकिन अब उन्हें यह शब्द विदेशी लगने लगा है। और इसके खिलाफ बोलने लगे हैं। इस बात में कोई शक नहीं कि इस दौर में संगठित तौर पर विपक्ष ने जो नैरेटिव बनाया है वह सत्ता पक्ष पर भारी पड़ता दिख रहा है। एनडीए को फिर से जिंदा करने की कोशिश उसी का नतीजा है। लेकिन उससे कोई मकसद हल होता नहीं दिख रहा है। आलम यह है कि मोदी भक्तों में कभी ‘शेर’ के तौर पर प्रचलित यह शख्स संसद का सामना करने से डर रहा है। वह मणिपुर पर न तो बहस कराना चाहते हैं और न ही उसमें भाग लेने के लिए तैयार हैं। हां, इस शर्त के साथ वह कोई छोटी-मोदी बहस संसद में ज़रूर कराने के लिए तैयार हैं जिसमें उनकी मौजूदगी न हो।
संसद के अपने दफ्तर में वो बैठते हैं लेकिन सदन में चेहरा नहीं दिखाते हैं। यह देश के शायद ऐसे पहले पीएम होंगे जो लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत की बैठक में शामिल होने से भाग रहे हैं। लेकिन विपक्ष ने भी उन्हें बांधकर सदन में लाने का रास्ता ढूंढ लिया जब उसने लोकसभा के भीतर उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया। और स्पीकर को भी उसे स्वीकार करना पड़ा। जिसका नतीजा यह है कि 8 अगस्त को उस पर बहस होगी और पीएम मोदी को उसका जवाब देना पड़ेगा।
इन सारी कवायदों के बीच यह बात बिल्कुल साफ होती दिख रही है कि बीजेपी और पीएम मोदी को अपनी तीसरी पारी से बढ़ती दूरी का एहसास होने लगा है। ऐसे में उनके पास इस तरह के किसी नये प्रयोग में जाने के सिवा कोई चारा नहीं बचा है। आखिर उन्होंने नूंह को ही क्यों चुना? यह भी एक बड़ा सवाल है। पहली बात तो यह राजस्थान के करीब है जहां चुनाव होने वाले हैं।
इसके साथ ही जुनैद से लेकर पहलू खान तक तमाम मॉब लिंचिंग की घटनाएं इसी क्षेत्र में हुई हैं। नूंह के पास स्थित गुड़गांव में सड़क पर लगातार नमाज पढ़े जाने की कोशिशों का संगठित विरोध हुआ। और एक हद तक संघ-वीएचपी अपने मंसूबों में कामयाब रहे। और इसी कड़ी में बजरंग दल और वीएचपी की एक सक्रिय फोर्स यहां तैयार हो गयी थी जिसे कभी भी मोर्चे पर उतारा जा सकता था।
साथ ही सूबे में एक ऐसा मुख्यमंत्री है जो सत्ता में आरएसएस के हाफ पैंट के साथ आया है। और उसे किसी भी तरह से केंद्र के इशारे पर नचाया जा सकता है। और आखिरी बात जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है वह यह कि इस बार उन्हें मुसलमानों का एक ऐसा इलाका चाहिए था जो किसी हमले का संगठित प्रतिकार करे। क्योंकि पिछले नौ सालों में सत्ता संरक्षित तमाम हमलों के बाद भी मुस्लिम समुदाय ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। वह बिल्कुल पीड़ित की भूमिका में खड़ा रहा और सभी तरह के अत्याचार सहता रहा। ऐसे में उसके खिलाफ आम हिंदुओं में गुस्से की जगह दया की भावना घर करती जा रही थी।
लिहाजा उसको दुश्मन के तौर पर पेश करना और उससे बदला लेने की संघ की जो सोच रही है उसको धक्का पहुंच रहा था। और हिंदू समुदाय में वह किसी भी तरीके का ध्रुवीकरण करवाने में नाकाम रहता। ऐसे में सामने से एक प्रतिरोध की जरूरत थी। लिहाजा बजरंग दल और वीएचपी को इसी मोर्चे पर लगाया गया और मुसलमानों को किसी मोनू मानेसर तो किसी बजरंगी के जरिये पहले ही हर तरीके से उकसाया गया। साथ ही पुलिस बल को भी दूर रखा गया। और अगर कहीं रहा तो वह इन बजरंगियों के साथ और उनके सहयोग में। इससे संबंधित कई वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हैं। एक जगह तो भगवा गमछा पहना एक शख्स बंदूक से गोली मार रहा है तो कई खाकी वर्दी धारी उसे कवर दे रहे हैं।
अब अगर आप किसी के घर में जाकर उसे मारने और उसका दामा… बन कर खुद का स्वागत कराने वाले बयान जारी करेंगे तो सामने वाला कायर तो है नहीं? वह भी अपने तईं उसका प्रतिरोध और प्रतिकार करेगा। वही हुआ। जब बजंरग दल और वीएचपी के गुंडे हथियारों के साथ मुस्लिम बहुल नूंह में प्रवेश किये तो सामने सैकड़ों की संख्या में मुसलमान उनका जवाब देने के लिए खड़े थे। जिसका नतीजा दोनों पक्षों के बीच हिंसक संघर्ष और उसमें कुछ बेकसूरों की जानें जाने के तौर पर सामने आया।
लेकिन इस बात को दावे के साथ कहा जा सकता है कि संघ का डिजाइन यहां फेल कर गया। बीजेपी को यहां उम्मीद थी कि उसे अपने आधार के अलावा जाट और गुर्जर समेत तमाम दूसरे तबकों का भी हिंदू के नाम पर खुला समर्थन मिलेगा और इस तरह से यह ध्रुवीकरण और तेज हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गुर्जरों के संगठन ने न केवल इसका विरोध किया बल्कि जाट भी खुलकर बीजेपी के खिलाफ आ गए। यहां तक कि जाटों और मुसलमानों की पंचायत हुई जिसमें किसी भी कीमत पर भाईचारे को नहीं बिगाड़ने का संकल्प लिया गया।
इतना ही नहीं जाट समुदाय के नौजवान स्वतंत्र तौर पर सोशल मीडिया में आकर अपना-अपना वीडियो जारी कर रहे हैं जिसमें बजरंग दल और वीएचपी की साजिश का खुला विरोध हो रहा है। ऐसे में बीजेपी-संघ की पूरी रणनीति फेल हो गयी है। यहां तक कि उसे उसी क्षेत्र के रहने वाले अपने केंद्रीय मंत्री तक का समर्थन नहीं मिल पाया। ऐसे में संघ-बीजेपी के घृणित मंसूबों का एक बार फिर पर्दाफाश हो गया है।
(महेंद्र मिश्र ‘जनचौक’ के फाउंडिंग एडिटर हैं।)