ऐसा लग रहा है कि भारतीय स्टेट बैंक प्रधानमंत्री चंदा छिपाओ योजना की तरह काम कर रहा है. देश जानना चाहता है कि किसी राजनीतिक दल को चुनावी बॉन्ड के तहत किसने चंदा दिया? मगर भारतीय स्टेट बैंक का कहना है कि यह जानकारी आसानी से हासिल नहीं की जा सकती है. यह जानकारी हासिल करने में काफी वक्त लगेगा. इतना वक्त लगेगा कि जब लोकसभा चुनाव बीत जाएगा उसके बाद ही यह जानकारी मिल सकती है.
हकीकत हम सब जानते हैं कि मौजूदा वक्त में भारतीय स्टेट बैंक जैसे भारत के सबसे बड़े बैंक का सारा कामकाज डिजिटल प्रणाली से होता है. किसी भी तरह का रिकॉर्ड या जानकारी हासिल करना हो तो केवल एक क्लिक से वह जानकारी हासिल की जा सकती है. यहां तो चुनावी बॉन्ड की बात है.
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने अपनी रिपोर्ट और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और कॉमन कॉज़ ने भारतीय स्टेट बैंक के खिलाफ दर्ज अवमानना याचिका में यह बताया है कि हर चुनावी बॉन्ड पर एक यूनिक सीरियल नंबर होता है और इस नंबर के सहारे यह आसानी से पता चल सकता है कि किस चुनावी बॉन्ड को किसने खरीदा और किस राजनीतिक दल ने भुनाया?
भारतीय स्टेट बैंक के अधिकारियों को अपने डेटाबेस से केवल एक साधारण-सा सवाल पूछने की जरूरत है पर भारतीय स्टेट बैंक के पढ़े-लिखे, ऊंचे दर्जे के अधिकारी पूरे देश के सामने झूठ बोल रहे हैं कि चुनावी बॉन्ड की जानकारी हासिल करने में काफी वक्त लगेगा. झूठ किसकी दबाव में बोला जा रहा है, यह बताने जरूरत नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने एकमत होकर चुनावी बॉन्ड योजना को खारिज कर दिया और असंवैधानिक करार दिया. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि लोकतंत्र में एक वोटर को यह जानने का हक है कि राजनीतिक दलों की फंडिंग कहां से होती है. चुनावी बॉन्ड योजना से यह पता नहीं चलता कि राजनीतिक दलों को चंदा कौन दे रहा है, जिससे वोटर के जानने के मौलिक अधिकार पर हमला होता है. अदालत ने कहा कि जब तक यह पता नहीं चलता कि किसने किस तारीख को चुनावी बॉन्ड खरीद है और राजनीतिक दल ने किस तारीख को कितनी मात्रा में चुनावी बॉन्ड बनाया है तब तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला पूरा नहीं होगा.
इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी 2024 के अपने फैसले में यह निर्देश दिया था कि भारतीय स्टेट बैंक चुनावी बॉन्ड को जारी करना बंद कर दे. तीन हफ्ते के भीतर बैंक यह बताएं कि किसने, किस तारीख को कितनी मात्रा में चुनावी बॉन्ड खरीदे. साथ में यह भी बताएं कि किस राजनीतिक दल ने कितनी मात्रा में किस तारीख को चुनावी बॉन्ड भुनाए.
6 मार्च 2024 की तारीख को सुप्रीम कोर्ट द्वारा बैंक को मिली तीन हफ्ते की अवधि पूरी हो गई. मगर इससे 2 दिन पहले ही स्टेट बैंक ने अपने हाथ खड़े कर दिए. बैंक ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर किया कि चुनावी बॉन्ड का डेटा साझा करना मुश्किल है, उसे 3 महीने का और वक्त चाहिए. मतलब 30 जून 2024 तक का वक्त. जब देश में लोकसभा चुनाव खत्म हो चुके होंगे.
मतलब साफ है कि भारतीय स्टेट बैंक मोदी सरकार के इशारे पर ‘चंदा छुपाओ योजना’ के तहत काम कर रही है. ताकि लोगों को यह न पता चल जाए कि चुनावी बॉन्ड के जरिये भाजपा को बहुत बड़ी मात्रा में गुप्त दान किसने किया? जिसने गुप्त दान किया उसने उसके बदले क्या-क्या लिया? सरकार की नीतियों और कदमों को किस तरीके से अपने फायदे के लिए मोड़ा? लोकसभा चुनाव में विपक्ष के जरिये यह सारे सवाल प्रमाणित बहस का हिस्सा न बने इसलिए स्टेट बैंक ने कह दिया है कि ‘कुछ भी नहीं बताएंगे.’
एडीआर और कॉमन कॉज़ जैसी संस्थाएं जिनकी याचिकाओं की वजह से सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बॉन्ड मामले की सुनवाई हुई, ने अब शीर्ष अदालत में स्टेट बैंक के खिलाफ के खिलाफ अवमानना याचिका दायर की है. इस पर और स्टेट बैंक की अर्जी पर 11 मार्च को सुनवाई होगी.
इस याचिका में लिखा है कि बैंक हर चुनावी बॉन्ड खरीदने वाले का विस्तृत केवाईसी करता है. मतलब बैंक के पास अच्छा-खासा डेटा है जो बताता है कि किसने चुनावी बॉन्ड खरीदा है. हर चुनावी बॉन्ड पर एक यूनिक सीरियल नंबर होता है. जिससे यह पता चलता है कि किसके चुनावी बॉन्ड को किसी राजनीतिक दल ने भुनाया है? मतलब सीरियल नंबर के मिलान करने से यह बात आसानी से जानी जा सकती है कि किसी राजनीतिक दल को किसने, कितना पैसा चुनावी बॉन्ड के जरिये डोनेट किया है?
साल 2019 में भारत सरकार ने खुद सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में यह बताया था कि यह बात आसानी से जानी जा सकती है कि चुनावी बॉन्ड से जुड़ी हुई सूचना क्या हैं, मसलन किसने बॉन्ड खरीदा और किसी राजनीतिक दल को दिया.
कमोडोर लोकेश बत्रा को मिले एक आरटीआई जवाब से पता चलता है कि चुनावी बॉन्ड के प्रबंधन के लिए जिस आईटी सिस्टम को बनाया गया है, उस पर एसबीआई ने तकरीबन 60 लाख रुपये खर्च किए हैं और उसे ऑपरेशनल बनाने के लिए तकरीबन 89 लख रुपये. यानी चुनावी बॉन्ड के डेटा के लिए भारतीय स्टेट बैंक के पास अच्छा खासा सॉफ्टवेयर सिस्टम है.
बस भारतीय स्टेट बैंक को एक सिंपल-सा सवाल पूछना है और सॉफ्टवेयर में मौजूद डेटाबेस से वह सारी जानकारियां बाहर आ जाएंगी, जो कोर्ट ने उससे मांगी है, जो जानकारियां देश की जनता मांग रही है.
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव का दावा है कि कई ऐसे सबूत हैं जो यह बताते हैं कि जब सरकार ने एसबीआई से चुनावी बॉन्ड की जानकारी मांगी तो तो एसबीआई ने बमुश्किल 48 घंटे के भीतर जानकारी दे दी. जब भी चुनावी बॉन्ड भुनाने की अवधि खत्म होती थी, बैंक बहुत ही आस्थावान तरीके से वित्त मंत्रालय को जानकारी दिया करता था.
रिपोर्टर्स कलेक्टिव का कहना है कि दस्तावेजों की छानबीन से पता चलता है कि भारतीय स्टेट बैंक चुनावी बॉन्ड के बिकने और राजनीतिक दल द्वारा चुनावी बॉन्ड को भुनाने का ऑडिट ट्रेल मेंटेन करके रखती है. हर बॉन्ड पर एक यूनिक सीरियल नंबर होता है. इसी यूनिक सीरियल नंबर के सहारे चुनावी बॉन्ड से जुड़ी सभी जानकारी रखी जाती है. वही एसबीआई जो सरकार के चुनावी बॉन्ड के जानकारी मांगने पर तुरंत जानकारी देता है, वह कोर्ट से कह रहा है कि चुनावी बॉन्ड को खरीदने वाले और भुनाने वाले राजनीतिक दल का डेटा अलग-अलग रखा जाता है.
एसबीआई का कहना है कि गुमनामी बनाए रखने के लिए चुनावी बॉन्ड की बिक्री और भुनाने के डेटा को अलग रखा गया, इसलिए 2019 के बाद से जारी किए गए कुल 22,217 चुनावी बॉन्ड के खरीदारों का उन पार्टियों के साथ मिलान करने में कई महीने लगेंगे, जिन्होंने बॉन्ड को भुनाया है.
मगर दस्तावेजों पड़ताल के हवाले से रिपोर्टर्स कलेक्टिव का कहना है कि वित्त मंत्रालय ने साल 2017 में स्वीकार किया था कि जब चुनावी बॉन्ड को भुनाने के लिए बैंक में पेश किया जाता है तब एसबीआई उसी समय जान लेता है कि किसने बॉन्ड खरीदा था और कौन दल उस बॉन्ड को भुना रहा है.
चुनावी बॉन्ड के ऑपरेशन मैनुअल में साफ लिखा है कि बॉन्ड खरीदने वाले की जानकारी बैंकिंग चैनल में हमेशा उपलब्ध होती है और जब भी भारत सरकार की किसी एजेंसी को इस जानकारी की जरूरत पड़ेगी, बैंकिंग चैनल के जरिये इसे तुरंत मुहैया करवा दिया जाएगा.
जैसा कि पहली बार चुनावी बॉन्ड पेश किए जाने के समय आर्थिक मामलों के सचिव रहे पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग ने कहा है कि चुनाव से पहले चंदा देने वालों का विवरण प्रकाशित करने से बचने के लिए एसबीआई ‘एकदम घटिया बहाना’ लेकर आया है. सच तो यह है कि प्रधानमंत्री भारत की जनता के सामने अपने कॉरपोरेट चंदादाताओं का खुलासा करने से डरते हैं.
वह शख्स जिसने कभी ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ कहा था अब ‘न बताऊंगा, न दिखाऊंगा’ पर अड़ा हुआ है.