सत्येंद्र रंजन
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने 18वीं लोकसभा चुनाव के लिए जो घोषणापत्र जारी किया है, कहा जा सकता है कि उसका सार दो शब्दों और तीन संदर्भों में है। ये शब्द हैं:
- उलटना (reversal), और
- बहाली (restoration)
पार्टी ने नरेंद्र मोदी के शासनकाल में उठाए गए अनेक कदमों को पलट देने का संकल्प लिया है। साथ ही कई पुरानी स्थितियों/संस्थाओं की पुनर्वापसी का एजेंडा उसने देश के सामने रखा है।
सीपीएम के 44 पेज के घोषणापत्र ( 20240331-pdfls_election_manifesto.final_.pdf) को अगर ध्यान से पढ़ा जाए, तो यह दस्तावेज मुख्य रूप से इन तीन परिघटनाओं के प्रति पार्टी के रुख का वक्तव्य मालूम पड़ता है। इनमें,
- मार्केट यानी नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों की सीपीएम आरंभ से ही आलोचक रही है। उन आलोचनाओं को उसने ताजा घोषणापत्र में दोहराया है। इन नीतियों पर अमल के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था जिस तार्किक मुकाम पर पहुंची है, उससे संबंधित कई प्रक्रियाओं को पलटने का इरादा उसने जताया है। चूंकि पश्चिमी देशों में भी इन नीतियों के दुष्परिणाम अब खुल कर सामने आ चुके हैं, इसलिए वहां इनसे पैदा हुई समस्याओं के सोशल डेमोक्रेटिक समाधान ढूंढने के बौद्धिक प्रयास हुए हैं। इनके तहत उभरे कई सुझावों को सीपीएम ने भी अपने घोषणापत्र में जगह दी है।
- मंदिर आंदोलन भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के अभियान का हिस्सा था। यह एक परिघटना में तब्दील हुआ और आज इसकी बदौलत भारतीय जनता पार्टी देश की मुख्य राजनीतिक धुरी बन चुकी है। सीपीएम को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि आरंभ से ही उसने इस परियोजना का वैचारिक एवं राजनीतिक स्तरों पर प्रतिरोध किया। ताजा घोषणापत्र में इसका विरोध करने का पार्टी का संकल्प फिर जाहिर हुआ है। घोषणापत्र से जो मुख्य व्यावहारिक राजनीतिक लाइन निकल कर आती है, वह इसी समझ से प्रेरित है। ये लाइन इन तीन मकसदों में व्यक्त हुई है-
- बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को पराजित करना
- लोकसभा में सीपीएम एवं अन्य लेफ्ट पार्टियों की शक्ति बढ़ाना, और
- यह सुनिश्चित करना कि केंद्र में एक धर्मनिरपेक्ष सरकार बने
- तीसरी परिघटना मंडल- यानी परंपरागत रूप से पिछड़ी रही जातियों के राजनीतिक उभार की थी। सीपीएम का घोषणापत्र स्पष्ट करता है कि पार्टी ने मंडल परिघटना को पूरी तरह गले लगा लिया है। इस परिघटना का सार- आइडेंटीटी पॉलिटिक्स यानी (जातीय एवं अन्य) पहचान आधारित राजनीति है, जिसे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी पूरी तरह अपना चुकी है।
तो अब देखते हैं कि सीपीएम क्या पलटना चाहती है और क्या बहाल करना चाहती है।
पार्टी ने जिन कानूनों या कदमों को पलटने की बात की है, उनमें मुख्य हैं:
- नागरिकता संशोधन कानून (सीपीए) को रद्द करना
- गैर-कानूनी गतिविधि निवारक कानून (यूएपीए) और मनी लॉन्ड्रिंग निवारक कानून (पीएमएलए) को रद्द करना
- धर्मांतरण विरोधी (anti-conversion) कानूनों को समाप्त करना
- बीजेपी सरकार ने आरएसएस से जुड़े व्यक्तियों की सरकारी पदों पर जो नियुक्तियां हैं, उन्हें वहां से हटाने का वादा भी सीपीएम ने किया है।
सीपीएम ने जिन पुरानी स्थितियों या संस्थाओं को बहाल करने का संकल्प जताया है, उनमें शामिल हैं:
अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा। जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य के दर्जे की वापसी इसमें अंतर्निहित है।
- राज्यों के संवैधानिक अधिकार (जिनका सीपीएम के अनुसार मोदी सरकार ने गंभीर रूप से क्षरण कर दिया है।)
- पार्टी ने कहा है- ‘सार्वजनिक उद्यमों के हुए निजीकरण पर अवश्य पुनर्विचार होना चाहिए और ऐसे कदमों को पलटा जाना चाहिए।’
- लैंड सीलिंग ऐक्ट्स को कमजोर करने के लिए उठाए गए कदमों की वापसी
- योजना आयोग का फिर से गठन
- विदेश नीति में सीपीएम ने गुटनिरपेक्षता की तरफ लौटने की वकालत की है और कहा है कि देश के हितों की रक्षा के लिए यही नीति सर्वोत्तम है।
- अमेरिका के साथ हुए सभी आधारभूत समझौतों (foundational agreements) से भारत को अलग करना।
- भारत-अमेरिका डिफेंस फ्रेमवर्क एग्रीमेंट, क्वैड और आई2यू2 समझौतों से भारत को अलग करना।
इनके अलावा सीपीएम ने एक सोशल डेमोक्रेटिक एजेंडा देश के सामने रखा है। उपरोक्त बातें पार्टी घोषणापत्र के पहले 12 पृष्ठों में हैं। यह घोषणापत्र का पहला भाग है। पहले भाग में आज की राजनीतिक-आर्थिक हालत पर पार्टी ने अपनी समझ आम जन के सामने रखते हुए उन कदमों का जिक्र किया है, जिन पर सत्ता को प्रभावित करने की स्थिति में आने पर वह जोर देगी।
दूसरा भाग अपेक्षाकृत लंबा है। इसमें पार्टी ने “वैकल्पिक नीतियों” का सुझाव सामने रखा है। इस भाग में पार्टी ने बताया है कि उसकी समझ में आज राष्ट्र-हित साधने और जन कल्याण के लिए किन कानूनी या अन्य उपायों को अपनाया जाना चाहिए। इस हिस्से में संविधान में शामिल धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों और लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए पार्टी ने अपने सुझाव पेश किए हैं।
उसके अतिरिक्त जन कल्याण का अपना एजेंडा उसने सामने रखा है। इस हिस्से की कुछ प्रमुख बातें हैं:
- धनी तबके, कॉरपोरेट मुनाफे और विलासिता की वस्तुओं पर टैक्स बढ़ा कर अधिक संसाधन जुटाना। पार्टी ने वेल्थ टैक्स को वापस लाने और उत्तराधिकार कर शुरू करने का सुझाव दिया है।
- पार्टी ने राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (FRBM) कानून को रद्द करने की बात कही है।
- भारतीय राज्य एवं जनता पर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का दबदबा रोकने के लिए पार्टी ने वित्तीय विनियमन नीति लागू करने की वकालत की है।
- पार्टी ने सरकारी बैंकों के डूबे कर्जों को कॉरपोरेट कर्जदारों से वसूल करने, और insolvency and bankruptcy code वापस लेने का पक्ष लिया है।
इन माध्यमों से संसाधन जुटा कर पार्टी शिक्षा, स्वास्थ्य, इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि पर सरकारी खर्च बढ़ाना चाहती है। साथ ही उसने किसानों को उनकी कुल लागत के डेढ़ गुना के बराबर न्यूनतम समर्थन मूल्य, अधिक संख्या में फसलों के लिए एमएसपी की व्यवस्था, श्रमिकों के लिए 26 हजार रुपये मासिक न्यूनतम मजदूरी आदि जैसे कदमों का समर्थन किया है। सामाजिक न्याय के एजेंडे को गले लगाते हुए पार्टी ने जातीय जनगणना और निजी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था लागू करने की मांग को अपने चुनाव घोषणापत्र में जगह दी है।
इन प्रश्नों के प्रासंगिक होने के बावजूद इस स्तंभकार की राय है कि किसी देश में और किसी भी दौर में विभिन्न राजनीतिक पार्टियां जो सोच सामने रखती हैं, उनका महत्त्व होता है। भले चुनावी संदर्भ में उनकी बातें अप्रासंगिक हों, लेकिन राजनीति के व्यापक दायरे में उनकी अहमियत होती है, बशर्ते पार्टी उनके जरिए कोई वैकल्पिक या अभिनव सोच समाज के सामने रख रही हो।
सीपीएम भारत में अपने को कम्युनिस्ट/मार्क्सवादी मानने वाले दलों के बीच सबसे बड़ी ताकत है। यह कहा जा सकता है कि यह एकमात्र ऐसा दल या समूह है, जिसके भीतर मार्क्सवादी विमर्श के अस्तित्व आज ढूंढे जा सकते हैं। इसलिए पार्टी क्या सोच जनता के सामने रखती है, उसे जानना महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
इसलिए सीपीएम के घोषणापत्र को देखने का एक पैमाना यह सवाल है कि क्या इसमें पार्टी ने सचमुच कोई अलग, खास सोच सामने रखी है? एक सोच जो मौजूदा हालात के बीच जनता का मार्गदर्शन कर सके? क्या उसके घोषणापत्र से ऐसे बौद्धिक उत्प्रेरक तत्व हैं, जो देश आज जहां पहुंचा है, उसके गतिशास्त्र को समझने में मददगार बनें?
इन बिंदुओं पर यह दस्तावेज निराश करने वाला है। घोषणापत्र भारत की वर्तमान पॉलिटिकल इकॉनमी की ठोस व्याख्या पेश करने में विफल रहा है। देश में आज सरकारें किस हद तक स्वतंत्र एजेंसी रह गई हैं और किस हद तक उन पर मोनोपॉली व्यापार घरानों का नियंत्रण कस गया है, इस बारे में बिना स्पष्ट समझ बनाए वर्तमान संकट से निकलने का रास्ता तलाशना आसान नहीं है।
यह प्रश्न निर्णायक महत्त्व का है कि क्या यह रास्ता reversal और restoration की सोच के साथ निकल सकता है? या अब नई सोच के साथ कुछ नए विकल्पों पर विचार का समय है? जिन कदमों को सीपीएम पलटना चाहती है और जिन संस्थाओं या व्यवस्थाओं को वह बहाल करना चाहती है, उनके संदर्भ में यह सवाल महत्त्वपूर्ण है कि आखिर वर्तमान सरकार (या पिछली सरकारों ने भी) कैसे और क्यों इतनी आसानी से उन्हें खत्म कर दिया? उसकी शक्ति उन्हें कहां से मिली? और आज मोदी सरकार आक्रामक ढंग से उन कदमों को आगे बढ़ाते हुए भी क्यों अपना समर्थन आधार एक हद तक बरकरार रखे हुए हैं?
दुनिया में आज इन प्रश्नों पर नई वस्तुगत परिस्थितियों की रोशनी में विचार किया जा रहा है। मगर सीपीएम ने भारतीय संदर्भ में ऐसी वैचारिक पहल करने का प्रयास नहीं किया है। नतीजा है कि वह एक तरह से नेहरूवादी अर्थनीति एवं राजनीतिक व्यवस्था के पैरोकार के रूप में उभर कर सामने आई है। जवाहर लाल नेहरू ने उपनिवेशवाद से मुक्ति के उपरांत तत्कालीन परिस्थितियों के बीच देश के सामने यथासंभव प्रगतिशील एजेंडा रखा था। उनकी अपनी उपलब्धियां हैं।
नेहरूजी की अर्थनीति को उचित ही उस समय प्रचलित सोशल-डेमोक्रेसी के दायरे में समझा या परिभाषित किया जाता है। लेकिन बाद में वर्ग संघर्ष की उभरी परिस्थितियों में शासक समूहों एवं अभिजात्य वर्ग ने राजसत्ता पर अपना पूरा नियंत्रण जमा लिया। नतीजा आज की दशा और दिशा है। मगर यह सिर्फ भारत की बात नहीं है, बल्कि इस घटनाक्रम का वैश्विक संदर्भ है।
आज जरूरत इस संदर्भ की समझ देश के आवाम के सामने रखने की है। आज आवश्यकता दुनिया में उभर रहीं उन नई परिस्थितियों पर बात करने की है, जिनकी वजह से पश्चिमी साम्राज्यवाद से बाकी दुनिया के मुक्त हो सकने की ठोस संभावनाएं पैदा हुई हैं। ये हालात विभिन्न देशों के सामने अपनी आंतरिक व्यवस्था के बारे में पुनर्विचार करने की विचार सामग्रियां भी उपलब्ध करा रहे हैं। सीपीएम अगर ऐसे विचार-विमर्श का माध्यम बने- तो संसद में कम प्रतिनिधित्व के बावजूद वह अपनी एक बड़ी भूमिका बना सकती है। अगर ठोस मार्क्सवादी विश्लेषण पेश करते हुए नए संदर्भों में समाजवाद के सपने को जगा सके, तो संसदीय राजनीति में कमजोर अवस्था के बावजूद वह अपनी दूरगामी प्रासंगिकता बना सकती है।
लेकिन फिलहाल सीपीएम ने इसका एक महत्त्वपूर्ण मौका गंवा दिया है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)