नरेंद्र मोदी और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने 2024 के चुनाव में उभरे जनादेश के संदेश को ठेंगा दिखा दिया है। पहले दिन से- यानी जिस रोज नतीजे आए- उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की है कि देश की सियासी सूरत में ऐसा कोई बदलाव आया है, जिससे उन्हें कुछ सबक लेने की जरूरत हो। चार जून की शाम को ही जब मोदी भाजपा मुख्यालय गए, तो उन पर पुष्प वर्षा की गई। वहां पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और फिर मोदी ने जो भाषण दिए, उनका निहितार्थ था कि देश के मतदाताओं ने एक बार फिर नरेंद्र मोदी को उसी तरह सिर-आंखों पर बैठाया है, जैसा उन्होंने 2014 और 2019 में किया था। उन्होंने संदेश दिया कि भाजपा को मोदी के नेतृत्व में निरंतरता का जनादेश मिला है।
लेकिन इन तथ्यों की उन्होंने सिरे से उपेक्षा कर दीः
- भाजपा को इस चुनाव में 2019 की तुलना में 63 सीटों का नुकसान हुआ।
- गुजरे दस साल में हिंदुत्व की नई प्रयोगस्थली बनकर उभरे उत्तर प्रदेश में विपक्षी इंडिया गठबंधन ने आधी से ज्यादा सीटें जीतीं।
- लोकसभा में सीटों के लिहाज से देश के दूसरे सबसे राज्य महाराष्ट्र में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को जोरदार मुंह की खानी पड़ी।
- तीसरे सबसे बड़े राज्य पश्चिम बंगाल में भाजपा की वह जमीन खिसक गई, जो पांच साल पहले हुए आम चुनाव में उसने हासिल की थी।
- 2019 की तुलना में राजस्थान, हरियाणा, कर्नाटक, बिहार आदि राज्यों में भाजपा को तगड़ा झटका लगा।
- बेशक भाजपा ने ओडिशा के रूप में एक नया राज्य जीता और दक्षिणी राज्यों में उसके वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी हुई, लेकिन वहां हुआ लाभ उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी राज्यों में हुए नुकसान की भरपाई करने लायक साबित नहीं हुआ।
- भाजपा के राष्ट्रीय वोट प्रतिशत में 2019 की तुलना में एक फीसदी की गिरावट आई।
भाजपा अगर अपने गढ़े सच (alternative truth) से बाहर आ पाती, उसे यह स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होती कि भले देश के मतदाताओं ने उसे ठुकराया ना हो, लेकिन उन्होंने उसे एक जोर का झटका जरूर दिया है। ऐसा क्यों हुआ, इस प्रश्न पर पार्टी के अंदर गंभीर मंथन होता। लेकिन उसने जमीनी सच को ठुकराने का रुख अपना लिया। भाजपा का पूरा तंत्र जो हकीकत नहीं है, उसके आधार पर लगातार तीसरी बड़ी विजय का नैरेटिव बनाने में पहले दिन से जुट गया। उसी का परिणाम है कि,
- भाजपा ने यह संदेश देने का प्रयास किया है कि गठबंधन की मजबूरियों से वह पूरी तरह अप्रभावित है।
- एनडीए में उसके गठबंधन सहयोगियों की आज भी वही हैसियत है, जो पिछले दस साल में थी।
- मुमकिन है कि जिन राज्यों से ये सहयोगी दल आते हैं, वहां उन्हें कुछ ज्यादा तवज्जो दी जाए, लेकिन केंद्र में उनकी वही हैसियत रहेगी, जो अब से पहले थी।
तो मोदी और भाजपा ने जो असल में किया है, उस पर ध्यान देः
- नई सरकार के गठन के जरिए उनकी तरफ से निरंतरता का संदेश दिया गया है।
- वे सभी वरिष्ठ नेता फिर से मंत्री बना दिए गए हैं, जिन्होंने मोदी के पिछले कार्यकाल में महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों को संभाला था।
- यही नहीं, उन सबको उनके पुराने मंत्रालय में भी वापस लाया गया है।
- इस तरह राजनाथ सिंह रक्षा, अमित शाह गृह और निर्मला सीतारमन फिर से वित्त मंत्री बन गई हैं।
इस तरह भाजपा ने चुनाव अभियान के दौरान उभरकर आई कुछ कड़वी सच्चाइयों और उनसे बने नैरेटिव्स पर ध्यान देने के बजाय उन्हें ठोकर मार दी है। वरना,
- मोदी कम से कम प्रतीकात्मक बदलाव का पैगाम देने के लिए इन तीन मंत्रियों को बदल देते- या कम से कम वे उन्हें उनके पुराने मंत्रालयों में वापस नहीं लाते।
- चुनाव अभियान में महंगाई और बेरोजगारी की गहराती गई समस्याएं मुख्य कथानक बनी थीं। अनेक राज्यों में जनादेश का स्वरूप तय करने में इनसे संबंधित आम जन के तजुर्बे की बड़ी भूमिका रही। वैसे तो यह आम धारणा है कि मोदी सरकार में मोदी के अलावा कोई और कुछ तय नहीं करता, फिर भी बतौर वित्त मंत्री को आर्थिक नीतियों और उनके परिणामों का चेहरा माना जाएगा। इस लिहाज से निर्मला सीतारमन ने इन समस्याओं का चेहरा रहीं। इसके बावजूद मोदी सरकार के अगले कार्यकाल में भी वे अपनी पुरानी भूमिका में होंगी।
- अग्निपथ योजना को उन राज्यों में नौजवानों में असंतोष गहराने का बड़ा कारण माना गया, जहां से सेना में सबसे ज्यादा भर्तियां होती हैं। वैसे तो इस योजना का संबंध सरकार की पूरी अर्थ नीति और प्राथमिकताओं से है, फिर भी बतौर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह इस योजना के लिए जवाबदेह हैं। लेकिन उन्हें भी वही पुरानी भूमिका सौंप दी गई है।
- लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं और संविधान की रक्षा भी गुजरे चुनाव अभियान में एक प्रमुख मुद्दा बना। इस बारे में जो हालात बने हैं, उनके लिए बतौर गृह मंत्री अमित शाह प्रमुख रूप से जवाबदेह समझे जाएंगे। परंतु वे आगे भी अपनी पुरानी भूमिका को ही निभाते करेंगे।
देश की अर्थव्यवस्था पर कुछ घरानों की कायम हुई मोनोपॉली के लिए बड़ी संख्या में लोग मोदी सरकार को जिम्मेदार मानते हैं। इस परिघटना के प्रतीक के तौर पर अक्सर अंबानी-अडाणी के नाम लिए जाते हैं। चुनाव अभियान के दौरान एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में मोदी ने मोनोपॉली कायम कर चुके घरानों के मालिकों को वेल्थ क्रियेटर बताया था। कहा था कि वे तो यह ‘लाल किले से खुलेआम कहते हैं’ कि इन लोगों का सम्मान होना चाहिए। अब चुनाव के बाद यह बताने के लिए मोनोपॉली का शिकंजा कसने के नैरेटिव से वे पूरी तरह अप्रभावित है, मुकेश अंबानी और गौतम अडाणी को नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में प्रमुखता से ‘शोकेस’ किया गया।
गुजरे दस साल में भी भाजपा नेतृत्व का रवैया जमीनी सच पर परदा डालने का रहा। इसके लिए आंकड़े गढ़ने या उन्हें तोड़-मरोड़ कर पेश करने का तरीका अपनाया गया। आंकड़ों में हेरफेर के जरिए भाजपा ने वैकल्पिक सच का निर्माण करने की कोशिश की, जिसे मीडिया और सोशल मीडिया के धुआंधार इस्तेमाल के जरिए प्रचारित किया गया। यानी भ्रम का साया फैलाया गया। वह साया अभी भी पूरी तरह छंटा नहीं है, लेकिन गुजरे चुनाव में यह जरूर जाहिर हुआ कि पहले साये के आगोश में चले गए बहुत से लोग अब उससे बाहर आ रहे हैं।
अनुभव प्राप्त सच और गढ़े गए सच में आखिरकार अंतर्विरोध का एक ऐसा मुकाम आता ही है, जब इंसान के लिए भ्रम में जीना मोहक नहीं रह जाता। कहा जा सकता है कि 2024 के आम चुनाव में ऐसा मुकाम आने की शुरुआत हो गई है। मगर भाजपा नेतृत्व इस सच को भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। अंततः यह नजरिया उसे भी भारी पड़ेगा। लेकिन उसके पहले सत्ताधारी पार्टी के इस रुख की वजह से करोड़ों लोगों की बदहाली और बढ़ेगी। परिणामस्वरूप सामाजिक स्थिरता के लिए भी जोखिम बढ़ते चले जाएंगे।
- आपको याद होगा कि बीते फरवरी में केंद्र सरकार ने घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (Household Consumption Expenditure Survey- HCES) से सामने आई सूचनाओं के कुछ बिंदु जारी किए थे। तब देश में आम चुनाव का माहौल बनना शुरू हो चुका था।
- इसके पहले 2019 के चुनाव के पहले भी यह सर्वे रिपोर्ट आई थी, जिसे जारी करने से तब सरकार ने इंकार कर दिया था। मगर वह रिपोर्ट एक बिजनेस अखबार के हाथ लग गई, जिसने उसके निष्कर्षों को प्रकाशित कर दिया था। उससे सामने आया था कि 50 वर्षों में पहली बार भारत में औसत उपभोग खर्च घटा है। यह देश में आई बदहाली का सूचक था। तब से यह नैरेटिव आम तौर पर मान्य रहा है कि मोदी सरकार की नीतियों के कारण आम जन- खास कर ग्रामीण आबादी का जीवन स्तर गिरा है।
- फरवरी में सरकार ने जो चुनी हुई सूचनाएं (selective information) जारी कीं, उनसे यह धारणा बनी कि गुजरे दस साल में भारत में सभी वर्गों का उपभोग खर्च बढ़ा है। संदेश यह गया कि हर स्तर पर खुशहाली आई है।
- चुनाव के शोर में यह शायद ही किसी को याद रहा कि HCES 2022-23 की पूर्ण रिपोर्ट का क्या हुआ।
अब बीते हफ्ते सात जून को- जब चुनाव नतीजे घोषित होने के बाद का शोर था और सबका ध्यान नई सरकार के गठन पर टिका था- तो केंद्र सरकार ने उस सर्वेक्षण की पूरी रिपोर्ट जारी कर दी। ((Factsheet_HCES_2022-23.pdf (mospi.gov.in)))
- उससे जो समग्र सूचना सामने आई है, उसका निष्कर्ष यह है कि फरवरी में बनी धारणाएं अर्धसत्य पर आधारित थीं।
- पूर्ण सत्य यह है कि जिन आर्थिक नीतियों पर देश चला है, उनकी वजह से आम जन को भोजन तक में कटौती करनी पड़ी है।
- रिपोर्ट के मुताबिक साल 1999-2000 से लेकर 2022-23 के बीच अनाज की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में लगातार गिरावट आई है। 2022-23 में तो ग्रामीण इलाकों में यह उपलब्धता प्रति व्यक्ति दस किलोग्राम प्रति माह से भी नीचे चली गई। (Rural India’s monthly per capita cereal consumption fell below 10 kgs in 2022-23 (moneycontrol.com))
- ग्यारह राज्यों में देहाती इलाकों में अनाज पर खर्च में गैर-बराबरी भी उपरोक्त वित्त वर्ष में बढ़ी। (Consumption inequality up in rural areas of 11 states in past decade: HCES | Economy & Policy News – Business Standard (business-standard.com))
अब ये गौर कीजिएः फरवरी में इस रिपोर्ट से संबंधित सूचनाओं का जितना मीडिया कवरेज हुआ था, क्या सात जून को जारी जानकारियों को उतना प्रचार मिला है? ऐसी स्थिति में यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जो धारणाएं फरवरी में बन गईं, बहुत से लोगों के मन में वे स्थायी जगह बनाए रखेंगी।
सर्वे रिपोर्ट से जो सच सामने आया है, वह गंभीर से भीषण होते हालात की ओर इशारा करता है। यह ध्यान में रखना चाहिए कि भारत की आम आबादी के खाने में आज भी अनाज की सबसे ज्यादा मौजूदगी रहती है। अनाज की उपलब्धता इसलिए घटी है, क्योंकि शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, संचार आदि जैसी लगभग सभी सेवाओं के निजीकरण और उन पर खर्च बढ़ने के कारण सामान्य परिवारों के सामने खर्च घटाने की चुनौती बढ़ती चली गई है। इस कारण जिन मदों में उन्हें खर्च में कटौती करनी पड़ी है, उनमें भोजन भी है।
बहरहाल, इतिहास गवाह है कि सच खुद अपने को जाहिर करता है। इसलिए कहा जाता है कि सच को परास्त नहीं किया जा सकता। सत्ता पक्ष के पास भले इसे समझने का ऐतिहासिक नजरिया ना हो, मगर उससे करोड़ों लोग का सच बदल नहीं जाता। गुजरे चुनाव में संकेत मिला कि इन लोगों ने अपने सच और उससे जुड़े राजनीतिक पहलुओं के बीच संबंध की तलाश शुरू कर दी है। उसके अनुरूप उनकी प्रतिक्रिया भी सामने आने लगी है। इस बदलाव को नजरअंदाज करना देश की आर्थिक खुशहाली और सामाजिक स्थिरता के लिए बेहद खतरनाक होगा।
यह बात तो सबको याद रखनी चाहिए कि बढ़ती आर्थिक बदहाली और समाज में टूटती सद्भावना के बीच लोकतंत्र और संविधान का अक्षुण्ण बना रहना संभव नहीं है। बल्कि नजरिया अगर उन दोनों तकाजों की अनदेखी करना का हो, तो वैसा लोकतंत्र को संकुचित करते हुए ही किया जाता है। इस स्थिति में संविधान को बचाए रखने की बात महज दिवास्वप्न होगी। दुनिया भर का तुजर्बा इस बात का साक्षी है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)