अंजनी कुमार
हिमाचल प्रदेश के हिमधरा पर्यावरण समूह ने ‘हिमालय में आपदा निर्माण’ रिपोर्ट जारी किया है। समूह ने इस रिपोर्ट को ऑनलाइन प्रेस वार्ता के माध्यम से जारी किया। हिमाचल के किन्नौर जिले के 22 गांवों में जमीनी अध्ययन के बाद यह रिपोर्ट बनाई गयी है, जिसमें साक्षात्कार और संवाद दोनों को ही आधार बनाया गया। ‘हिमधरा पर्यावरण समूह’ ने 1500 ऐसे स्थलों को चुना जिसे सरकार ने भूस्खलन की जगह के तौर पर चिन्हित किया था।
इस रिपोर्ट को बनाते समय आपदा को लेकर स्थानीय लोगों और समुदायों के विचारों, उनके परम्परागत ज्ञान को तरजीह दी गई और विकास की नीतियों और आंकड़ों के विश्लेषण में उनका उपयोग किया गया।
यह रिपोर्ट बताती है कि यहां की मूल भाषाओं की कथाओं, गीतों, रीति-रिवाजों और अन्य विधाओं में ‘प्राकृतिक आपदा’ की चेतना अभिव्यक्त हुई है। संसाधनों के उपयोग और मिल्कियत को लेकर भी एक सामुदायिक और व्यक्तिक चेतना मिलती है जो मौखिक इतिहास की परम्परा और उसके व्यवहार में दिखता है। ‘आधुनिकता’ ने संसाधन के उपयोग ही नहीं, अपनी पारिस्थितिकी के प्रति व्यवहार की चेतना को लगातार धुंधला किया और आपदा से निपटने की क्षमता को कमजोर किया।
अपने प्रेस नोट में हिमधरा समूह बताता है कि “आजादी के बाद किन्नौर राज्य द्वारा कल्याण नीतियों और मोटर योग्य सड़कों से विकास की शुरूआत के साथ-साथ 1962 में भारत-तिब्बत व्यापार रोक, अनुसूची-5 क्षेत्र की घोषणा, भूमि सुधार और बागवानी पर जोर देने जैसी प्रक्रियाएं हुईं। जिससे नये अवसर तो खुले लेकिन महत्वूपर्ण सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव भी आए।”
1990 के बाद नकदी उत्पादन के जोर ने नेशलन हाइवे पर निर्भरता को बढ़ा दिया। विद्युत परियोजनाओं ने खेती के उपयोग में बड़ा बदलाव लाया। किन्नौर के वन-प्रभाग का 90 प्रतिशत वन भूमि जलविद्युत परियोजना और उसके विस्तारण में गया।
हिमधरा ने हिमाचल सरकार की रिपोर्ट के हवाले से बताया कि “किन्नौर जिले में 2017-22 के बीच 26,257 हेक्टेयर जमीन को विभिन्न आपदाओं से नुकसान हुआ। 2013 की बाढ़ ने इसे काफी प्रभावित किया जिसमें 12 हजार से अधिक पशु मारे गये थे और भूस्खलन आदि से 63 हजार पेड़ नष्ट हो गये।”
यह रिपोर्ट बताती है कि “भूमि वितरण के नाम पर भूमि की अनुपलब्धता दिखाकर ज्यादातर जोखिम भरी जगहों पर अनुसूचित जाति समूहों को जमीनें दी गईं। आपदा से ऐसे प्रभावित समूहों की आवाज सामने न आने के पीछे यह भी एक बड़ा कारण है। इसमें भी भूमिहीनों की स्थिति और भी बदतर है।”
यह रिपोर्ट सरकारी आंकड़ों और भूस्खलन को चिन्हित करते हुए बताती है- “फरवरी, 2023 में छपी सरकारी भूस्खलन मान-चित्रावली के अनुसार 1998-2018 के बीच भारत जो विश्व का सबसे भूस्खलन प्रभावित देश है, यहां भूस्खलन के चलते 80,000 से ज्यादा मौतों की घटनाएं अंकित की गईं। देश में हिमालय और पश्चिमी घाट के पहाड़ी क्षेत्रों में भूगोल और भारी वर्षा के चलते भूस्खलन की संभावना सबसे अधिक है। इस अध्ययन में भारत की कुल भूस्खलन घटनाओं में 66.50 प्रतिशत उत्तर-पश्चिम हिमालय में पाई गईं- जिसमें जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र हैं।”
यह रिपोर्ट गर्म होती धरती से उपज रही भयावहता की ओर इशारा करती है- “एक अध्ययन के अनुसार केवल एक वर्ष (2020-21) में ही सतलुज नदी घाटी, जो हिमाचल की सबसे बड़ी घाटी है, बर्फ से ढके क्षेत्र में 23 प्रतिशत तक की कमी आई है। दूसरी ओर इसी घाटी में हिमनद झीलों की संख्या लगातार बढ़कर 562 हो गई है- जिससे बाढ़ का खतरा और बड़ा हो गया है।” यह संदर्भ, सिक्किम में आई अचानक बाढ़ के एक प्रमुख कारणों की तरफ इशारा करता हुआ लगता है।
यह रिपोर्ट एंथ्रोपोजेनिक बदलावों पर जोर देते हुए बताती है- 2023 की हिमाचल आपदा के बाद यह स्पष्ट है कि पूंजी और राजस्व कमाने के उद्देश्य से किया जा रहा विकास अनियोजित नहीं बल्कि नियोजित और नीतिगत है- और यही हिमालयी आपदा को भयावह और व्यापक बनाने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। ऐसे में, आपदा के कारण जैसे ही बदलने लगते हैं, परम्परागत ज्ञान और सुरक्षा प्रावधान भी कमजोर होते जाते हैं। विकास की इन नीतियों को लाने वाले या तो पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर एक तात्कालिक नजरिये से ग्रस्त रहते हैं या उसके प्रति लापरवाह रहते हैं।
मसलन, हरेक परियोजना अपनी एक उम्र लेकर आती है और उस उम्र तक अपने आसपास के पर्यावरण और जनजीवन पर गहरा प्रभाव डालती है। आज, पूंजी निवेश के दबाव, मुनाफा में वृद्धि और लागत में कमी जैसे कारक पर्यावरण से जुड़े नियमों को ताक पर रख देते हैं। इसका सीधा असर पर्यावरण और स्थानीय जीवन पर पड़ता है। इस प्रभाव को ‘विकास’ के नजरिए से देखने वाले अपरिहार्य मानते हैं, जबकि यह मानविकी और पर्यावरण पर गहरा आघात पहुंचा रहा होता है और इसके परिणाम अपने अंतिम निष्कर्ष में बेहद घातक साबित हुए हैं। इसीलिए, यह रिपोर्ट जोर देती है कि आपदा को किस नजरिये से देखा जाय और उसके विश्लेषण से हासिल निष्कर्षों का किस तरह से उपयोग किया जाये।
इस रिपोर्ट ने स्थानीय लोगों से बातचीत में ‘भाषा’ के अध्ययन पर जोर दिया। इससे यह पता चलता है कि टोपोग्रॉफी से संबंधित तथ्य सिर्फ मानचित्र बनाने वालों में ही नहीं, स्थानीय लोगों में भी है- “शलखर के बुजुर्गों ने हर तरह की ढलान के लिए अलग-अलग शब्द बताये- मध्यम ढलान के लिए ‘थूर’, खड़ी ढलान के लिए ‘टाफो’, चट्टानी ढलान के लिए ‘दोखंग’ और कमजोर मिट्टी वाली ढलानों के लिए ‘खाकपा’- यह दर्शाता है कि किस प्रकार से स्थानिक और सामाजिक रूप से भाषा का निर्माण होता है। इसमें यह सवाल भी उठता है कि भाषा के गुम होने पर क्या ज्ञान भी गुम हो जाता है?’’
आज भी किन्नौर जिले की कुल भूमि के मात्र में 2 प्रतिशत में ही आबादी रहती है। बाकी अन्य क्षेत्र या तो हिम क्षेत्र हैं या अन्य उपयोग में हैं। पिछले 20 सालों में, तेजी से भूस्खलन के भू-क्षेत्रों में बढ़ोतरी देखी जा रही है। गांव के बूढ़े लोगों और किस्से-कहानियों में अचानक आई बाढ़ का जिक्र अपवाद में ही है और वह रिहाइश से काफी दूर घटित हुई हैं। आज, यह चलते हुए, बसे हुए गांवों तक आ गया है, जिसमें पूरा का पूरा परिवार खत्म होने के लिए अभिशप्त है।
यह रिपोर्ट उन लोगों के बारे में बताती है जो बड़ी परियोजनाओं में काम करने के लिए मजदूर बनकर यहां आते हैं- “इस आपदा भरे क्षेत्र में सबसे ज्यादा खतरा बिहार, झारखंड, उड़ीसा के प्रवासी मजदूरों के लिए है जो बांध (बिजली प्रोजेक्ट) और सड़कों के परियोजना स्थल के शेड में रहते हैं और कई आपदाओं के शिकार हो जाते हैं। ज्यादातर उप ठेकेदारों के साथ काम करने वाले इन मजदूरों के प्रवासी क्षेत्रों में आने और जाने के आंकड़े बहुत कम मिलते हैं, आपदा में प्रभावित लोगों के तो और भी मुश्किल हैं।”
निजीकरण और ठेकेदारी की प्रथा से श्रम नियोजन और श्रमिकों को होने वाले नुकसान पर जिम्मेदारी तय करना एक मुश्किल काम में बदल गया है, और सारा खामियाजा श्रमिकों को ही उठाना पड़ता है।
यह रिपोर्ट जागीरदारी प्रथा, जमीन का वितरण, मालिकाना और जमीन की खरीद-बेच के नियम-कायदों की गहरी पड़ताल करती है और इसे इतिहास और संस्कृति से जोड़ते हुए यह बताती है कि अभिजात्यों की प्रमुखता लगातार गरीब, दलित और जनजातियों को हाशिये पर ठेल रही है और उन्हें ही सबसे ज्यादा प्राकृतिक आपदा का शिकार बना रही है।
यह रिपोर्ट निश्चय ही प्राकृतिक आपदा को एक नजरिये से देखने के लिए प्रेरित करती है, इसे सिर्फ एंथ्रोपोसीन जैसी अवधारणाओं के बजाए एंथ्रोपोजेनिक पद्धति को अपनाने की ओर ले जाती है, जिसमें मुनाफा और भूमि का उपयोग एक महत्वपूर्ण श्रेणियां हैं। दरअसल, आज पर्यावरण के बारे में बात करते हुए जितना कार्बन उत्सर्जन और औद्योगिक क्रांति के प्रभावों के बारे में बात हो रही है, उसमें विकास की उन अवधारणाओं के बारे में बात दब जा रही है जिसमें विकास की स्थानीयता की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
मसलन, दिल्ली की भौगोलिक अवस्थिति ऐसी है जहां वर्ष में कम से कम दो महीने, सितम्बर के मध्य से लेकर नवम्बर के मध्य तक मानसूनी हवा का बहाव कम, या यूं कहें न्यूनतम हो जाता है। इस ठहराव को पश्चिमी हवाएं ही तोड़ती हैं। ये हवाएं बर्फीले प्रदेशों से उतरकर जब नीचे आती हैं तब धुंध, कोहरा और ठंड एक साथ उतरता है, कई बार बारिश से थोड़ी राहत होती है और कई बार नहीं भी होती है।
ऐसे में, यदि दिल्ली और आसपास के औद्योगिक क्षेत्र में बदलने की नीति, यहां की बसवाटों पर पर क्या असर डालेगी, इसका अध्ययन और अनुभव दोनों ही हमारे सामने है। साल के चार महीने दिल्ली एक गैस चेंबर में बदलने लगता है। लेकिन, आज भी इस संदर्भ में अध्ययन किसी नीतिगत निर्णय में नहीं बदला है। और, जब कभी दिल्ली को खुला बनाने का प्रयास भी किया जाता है तब कुटीर उद्योगों और गरीब की रिहाइशों पर बुलडोजर चलने लगता है।
यह रिपोर्ट अपने निष्कर्षों में साफ लिखती है- “रिपोर्ट भूमिहीन व्यक्तियों को आपदा प्रभावित भूमि के बदले में वन भूमि आवंटित करने के लिए राज्य सरकारों को सशक्त बनाने के लिए वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में संशोधन की मांग और एफसीए संशोधन, 2023; जो इसी सत्र में पारित हुआ है, को रद्द करने की मांग करती है।”
यह रिपोर्ट ग्रामसभाओं की भूमिका को सशक्त करने, आपदा संभावित क्षेत्रों को चिन्हित करने वाले मानचित्रों को गांव की पंचायतों को उपलब्ध कराने से लेकर विविध परियोजनाओं को पुनर्समीक्षा में डालने की मांग करती है। रिपोर्ट परियोजनाओं और विकास कार्यों के संदर्भ में, प्रभावित समूहों के साथ-साथ प्रशिक्षित समूहों को भी शामिल करने की मांग करती है। यह रिपोर्ट किन्नौर जिले का एक प्रभावी अध्ययन है, जिसका उपयोग सामान्य निष्कर्षों को निकालने और किसी और स्थानीय अध्ययन में निश्चित ही उपयोगी होगा।
(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)