सुभाष गाताडे
उत्तराखंड के हल्द्वानी में 8 फरवरी को घटित हिंसा का मसला, जब पुलिस ‘अवैध मस्जिद और मदरसे’ के ध्वस्तीकरण के लिए पहुंची थी, और उससे पैदा सवालों की गूंज अभी बची हुई है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण था कि वहां घटित हिंसा में आधिकारिक तौर पर पांच लोग मर गए और कई घायल हुए, घायलों में कुछ पुलिसकर्मी भी थे। निस्सन्देह किसी भी तरह की हिंसा को उचित नहीं ठहराया जा सकता और एक लोकतांत्रिक मुल्क में यह बेहद जरूरी है कि सरकार के कदमों के खिलाफ जनता के विरोध को हमेशा ही संविधान के दायरे में होना होगा।
‘उत्तराखंड में बिगड़ते सांप्रदायिक हालात पर पूर्व नौकरशाहों द्वारा लिखे पत्र’ जिसमें प्रशासन को ‘पक्षपाती रवैये से बचने के लिए’ आगाह किया गया है, जो उत्तराखंड सरकार की मुख्य सचिव को सम्बोधित करते हुए लिखा गया है, राज्य की मौजूदा स्थिति को बखूबी बयान करता है। पत्र में उन्होंने प्रशासन से गुजारिश की है कि वह ‘स्थिति को बदतर होने से बचाने के लिए तत्काल कदम उठाए’। ‘पत्र में सरकार से यह भी अनुरोध किया गया है कि वह फौरी राहत के लिए भी कदम उठाए और ‘कानून के अमल में तटस्थ दिखे।’
‘एक तरफ प्रशासन द्वारा किए इलाके में अमन चैन कायम करने के दावे और साथ ही साथ कुछ इलाकों में आज भी जारी कर्फ्यू जैसी स्थिति’ के विरोधाभास को भी पत्र रेखांकित करता है और इस सम्बन्ध में भी बेहद विश्वसनीय रिपोर्ट साझा करता है कि किस तरह ‘स्थानीय निवासियों को – जिसमें महिलाएं और बच्चे शामिल है – कैसे पीटा गया’, ‘कैसे उनकी संपत्ति को तबाह किया गया’, ‘कैसे लोगों को गैरकानूनी ढंग से हिरासत में लिया गया और उन्हें अदालत के सामने पेश नहीं किया गया-, और न ही वकीलों से मिलने दिया गया। इस पत्र में इस बात को भी उल्लेख है कि ‘प्रभावित इलाकों से लोगों के पलायन के भी समाचार मिले हैं।’
नागरिक आज़ादी और मानवाधिकारों से सम्बद्ध समूहों और सरोकार रखने वाले नागरिकों की तरफ से गठित फैक्ट फाइंडिग टीम और उसके द्वारा प्रभावित इलाके का दौरा तथा कई लोगों से बातचीत के निष्कर्ष पूर्व नौकरशाहों के निष्कर्षों से अलग नहीं है। उनकी रिपोर्ट बताती है कि किस तरह आज भी ‘हल्दवानी में तनाव और असन्तोष बना हुआ है क्यों कि पुलिस द्वारा सैकड़ों लोगों को गैरकानूनी ढंग से हिरासत में लेने और उन्हें यातनाएं देने के आरोप लगे हैं।’ पूर्व सचिव हर्ष मंदर- जिन्होंने कारवां ए मुहब्बत’ नामक समूह का गठन किया है, वह लिखते हैं कि ‘.. उत्तराखंड की सरकार ने एक तरह से हिंसा को बढ़ावा दिया है।
इस पूरे प्रसंग में प्रशासन द्वारा प्रदर्शित कथित ढिलाई, उनमें प्रगट कथित पेशेवराना रूख का अभाव और उसकी कार्रवाई में प्रगट हुई कथित जल्दबाजी जैसी बातें भी कई स्तरों पर चर्चा में आयी है। नागरिक आज़ादी के लिए संघर्षरत कार्यकर्ता हों, लेखक हों, पत्राकार हों- उनकी तरफ से जारी बयान – जिन्हें उच्च अधिकारियों को भी सौंपा गया, इसी बात को रेखांकित करते हैं। मीडिया के एक हिस्से में यह बात भी प्रकाशित हुई है कि ध्वस्तीकरण की इस कार्रवाई के पहले ‘पुलिस /प्रशासन द्वारा उन उनके पास पहुंची गोपनीय रिपोर्टों पर भी गौर नहीं किया गया।’
अब विभिन्न स्तरों पर यह मांग उठ रही है कि इस समूचे मामले की न्यायिक जांच की जाए और जिसका जिम्मा सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश को सौंपा जाए, ताकि समूचे घटनाक्रम की एक वस्तुनिष्ठ तस्वीर सामने आ सके।
इस सम्बन्ध में हम पिछले ही साल सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को याद कर सकते हैं, जब उसने रेल लाइन के किनारे बसी बनफुलपुरवा बस्ती को ‘खाली किए जाने के उत्तराखंड उच्च न्यायालय के निर्णय पर स्थगनादेश दिया था।
सर्वोच्च न्यायालय की द्वि सदस्यीय पीठ के न्यायाधीश इस बात से निश्चित ही प्रभावित हुए होंगे कि रेल लाइन के किनारे बसे वह हजारों परिवार- जिनका बहुलांश अल्पसंख्यक समुदाय से है- वहां कई दशकों से रह रहे हैं और उनके पास राशन कार्ड और पहचान पत्र आदि के रूप में इसके बारे में आधिकारिक प्रमाण भी उपलब्ध हैं और संविधान की धारा 14 के हिसाब से यह उनके बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन होगा कि बिना कोई वैकल्पिक व्यवस्था किए उन्हें वहां से विस्थापित किया जाए। मालूम हो कि बनफुलपुरवा के इन निवासियों ने उन्हें विस्थापित किए जाने की इन कोशिशों के खिलाफ एक बड़ा शांतिपूर्ण आंदोलन चलाया था- जिसमें नागरिक समाज से जुड़े अन्य तबके भी शामिल हुए थे।
आदरणीय महोदय, हल्दवानी के मौजूदा हालात की इस संक्षिप्त पृष्ठ्भूमि को बयां करने के बाद मैं अपने इस पत्र के प्रमुख सरोकार की तरफ आप का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा, जिसका फोकस इस हिंसा की घटना के लिए जिस व्यक्ति को पुलिस/प्रशासन की तरफ से मास्टरमाइंड घोषित किया जा रहा है, उसके नाम जारी रिकवरी नोटिस पर है। हिंदी और अंग्रेजी अख़बारों में इस सम्बन्ध में प्रकाशित समाचारों में यह कहा गया है कि उसे ‘तीन दिन के भीतर 2.4 करोड़ रूपए का जुर्माना देना होगा’ यह राशि 8 फरवरी की हिंसा में हुई सरकारी सम्पत्ति की हानि आदि के आधार पर तय की गयी है।
महोदय, इलाके के आयुक्त की तरफ से जारी यह नोटिस तभी आ गया है, जब न इस पूरे मामले की कोई जांच रिपोर्ट सामने आयी है, न ही घटना के लिए जिम्मेदार कहे गए लोगों के खिलाफ कोई मुकदमा दायर हुआ है, आरोपपत्र दाखिल हुए हैं और न ही इसके लिए उन्हें ही दोषी ठहराया गया है।
समाचार पत्रों में यह बातें भी प्रकाशित हुई हैं कि पहली दफा शरारती तत्वों के खिलाफ इतनी सख्त कार्रवाई की गयी है।
अधिक विचलित करने वाली बात यह है कि यह तमाम कार्रवाइयां एक तरह से उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के कथित वक्तव्यों से मेल खाती दिखती है, जो उन्होंने बनफूलपुरा की घटना के बाद प्रगट किए थे। अख़बारों में उनके हवाले से यही छपा था कि ‘देवभूमि में किसी भी किस्म की अराजकता को बरदाश्त नहीं किया जाएगा और सरकारी संपिंत्त को नुकसान पहुंचाने के लिए शरारती तत्वों को ही भरपाई करनी पड़ेगी।’
आप को याद होगा कि उत्तर प्रदेश में जब सीएए विरोधी आंदोलन में शामिल अभियुक्तों के खिलाफ राज्य सरकार की तरफ से इसी किस्म के रिकवरी नोटिस जारी किए गए थे, तब सर्वोच्च न्यायालय की द्विसदस्यीय पीठ ने, जिसकी अगुआई आप ने की थी और न्यायमूर्ति सूर्यंंकांत पीठ दूसरे जज थे, राज्य सरकार को यह आदेश दिया था कि वह इन रिकवरी नोटिस को तत्काल वापस ले।
आप ने अपने फैसले में सही कहा था कि इस प्रसंग में उत्तर प्रदेश सरकार सुनवाई की प्रकिया में जब उसने अभियुक्तों की संपत्ति को जब्त करने के आदेश दिए तब वह ‘एक साथ शिकायतकर्ता, न्यायनिर्णायक और अभियोजक की भूमिका में’ (“complainant, adjudicator and prosecutor by itself) नज़र आयी। दरअसल सरकार द्वारा संचालित यह प्रक्रिया किस तरह ‘कानून के दायरों का उल्लंघन करती है, इसके बारे में क्षेत्र के कानूनविदों ने अपनी राय पहले ही प्रगट की थी।
अब यह बात इतिहास हो चुकी है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाए गए इस सख्त रूख के चलते ही उत्ंतरप्रदेश सरकार को लगभग पावने तीन सौ अभियुक्तों के खिलाफ उसकी तरफ से जारी यह रिकवरी नोटिस वापस लेने पड़े थे।
आज की तारीख में जबकि हल्दानी की आबादी – खासकर धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों से सम्बधित लोग – डर और चिंता के माहौल में जी रही है, जहां समाचारों के हिसाब से अपने खुद के मामलों में वकील ढूंढ पाना भी उनके लिए मुश्किल साबित हो रहा है, दरअसल यह एक बड़ी चुनौती है कि रिकवरी की इस नोटिस को किसी अदालत में चुनौती दी जाए, जबकि यह नोटिस सर्वोच्च न्यायालय के उपरोक्त नज़ीर बन चुके फैसले का उल्लंघन करती दिखती है।आज की तारीख में चीजें किस तरह आगे बढ़ेंगी इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के तहत अल्पसंख्यक समुदायों की स्थिति को लेकर उत्तराखंड सरकार की अपनी यात्रा पर निगाह रखने वाले बता सकते हैं कि फिलवक्त़ इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती 13 कि सूबे की सरकार रिकवरी नोटिस के अपने आदेश पर पुनर्विचार करेगी और उसे वापस लेगी।
आप के सामने विनम्र निवेदन यही है कि अगर कार्यपालिका सर्वोच्च न्यायालय के नज़ीर बनते फैसलों का भी उल्लंघन करते दिखे तो आम नागरिक को क्या कदम उठाना चाहिए !