‘जोर का झटका धीरे से लगे’- किसी विज्ञापन की या किसी गाने में इस्तेमाल यह बात फिलवक्त़ भाजपा को मिले चुनावी झटके की बखूबी व्याख्या करती दिख रही है। कभी चार सौ पार पाने के किए गए वादे और अब अपने बलबूते बहुमत तक हासिल करने में आयी मुश्किलें इस बात की ताईद करती हैं। यूं तो तीसरी दफा ताज़पोशी हो गयी है, लेकिन इसके लिए बाकी दलों का सहारा लेना पड़ा है। यूं तो इस उलटफेर से भक्तों की टोली गोया बौखला गयी है और अपनी चिरपरिचित हरकत पर उतर आयी है।
अयोध्या के आम लोग निशाने पर
गौरतलब है कि अयोध्या के आम नागरिक-वही नगर जिसे वह हिन्दू राष्ट्र की अघोषित राजधानी बनाना चाहते थे – खासकर वहां के हिन्दू इस हमले का आसान शिकार हुए हैं, उन्हें ‘गद्दार’ कहा जा रहा है, और तरह-तरह के अन्य लांछन उन पर लगाए जा रहे हैं। वजह साफ है कि उन्होंने इन चुनावों में भाजपा के प्रत्याशी को – जो पिछले दो बार से वहां सांसद चुने गए थे – पचास हजार वोटों से हराया है। गौरतलब है कि इस सामान्य सीट से उन्होंने समाजवादी पार्टी से जुडे़, इंडिया गठबंधन के दलित तबके के प्रत्याशी को जीत दिलाई है।
लगभग 75 साल पहले अपनाए गए संविधान द्वारा हर नागरिक को जो अधिकार दिए गए हैं, जो वोट देने का हक़ दिया है उसी का प्रयोग करके अयोध्या-फैजाबाद की जनता ने यह करिश्मा कर दिखाया है ; लेकिन यही बात हिन्दुत्ववादी जमातों को नागवार गुजरी है। उन्हें निशाना बना कर तरह-तरह के नफरती वक्तव्य, मीम्स साझा किए जा रहे हैं, जहां उन्हें अपशब्द कहे जा रहे हैं, तरह-तरह से अपमानित किया जा रहा है।
ट्रोल आर्मी और हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतों से सम्ब़द्ध आई टी सेल के लोगों को यह जिम्मा सौंपा गया है। ‘राष्टद्रोही’, ‘अर्बन नक्सल’ या ‘घुसपैठियों’ के खिलाफ नफरत भरे बयानों की फैक्टरी चलाने में संलग्न यह लोग इन दिनों हिन्दुओं के उस हिस्से के खिलाफ अनापशनाप बक रहे हैं, जिन्होंने भावनात्मक मुद्दों से सम्मोहित होने के बजाय अपने जीवनयापन से जुड़े सवालों को चुनाव में अहम माना तथा उसी हिसाब से निर्णय लिया, शायद उन्हें यह बात भी अब समझ आ रही है कि हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतें भले ही हिन्दू धर्म की दुहाई देती रहें, हिन्दुओं को एक करने की बात करते रहें, लेकिन उनका असली मकसद राजनीतिक सत्ता हासिल करने के अलावा कुछ भी नहीं है।
यह सही है कि चार सौ पार जीतने की ऐसी हवा गोदी मीडिया के सहारे बना दी गयी थी कि खुद भाजपा वाले भी उसके शिकार हुए, उन्हें यही लगने लगा था कि ‘मोदी की गारंटी’ उनकी जीत की गारंटी होगी, लेकिन हुआ बिल्कुल उल्टा।
नफरती संदेशों को साझा करने वाले इन कारिन्दों और उनके आकाओं के लिए आज भी यह समझना मुश्किल है कि अयोध्यावासियों ने अपनी कर्ताशक्ति/एजेंसी का प्रयोग किया और इस तरह हक़ीकत और दावों के बीच के व्यापक अंतराल को उजागर कर दिया।
हार के संकेत
वैसे अगर जमीन के संकेतों पर गौर होता तो उन्हें पता चलता कि क्या हवा चल रही है। अयोध्या फैजाबाद के क्षेत्रों में चलने वाले चर्चित अख़बार जनमोर्चा के संपादक सुमन गुप्ता अपने साक्षात्कार में इसी बात को विस्तार से समझाती हैं कि किस तरह ‘संविधान ने भाजपा को हराया’
‘‘.. दरअसल बाहरी लोगों को कभी नहीं लगा कि भाजपा यहां हार जाएगी, लेकिन स्थानीय लोग जानते थे कि इस बार भाजपा नहीं जीतेगी !दरअसल अयोध्या ही नहीं पूर्वांचल में भाजपा के खिलाफ जनता के बीच गुस्से को महसूस किया जा सकता था।…भाजपा के लिए सबसे बड़ी समस्या थी देशी-विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने लिए अयोध्या फैजाबाद के ‘‘सौंदर्यीकरण’’ की बनी योजना। अयोध्या के तमाम लोगों की जमीनें, मकान और दुकानें या उनका एक हिस्सा सबकुछ सरकारी फरमान के तहत ध्वस्त किया गया और और ध्वस्तीकरण के बाद उन्हें ठीक से मुआवज़ा भी नहीं मिला, जिसने मतदाताओं मे जबरदस्त गुस्सा पनपा।” संपादक के मुताबिक ‘‘इसके बारे में लोग इसलिए मौन रहे क्योंकि डर काम कर रहा था, उन्हें लगता था कि अगर वह शिकायत करेंगे तो बुलडोजर उन्हीं के घर पर आ जाएगा।’’
वैसे मकानों, दुकानों के इस ध्वस्तीकरण पर काफी कुछ लिखा गया है कि किस तरह आम निवासियों को विश्वास में लिए बिना इस काम को अंजाम दिया गया। स्थानीय निवासियों ने पत्रकारों को यह भी बताया कि ध्वस्तीकरण के पहले कुछ दुकानदारों से वायदा किया गया था कि शाॅपिंग कॉम्लेक्स में उन्हें दुकानें दी जाएंगी, लेकिन जब सब ध्वस्त कर दिया गया और इन दुकानदारों ने दुकानों की मांग की तो उनसे काफी पैसे मांगे गए।
हक़ीकत यही है कि काफी समय से अयोध्या फैजाबाद के आम लोग बिल्कुल मूकदर्शक बन गए थे। इलाके की जमीनों को बेहद सस्ते दामों पर सत्ता के करीबी हथिया रहे थे, ऐसी जमीनें भू-माफियाओं को कौड़ी के दाम सौंपने के इन्तज़ाम किए जा रहे थे और खुद राज्य की बागडोर संभाले लोग भी इसके प्रति मौन थे।
अंततः उन्होंने बोलना तय किया और नतीजा सभी के सामने हैै।
ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दुत्व वर्चस्ववादियों के आकाओं के हिसाब से यह सबसे अच्छी बात होती कि अयोध्या के तमाम पीड़ित जन – जो अपने मकानों, दुकानों, अपने-अपने इलाके के प्रार्थनास्थलों से वंचित कर दिए गए थे और जिन्हें आए दिन किसी न किसी वीआईपी के आगमन के नाम पर तमाम बंदिशों का सामना करना पड़ता था, उन्होंने उनकी इस स्थिति को अपनी नियति मान कर खामोशी बरती होती, भू-माफियाओं और एक असंवेदनशील और निर्मम प्रशासन/सरकार और उनके करीबी दरबारी पूंजीपतियों, अडानी आदि की इस तिकड़ी की मनमानी को बर्दाश्त किया होता। मगर संविधान ने जो उन्हें बोलने का हक़ दिया है, उसका प्रयोग उन्होंने किया तो उन्हीं पर कहर बरपा हो गया।
खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे ?
अयोध्या के आम नागरिकों पर ही नहीं बल्कि समूचे हिन्दू समाज पर किया जा रहा यह दोषारोपण एक तरह से खिसियानी बिल्ली के खंभे नोचने जैसी कवायद है।
वाराणसी जहां से मोदी तीसरी बार चुनाव लड़ रहे थे, वहां उनके वोटों में तीन लाख से अधिक की गिरावट इसी बात का संकेत देती है। कहां तो दावे किए गए थे कि दस लाख से अधिक मार्जिन से वह जीत जाएंगे और आलम यह था कि वोटों की गिनती के कई दौर में वह कांग्रेस के अजय राय से पिछड़ रहे थे।
अयोध्या -फैजाबाद की तरह ही खुद वाराणसी के भी सौंदर्यीकरण के नाम पर आम नागरिकों की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं के साथ , उनकी आस्था के साथ जिस तरह का खिलवाड़ हुआ है, उसकी तो चर्चा भी कहीं नहीं हुई है। तमाम पत्रकारों ने, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसके बारे में लिखा है, आवाज़ बुलंद की है, मगर मीडिया के गोदीकरण का ऐसा आलम है कि कहीं अधिक चर्चा नहीं हो पायी।
वैसे क्या यह छोटी बात है कि इन चुनावों में मोदी मंत्रिमंडल के एक चौथाई सदस्य हार गए हैं। जनाब मोदी या उनकी भक्त मंडली इस बात को कबूल करें या नहीं, लेकिन 2024 के चुनावों ने हिन्दुत्व एजेंडा को पंक्चर कर दिया है।
यह समझना मुश्किल नहीं है कि हिन्दी पट्टी में खासकर उत्तर प्रदेश जैसी उसकी हृदयस्थली में उसकी दुर्गति क्यों हुई, यह तब पता चलेगा जब भाजपा-संघ का नेतृत्व बेहद ठंडे दिमाग से विश्लेषण करने को तैयार हो। अपनी गलती पर आत्ममंथन करने के बजाय दोषारोपण करने के लिए किसी ‘अन्य’ को ढूंढने की उनकी कवायद उनकी समझदारी में इजाफा नहीं कर सकती।
संविधान बदलने का छिपा एजेंडा ?
इन चुनावों का एक अहम मसला बना संविधान की रक्षा का, जब भाजपा के नेताओं ने अपने ही मुंह से बोलना शुरू किया कि 400 सीटें आएंगी तो वह सबसे पहले संविधान बदलेंगे।
भाजपा के इस खुले ऐलान ने सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबकों के बीच भी यह चिन्ता उठी कि अगर ऐसा हुआ तो उन्हें मिलने वाले तमाम अवसर समाप्त होंगे, आरक्षण समाप्त होगा। मध्यमवर्ग के एक हिस्से ने भी इस बात को अस्वीकार किया, जिन्हें जनतंत्र की अहमियत, संविधान के सिद्धांतों और मूल्यों की अहमियत का गहरे से एहसास है। आंकड़े बताते हैं कि दलितों आदिवासियों के बीच इस बार भाजपा की सीटें काफी घटी हैं ।
भाजपा के बड़बोले नेताओं के वक्तव्यों ने जनता के व्यापक हिस्से में भी इस बात को बेपर्द किया कि किस तरह संविधान को लेकर उनका यह ढुलमुल रवैया पहले से ही चला आ रहा है और उसमें कोई गुणात्मक बदलाव नहीं हुआ है।
इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त नरेन्द्र मोदी, भारत के वजीरे आज़म का पद तीसरी बार संभाल चुके हैं, लेकिन इस बार हालात बदले-बदले से हैं, उन्हें सहयोगी दलों का साथ लेना पड़ा है।
वैसे जनाब मोदी की नैतिक हार को रेखांकित करने वाला यह चुनाव और बाद की यह स्थिति उनके लिए तथा व्यापक संघ-भाजपा परिवार के लिए कई सबक पेश करती है, अब उन्हें यह तय करना है कि वह आत्ममंथन करेंगे या किसी अन्य के माथे दोषारोपण करके इतिश्री कर लेंगे!
(सुभाष गाताडे लेखक, अनुवादक, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव (एनएसआई) से संबद्ध वामपंथी कार्यकर्ता हैं।)