रामशरण जोशी
पिछले दिनों देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की रोचक टिप्पणी सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी। टिप्पणी हिन्दू राष्ट्र से सम्बंधित थी। माननीय न्यायाधीश का कथन था कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात छोड़िये,’ हिन्दू गांव’ नहीं बनाया जा सकता। इसकी वज़ह यह है कि देश विविधताओं से भरपूर है। किसी एक धार्मिक समुदाय का आधिपत्य नहीं है। बाद में ज्ञात हुआ कि यह कथन ‘फेक वीडियो’ है। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने ऐसा कभी नहीं कहा। फेक कथन ही सही, लेकिन अनायास ही इसके माध्यम से इंद्रधनुषी भारतीय आत्मा का सनातन यथार्थ प्रकट हो गया; देश के करीब 6 लाख 40 हज़ार गावों की धार्मिक व जाति संरचना इंद्रधनुषी रहती रही है।
सारांश में, लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई एक धार्मिक समुदाय या जाति यह दावा नहीं कर सकती है कि उसका क़स्बा या गांव में सम्पूर्णरूप से ‘एकाधिकार’ है। समुदाय या जाति विशेष के लोग बहुसंख्यक हो सकते हैं, लेकिन फिर भी अल्पसंख्यक वर्ग की उपस्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता। यही बात देश के करीब 4000 हज़ार शहरों पर लागू होती हैं। यही बात दिल्ली, कोलकता, मुंबई, बैंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद, अहमदाबाद जैसे महानगरों के संबंध में कही जा सकती है। इनकी सामाजिक -सांस्कृतिक-आर्थिक -राजनैतिक संरचना रंगबिरंगी ही है। इस इंद्रधनुषी आत्मा के विखण्डन के प्रयास का अर्थ होगा देश के मूलभूत अस्तित्व को संकट में झोंकना।
इंग्लैंड के भारतीयमूल के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने इसी 14 मार्च को ही अपने देशवासियों को देश में बढ़ रही इस्लामी और अति-दक्षिणपंथी अतिवादी गतिविधियों के विरुद्ध चेताया है। सुनक का कहना है कि ऐसी गतिविधियों से देश के बहु-नस्ली लोकतंत्र को खतरा पैदा हो रहा है। याद रहे, हमास- इजराइल जंग के कारण इंग्लैंड में स्थानीय यहूदियों और इजराइल के खिलाफ जन-भावना भड़क रही हैं; यहूदियों के विरुद्ध 147 और मुस्लिम विरोधी घृणा 335 प्रतिशत बढ़ी है।
सुनक-सरकार के समुदाय मंत्री माइकल गोवे ने इतना तक कह दिया, “हमारा लोकतंत्र और समावेशी व सहिष्णुता को अतिवादी गुटों से चुनौतियां मिल रही हैं, जिसकी वज़ह से हमारे नौजवान कट्टर बनते जा रहे हैं और अति ध्रुवीकरण की तरफ झुक रहे हैं।”
यहां मैं पाठकों को यह याद दिलाना जरूरी समझता हूं कि इस स्थिति के लिए प्रधानमंत्री स्वयं भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। हमास-इजराइल जंग शुरू होने के तुरंत बाद ही वे तेल अवीव गए और इजराइल के प्रधानमंत्री की पीठ थपथपा कर आए थे। उन्होंने प्रधानमंत्री नेतन्याहू को कोई ठोस चेतावनी नहीं दी थी। अमेरिका के पिछलग्गू बने रहे। इंग्लैंड में इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था।
सुनक ने खुद भी अपने यहां ध्रुवीकरण का कार्ड खेला है। गत वर्ष अगस्त में कैंब्रिज में आयोजित एक हिंदू समुदाय के समारोह में उन्होंने तीन चार बार ‘जय श्रीराम ’ के नारे लगाए थे। इस अवसर पर गुजरात से पहुंचे प्रसिद्ध मुरारी बापू भी मौजूद थे। सुनक ने उत्साह के साथ यह भी बताया था कि उनके सरकारी निवास में रखी मेज़ पर हनुमान चालीसा और गणेश जी की मूर्ति रखी हुई हैं। धार्मिक समुदाय की दृष्टि से इंग्लैंड में ईसाई समुदाय के बाद मुस्लिम हैं। तीसरे स्थान पर हिंदू समुदाय है। क्या इस तरह के धार्मिक पहचानवाले उवाचों से ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को बल नहीं मिलता है? अन्य समुदाय संगठित होने लगेंगे।
वर्ष के अंत में इंग्लैंड में आम चुनाव भी होगें। सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी की स्थिति कमजोर मानी जा रही है। विपक्षी लेबर पार्टी सत्ता में आ सकती है। संयोग से, मैं गत अगस्त में लंदन में ही था। समाज में ध्रुवीकरण की प्रवृत्तियां उभरती हुई दिखाई दे रही थीं।
भारत के वर्तमान दौर में भी ऐसी चेतावनी और स्थिति के प्रति उपेक्षाभाव नहीं अपनाया जा सकता। यदि ऐसी प्रवृत्तियों को नज़रअंदाज़ किया जाता है तो देश का सामाजिक व लोकतान्त्रिक ताना-बाना भी छिन्न-भिन्न हो सकता है। क्योंकि, विगत एक दशक से धार्मिक ध्रुवीकरण की प्रवृत्तियां तेजी से उभरी हैं; मुसलमानों के प्रति नफरत, लव जिहाद, गोरक्षक आतंक, हिज़ाब विरोधी घटनाएं; आर्थिक बहिष्कार की धमकियां; मुस्लिम सामाजिक एक्टिविस्टों के खिलाफ कारवाईयां, अल्पसंख्यकों के मकानों पर बुलडोज़र चलाना, इस्लामी फोबिया का माहौल बनाना आदि।
आज मोदी-सरकार में एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है और निवर्तमान लोकसभा में एक भी सांसद नहीं है। यहां तक कि भाजपा शासित प्रदेशों (राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा, असम, बिहार, हरियाणा आदि) की सरकारों में भी लगभग यही स्थिति दिखाई देती है। भाजपा का कहना है कि वह किसी विशेष समुदाय के तुष्टिकरण के पक्ष में नहीं है। लेकिन, क्या अल्पसंख्यकों के प्रति राजनैतिक उदासीनता की नीति अपना कर बहुसंख्यक समुदाय का तुष्टिकरण नहीं किया जा रहा है?
वास्तव में, तुष्टिकरण समुदाय विशेष सापेक्ष नहीं होना चाहिए। इसका चरित्र समावेशी रहना चाहिए। लेकिन, आजादी के स्वर्ण काल में ठीक इसके विपरीत ही हो रहा है। क्या इसे स्वस्थ, समतावादी और समावेशी लोकतंत्र कहा जा सकता है? क्या सत्तारूढ़ भाजपा के शासन में तुष्टिकरण के नाम पर देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के साथ इन्साफ हो रहा है? क्या ऐसी राजनीति से देश में नफ़रत नहीं बढ़ेगी? क्या इस स्थिति से अतिवादों की फसल तैयार नहीं होगी? कालांतर में ये अतिवादी ताक़तें ‘मिलिटेंसी’ में तब्दील हो सकती हैं! फिर विभिन्नरूपी संकटों से घिर सकता है हमारा उदार लोकतंत्र।
हमारा लोकतंत्र राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, मोदी+अमित राज और चरम दक्षिण पथियों की उपलब्धि नहीं है। यह समर्पित उदारवादी देशभक्तों, राष्ट्रवादियों, समता-समरस-बहुलता वादियों और संविधानवादियों की ऐतिहासिक उपलब्धि है। शहादत और कुर्बानियों के अथक कारवां के बाद 15 अगस्त, 1947 को यह आज़ादी मिली है। तब क्या 37 -38 प्रतिशत वोट से लैस दल को बलिदानों की श्रृंखला से समृद्ध लोकतंत्र को निर्वाचित निरंकुशता में तब्दील करने की छूट दी जानी चाहिए? तब क्या हिंदुत्व के नाम पर इस सवाल के प्रति उदासीन होना ‘राष्ट्रीय समझदारी’ होगी?
जब यह सवाल मस्तिष्क में कौंधता है तब पाकिस्तान के सम्बन्ध में मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद की चेतावनियां याद आने लग जाती हैं। उन्होंने अप्रैल 1946 में दिए गए अपने एक लम्बे इंटरव्यू में मुसलमानों को चेतावनी दी थी कि एक दिन मज़हबी झगड़े प्रस्तावित पाकिस्तान के टुकड़े करके रहेगा। भविष्य में इसका पूर्वी हिस्सा (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और वर्तमान बांग्लादेश) मूल पाकिस्तान (वर्तमान पश्चिमी पाकिस्तान) से अलग हो जायेगा। कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहते हुए आज़ाद साहब ने यह भी चेतावनी दी कि पाकिस्तान के सम्भावी शासक अयोग्य हैं, जिसकी वज़ह से फौज़ी हुक़ूमत का रास्ता साफ़ हो जायेगा।
स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना आज़ाद ने उक्त इंटरव्यू लाहौर से प्रकाशित चट्टान पत्रिका को दिया था और इंटरव्यू लेने वाले थे शोरिश कश्मीरी। दिलचस्प यह है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री और वर्तमान में केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के कठिन परिश्रम से इस इंटरव्यू का पता चला। इसके बाद उर्दू से अंग्रेजी में इसका तर्ज़ुमा किया गया। उन्होंने यह भी कहा था कि नफरत पर आधारित देश का विभाजन भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों को कभी भी सामान्य नहीं होने देगा। दोनों कभी दोस्त नहीं बन सकेंगे। इसके साथ ही पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान के लोगों का समान मज़हब होने के बावजूद, दोनों हिस्से लम्बे समय तक एक साथ नहीं रह सकेंगे।
इस इंटरव्यू के एक साल बाद 1947 में भी जामा मस्जिद पर मुसलमानों की एक सभा को सम्बोधित करते हुए आज़ाद साहब ने अपने विचारों को फिर से बुलंद आवाज़ में दोहराया और धर्म-मज़हब के आधार पर देश के विभाजन तथा पाकिस्तान के निर्माण को मुसलमानों के दूरगामी व्यापक हितों के ख़िलाफ़ बताया था। उनका यह भाषण यूट्यूब पर सुना जा सकता है।
मैं वापस लेख के शुरूआती पैरे की ओर लौटता हूं। इस लेख में मौलाना आज़ाद और ऋषि सुनक के विचारों का उल्लेख अकारण नहीं किया गया है। मक़सद से किया है। दोनों के कथनों का निचोड़ है कि आधुनिक युग में धार्मिक और नस्ली अतिवाद मूलतः मानवता और प्रगतिशील सभ्यता विरोधी है। अतिवादी धार्मिकता और कट्टरवाद से नफ़रत का जन्म और विस्तार होता रहता, जो कि मानव विकास में बाधक बनते हैं। दोनों कारक मानव की कल्पनाशीलता को संकीर्ण और कुंद बनाते हैं।
क्या हिन्दू राष्ट्र बन जाने से मूलभूत समस्याओं का निराकरण हो जायेगा; क्या जातिवाद का विनाश होगा और जाति -दंगे ख़त्म हो जायेंगे?; क्या समतावादी और विषमतामुक्त हिन्दू समाज होगा?; क्या धर्मप्रधान राष्ट्र से बेरोज़गारी दूर होगी और रोज़गार पैदा होंगे?; क्या हिन्दू राष्ट्र बन जाने के बाद पाकिस्तान और चीन के साथ दो-चार हाथ करके सीमा विवाद का समाधान कर सकेंगे?; क्या भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के बाद हम आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस में निष्णात हो जाएंगे और चांद व मंगल ग्रह पर बस्तियां बना लेंगे? ऐसे ही और भी अनेक सवाल हैं जो इस सदी के मस्तिष्क को आंदोलित करते हैं। एक छत्र सत्ता प्राप्ति के लिए हिन्दू राष्ट्र और विश्व गुरु का नारा ब्रह्मास्त्र सिद्ध होगा, यह नितांत अतार्किक और असम्भव है।
वैचारिक और भौतिक क्षेत्रों में हुई मानव की अभूतपूर्व उपलब्धियां तभी संभव हो सकी हैं जब उसकी कल्पनाशीलता और सृजनशीलता को निर्बाध परिवेश मिला है। क्या इस बात को भुलाया जा सकता है कि किस प्रकार चर्च ने वैज्ञानिकों के अन्वेषण मार्ग में कितनी बाधाएं खड़ी की थीं और मौत की सजा भी दी थी। यह भी सच है कि चर्च ने ढाई सौ बरस बाद वैज्ञानिक गैलीलियो से माफ़ी भी मांगी थी। धार्मिक सत्ताएं मानव की बहुआयामी गतिशीलता में रुकावटें पैदा करती हैं। बंद समाजों में मानव ऊर्जा को वांछित गतिशीलता नहीं मिल पाती है। पर यह भी एक यथार्थ है कि बंद समाज और निरंकुश व्यवस्था में प्रतिरोध के बीज भी निहित रहते हैं। अवसर पाते ही वे पौधे व वृक्ष में बदल जाते हैं। इसके अंतिम परिणाम विभिन्न आविष्कार और क्रांतियां हैं।
सारांश में, उदारवादी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक परिवेश में ही अधिकाधिक अनुसंधान और आविष्कार होते रहे हैं। इस दृष्टि से, पश्चिम के उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की बहु-आयामी उपलब्धियों से कुछ तो सीखा जा सकता है। इस यथार्थ का गवाह है मानव विकास यात्रा का इतिहास। अतः किसी भी देश में धार्मिक-मज़हबी कट्टरता प्रतिगामी शक्तियों को ही जन्म देती हैं। क्या हम पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान तथा अन्य मुस्लिम देशों की चिंताजनक दशाओं से सबक़ नहीं लेना चाहेंगे? इस्लामी राष्ट्र बनने से पाकिस्तान तरक्की कर सका है? क्या अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत कायम होने से वहां की भुखमरी दूर हो गई है?
आज भी वहां स्त्रियों की हालत नारकीय बनी हुई है। ईरान में भी स्त्री वर्ग की दुर्दशा से सभी परिचित हैं। वहां भी सत्ता पर काबिज़ मज़हबी तानाशाही के ख़िलाफ़ आवाज़ें बुलंद हो रही हैं। युवा वर्ग कफ़न बांधे सड़कों पर उतर रहा है। यह सिलसिला पिछले दशक से ही शुरू हो चुका था। अफगानिस्तान में भी कट्टरपंथी तालिबानों का सत्ता दुर्ग लम्बे समय तक सुरक्षित रह सकेगा, इसकी सम्भावना कम है। लोकतंत्र के लिए वहां भी प्रतिरोध की आवाज़ें उठने लगी हैं।
मुख्तसर से, वर्तमान दौर की महती आवश्यकता है कि हम समतावादी+ उदारवादी+ बहुलतावादी+ संविधान सम्मत लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूत करें और निरंकुश सत्ता परिवेश से निज़ात लें।
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं औऱ दिल्ली में रहते हैं।)