डॉ. कॉलिन गोंजाल्विस
केंद्र सरकार ने कुछ नया करने के नाम पर कुटिलता से तीन नए आपराधिक न्याय विधेयकों (जो अब कानून बन चुके हैं) को इस आधार पर उचित ठहराने की कोशिश की है कि मौजूदा कानून ‘औपनिवेशिक’ तो था ही, बदला गया कानून भारत विरोधी भी था। लेकिन पुराने कानून से तुलना करने पर पता चलता है कि नए कानून स्वतंत्रता-पूर्व ब्रिटिश कानून की तुलना में कहीं ज्यादा प्रतिगामी और कठोर हैं। भारतीय दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता और 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह ले चुके नए कानून विपक्ष के निलंबित 146 सांसदों की अनुपस्थिति में संसद द्वारा पारित करा लिए गए।
यह मान लेना कि अंग्रेजों द्वारा बनाए गए सभी कानून, खासकर आपराधिक न्यायशास्त्र के क्षेत्र में जनविरोधी और मानवाधिकार विरोधी थे, एक गलती होगी। अंग्रेजों ने आपराधिक कानून के कुछ सिद्धांत विकसित किए थे जो समय की कसौटी पर खरे उतरे और यही कारण है कि आजादी के बाद कई मौजूदा आपराधिक कानून भारतीय संसद ने भी अपनाए। वास्तव में, ब्रिटिश काल से लेकर आधुनिक भारत तक वक्त के साथ आपराधिक कानून संरक्षण में कैसी गिरावट आई है, इसका अध्ययन करने से पता चलता है कि भारत में कानून निर्माण पहले से ही बाधित आजादी को कुचलने के लिए एक ऐसे डिजाइन की ओर तेजी से उन्मुख हुआ है जो अत्यंत दमनकारी है। तीनों नए कानून इसका उदाहारण हैं।
आपराधिक कानून महज कानून के कुछ शब्द नहीं, ये इससे कहीं ज्यादा न्यायिक व्याख्या द्वारा बहुत सोच-समझ कर अपनाए गए शब्द हैं। जब कानूनों को यंत्रवत और जैसे-तैसे बदल दिया जाता है, तो न्यायशास्त्र का व्यापक सोच भी कानून के साथ लोप हो जाता है। कानून निर्माताओं द्वारा कानून बदलने का एक अनियमित निर्णय कानूनी लड़ाइयों का इतिहास ही खत्म कर देता है। आखिरकार, जैसा कि मौजूदा मामले में हुआ, कानून में आकस्मिक बदलावों का यह अध्याय कुछ ज्यादा ही खतरनाक है। यह अतीत की अच्छाइयों को नष्ट और वर्तमान को दिग्भ्रमित करता है। इस मामले में जो बात बहुत साफ है, वह यह कि यह सब करने के पीछे सरकार की मंशा देश में मानवाधिकार संरक्षण का ताना-बाना नष्ट करने, नागरिकों को नियंत्रित करने, उन पर दमन करने के लिए अपनी शक्तियां अपरिमित करने की है।
आईपीसी की धारा 124ए में उत्कीर्ण राजद्रोह कानून को ही लें जिसकी शुरुआत ही होती है ‘जो कोई भी शब्दों से…’। राजद्रोह कानून बोलने की आजादी पर कुठाराघात (दंडित) करता है। इसे असहमति, विशेषकर अहिंसक असहमति को अपराध घोषित करने के लिए बनाया गया था। ब्रिटिश शासन के तहत, राजा के खिलाफ इस्तेमाल किए गए कड़े शब्द अपने आप में, राजद्रोह के आरोप और जेल में लंबे समय तक कैद की सजा का पात्र बनने के लिए पर्याप्त थे।
1968 में इसमें बदलाव की उम्मीद थी जब सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने केदारनाथ मामले में अपना फैसला सुनाया और प्रिवी काउंसिल से असहमत होते हुए कहा कि महज शब्द- चाहे कितने भी कठोर क्यों न हों, बिना किसी हिंसा के, देशद्रोह का आरोप लगाने के लिए पर्याप्त नहीं होंगे। राज्य के विरुद्ध विद्रोही हिंसा के साथ-साथ उकसाने वाले शब्द आरोप को स्थापित करने के लिए जरूरी थे। इस निर्णय के बावजूद सैकड़ों पत्रकारों, छात्रों, कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों पर मुकदमा चलाया गया। यही कारण है कि, एक साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह के सभी मुकदमों पर रोक लगा दी थी।
तो, यह सरकार क्या कर रही है? इसने ‘राजद्रोह’ शब्द के प्रयोग को हटा दिया है। इसके बाद पुरानी धारा (राज्य के खिलाफ अपराध, धारा 152) को नए आवरण में दोबारा सामने लाती है और उसकी शुरुआत को बरकरार रखती है, यानी यहां भी बात शब्दों से शुरू होती है, ‘जो कोई…शब्दों से…’, यानी भले ही हिंसक कृत्य नहीं हुए हों, अकेले शब्द ही अपराध का गठन करने के लिए पर्याप्त होंगे।
अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में दी गई एक अत्यंत शक्तिशाली सुरक्षा है। जाति-आधारित आरक्षण की आलोचना के आरोप में प्रतिबंधित फिल्म ‘ओरे ओरु ग्रामाथिले’ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 1989 में अपने फैसले (एस. रंगराजन बनाम जगजीवन राम) में कहा था कि ‘प्रदर्शन और जुलूस की धमकी या हिंसा की धमकियों के कारण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचला नहीं जा सकता।’
पीठ ने फैसले में लिखा कि ‘राज्य खुली चर्चा और खुली अभिव्यक्ति को रोक नहीं सकता, भले ही उसमें उसकी नीतियों के प्रति कितना भी विषवमन न किया गया हो।’ अदालत के अनुसार, जनहित को वास्तविक खतरा ‘फिल्म की सार्वजनिक स्क्रीनिंग से नहीं, बल्कि राज्य द्वारा बचाव योग्य आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए गए प्रतिबंधों से पैदा होता है।’ यही कारण है कि नए कानूनों का सबसे कठोर हिस्सा भाषण और असहमति को दबाना है।
ब्रिटिश कानून के तहत किसी आरोपी को गिरफ्तारी के बाद अधिकतम 15 दिनों तक पुलिस हिरासत में रखा जा सकता था। यह पुलिस लॉकअप ही हैं जहां अत्याचार होता है। यहां तक कि अंग्रेज भी समझते थे कि यदि अत्याचार कम करना है तो पुलिस हिरासत को न्यूनतम रखना होगा। अब सरकार ने पुलिस हिरासत को 90 दिनों तक बढ़ाने वाला एक स्वदेशी कानून लाने का प्रस्ताव रखा है। दुनिया के किसी भी देश में इतना भयावह कानूनी प्रावधान नहीं है।
यह समझते हुए कि गिरफ्तारी के तुरंत बाद की अवधि का उपयोग पुलिस द्वारा यातना देने के लिए किया गया था, सुप्रीम कोर्ट ने डीके बसु मामले (डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, 1996) में गिरफ्तारी या हिरासत की स्थिति में पालन किए जाने वाले बुनियादी दिशा-निर्देश तय कर दिए थे।
इनके अनुसार, गिरफ्तारी की स्थिति में पुलिस को गिरफ्तारी का एक ज्ञापन तैयार करना होगा जिसमें गिरफ्तारी का स्थान, तारीख और समय बताना होगा। इस पर गिरफ्तार व्यक्ति के भी हस्ताक्षर होने थे। ऐसा इसलिए था क्योंकि पुलिस के लिए यह आम बात थी कि कभी भी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर लेती थी और कई-कई दिनों तक यातना देती रहती थी; फिर आरोपी को बाद की किसी तारीख में गिरफ्तार दिखाकर पेश करती थी ताकि उसके शरीर पर चोट का कोई निशान रहे भी तो गिरफ्तारी के पहले का प्रतीत हो या साबित किया जा सके।
दूसरे, गिरफ्तार व्यक्ति की हर 48 घंटे में एक सार्वजनिक अस्पताल में जांच होनी जरूरी थी और इसका एक मेडिकल रिकॉर्ड तैयार करना था। गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर गिरफ्तारी का मेमो और मेडिकल रिकॉर्ड भी एफआईआर के साथ मजिस्ट्रेट को भेजने थे। कोर्ट के दिशा-निर्देशों को हर थाने के नोटिस बोर्ड पर प्रदर्शित किया जाना था। ये सारे दिशानिर्देश नए कानूनों में अब ढूंढे नहीं मिलेंगे। इसीलिए नए कानून यातना को बढ़ावा देने वाले कानून हैं।
जनता की शिकायतें न लेने और गंभीर अपराधों, विशेषकर ताकतवर लोगों के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने से इनकार करने की पुलिस की आम प्रवृत्ति को नियंत्रित करने के लिए ही, सुप्रीम कोर्ट के पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने ललिता कुमारी मामले (ललिता कुमारी बनाम यूपी सरकार 2013) में फैसला देते हुए एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य कर दिया।
अदालत ने एफआईआर तुरंत दर्ज करने का आदेश देते हुए पुलिस का वह बहाना खारिज कर दिया कि एफआईआर इसलिए दर्ज नहीं की गई क्योंकि वह प्रारंभिक जांच कर रही थी। नए कानून में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विपरीत प्रारंभिक जांच कराने को सामान्य नियम बना दिया है।
अंतत:, आतंकवाद के संबंध में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के प्रावधान को सामान्य आपराधिक कानून में बदल दिया गया है। नकल का कारण ढूंढ़ना मुश्किल नहीं है। हर तरफ से अत्यंत खतरनाक बताए जाने वाले यूएपीए में भी दो सुरक्षा उपाय थे जो जांच अधिकारी (आईओ) की शक्तियों को सीमित करते थे।
सबसे पहले, आईओ को सबूत इकट्ठा करने के बाद सरकार से मंजूरी लेनी होती थी और उसके अभाव में अभियोजन आगे नहीं बढ़ सकता था। दूसरा, एकत्र किए गए सबूतों का आकलन करने और एक रिपोर्ट बनाने के लिए अधिनियम के तहत एक स्वतंत्र विशेषज्ञ को ‘सक्षम अधिकारी’ के तौर पर नियुक्त किया गया था जिसे तय करना था कि क्या यह अभियोजन ‘आतंकवाद’ के आरोप के साथ आगे बढ़ना चाहिए या नहीं।
इन दोनों सुरक्षा उपायों को पूरी तरह से लागू हुए बिना मुकदमा आगे नहीं बढ़ सकता था। ये दोनों सुरक्षा उपाय भी नए कानून में मौजूद नहीं हैं। यानी एक अत्यंत गंभीर कानून दो जरूरी सुरक्षा उपायों के बिना लागू कर दिया गया है, जो नए कानून को दोगुना सख्त बना देता है।
(डॉ. कॉलिन गोंजाल्विस भारत के सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ वकील और मानवाधिकार कानून नेटवर्क के संस्थापक हैं।